छाया: गूगल
अपने क्षेत्र की पहली महिला
• डॉ. शम्भुदयाल गुरु
· पिता थे मशहूर कव्वाल
· शुरुआत में भोपाल की नवाब बेगम की महफ़िल में गाती थीं कव्वाली
· भोपाल गैस त्रासदी की हो गईं शिकार
यह भारत -पाकिस्तान बंटवारे का दौर था और या तब तक तय नहीं हुआ था कि भोपाल भारतीय गणतंत्र में शामिल होगा या नहीं। किसी शादी की महफ़िल में चार साल की एक बच्ची अचानक ‘हरियाला बन्ना’ गाने लगी, महफ़िल में सन्ना टा छा गया, सभी मंत्रमुग्ध होकर सुनने लगे। अचानक एकमहिला आई और वह लड़की डरकर भाग गई।
उस लड़की का नाम था शकीला और डांटने वाली महिला थीं जमीला बेगम। शकीला के पिता रशीद खां खानदानी मिरासी थे, उनके पिता दिग्गज कव्वाल और चारबैत के शायर थे। लेकिन, उनकी पत्नी जमीला को बेटी शकीला का गाना बिलकुल नहीं सुहाता था। उनकी सख्ती से शकीला बीमार पड़ गयी, हकीम साहब ने कहा इसके मर्ज का इलाज है कि इसे गाने से न रोका जाए। उस वक़्त घर की माली हालत अच्छी नहीं थी। मजबूरी में जमीला नाते-रिश्तेदारों के यहाँ शादी-ब्याह की महफ़िल में ढोल बजाने लगीं थीं। वहां मिलने वाले न्योछावर घर में काम आते। कुछ सोचकर उन्होंने शकीला को महफ़िलों में गाने की मंजूरी दे दी। उस नन्ही सी उम्र में भी शकीला बखूबी ढोल बजा लेती थीं, इसलिए उनकी अम्मी जमीला ने अपने शौहर रशीद खां से हारमोनियम बजाना सीखा।
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एक दफ़ा शकीला का ढोल फूट गया, नए ढोल के लिए शकीला की अम्मी ‘हीरा भैया’ के नाम से मशहूर एक ऐसे व्यक्ति के पास पहुंची जो नेत्रहीन था। उस व्यक्ति को अपने साथ ढोल बजाने के लिए उन्होंने रख लिया। अब शकीला गाती थीं, हीरा भैया ढोलक और उनकी अम्मी हारमोनियम संभालती थीं। सिलसिला चल निकला। शुरुआत में उन छोटी-बड़ी मजलिसों में ही वे गाती थीं जिनमें पुरुषों के शामिल होने पर पाबन्दी थी। लेकिन एक दिन शकीला के नाम की खुशबू उड़कर भोपाल की नवाब बेगम तक जा पहुंची और जल्द ही महल के जनानखाने में आयोजित होने वाली मजलिसों में भी शकीला की पहुँच बन गई। उनकी शोहरत को सुनकर नवाब हमीदुल्ला खां भी अपने आपको रोक न सके और महफिल में गाने का न्योता भेज दिया। उस दिन पहली बार शकीला ने ऐसी महफ़िल में गाया जिसमें पुरुष भी थे। उसी महफ़िल में शकीला को ‘भोपाली’ की उपाधि से नवाजा गया जिसके बाद वे ‘शकीला बानो भोपाली’ के नाम से जानी जाने लगीं।
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उस समय भोपाल में ‘हमीदिया पार्क’ एक नाटक मण्डली थी, हालांकि इसके कई नाम थे। आसपास के गावों में यह नाटक मण्डली जाया करती थी। इसके मालिक थे मदनलाल कपूर, जो भोपाल के इतवारा में रहते थे। शकीला बानो के हुनर की तारीफ़ उन्होंने भी सुनी और अपने साथ काम करने का प्रस्ताव लेकर उनके वालिद साब के पास पहुँच गए, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। अब वे साजिन्दे हीरा भैया के मार्फ़त जमीला बेगम तक पहुंचे और बात बन गयी। जमीला बेगम ने लम्बे अरसे मुफलिसी का दौर देखा था, इसलिए भविष्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने फ़ौरन मंजूरी दे दी, इस शर्त पर कि शकीला कभी भोपाल में नाटक-नौटंकी में काम नहीं करेंगी। इसलिए कई लोग इस बात को कभी जान भी नहीं पाए। हालाँकि यह काम उन्हें रास नहीं आया और करार पूरा होने के बाद वे मदनलाल की नाटक कंपनी से आज़ाद हो गयीं।
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वक़्त आने पर शकीला की शादी नन्हें खां उर्फ़ बाकर मियां कर दी गयी। बदकिस्मती से नन्हें खां गाने बजाने को बहुत बुरा समझते थे और उन्होंने शकीला के महफ़िलों में गाने पर पाबंदी लगा दी। लेकिन गाना तो शकीला की ज़िन्दगी थी जिसे वह किसी कीमत पर नहीं छोड़ सकती थीं, लिहाजा जल्द ही दोनों का तलाक़ हो गया और वे अपने माता-पिता के घर लौट आयीं। कुछ दिनों के बाद फिर शकीला के कव्वाली की महफ़िल सजने लगी, लेकिन तलाक के बाद भी उनके शौहर को ‘गाना’ मंजूर न हुआ। उन्होंने शकीला के खिलाफ एक तरह से जंग छेड़ दी। वे उन्हें तरह-तरह से बदनाम करने की कोशिश करते। बात इस हद तक पहुँच गई कि गुंडों के जरिये वे शकीला के अपहरण की कोशिश से भी बाज़ न आए। इस बुरे दौर में शकीला के पिता रशीद खां ने उनका साथ दिया।
1956-57 के दौरान फिल्म ‘नया दौर’ की शूटिंग भोपाल के पास बुधनी में चल रही थी। स्व दिलीप कुमार और वैजयंती माला भी आए हुए थे। इस फिल्म के कहानीकार अख्तर मिर्जा भोपाल के ही थे। उस समय शहर में आने वाले ‘बड़े लोग’ नवाब हमीदुल्लाह खां के ए.डी.सी. छुट्टन मियां के मेहमान हुआ करते थे। छुट्टन मियाँ ने बुधनी में शकीला बानो भोपाली की कव्वाली का इंतजाम करवाया। बी.आर.चोपड़ा, एस.एम. सागर सहित दिलीप कुमार और वैजयन्ती माला ने शकीला की कव्वालियों का लुत्फ़ उठाया। उस आयोजन में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक तो एस.एम. सागर ने शकीला को अपनी बेटी बना लिया, दूसरे- दिलीप कुमार ने उनसे कहा “आपकी जगह यहाँ नहीं, बम्बई में है।”
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इसके बाद से शकीला की अम्मी ने भोपाल और उसके आसपास के बुलावे को ठुकराना शुरू कर दिया और एक दिन वे शकीला को लेकर बम्बई पहुँच गयीं। शकीला बानो भोपाली के जीवन में उनके बचपन के दोस्त ‘बाबू’ की अलग ही जगह थी। इस दो तरफा मुहब्बत में ज्यादातर बातें अनकही ही रहीं । शकीला की अम्मी इस बात को जानती थीं और वे लगातार दोनों को एक दूसरे से दूर रखने की कोशिश करतीं। शकीला के बम्बई जाने के बाद खतों का सिलसिला जरुर शुरू हुआ लेकिन ‘बाबू’ निरक्षर थे इसलिए ख़त लिखने के लिए अपने एक शायर दोस्त हबीब की मदद लेते जबकि शकीला के खतों में उनकी खुद की लिखी शायरियाँ, अशआर और नज़्म होते। उन तमाम खतों को एक साथ प्रकाशित करवाया जाता तो शकीला के नाम एक ‘दीवान’ तो जरुर हो जाता।
बम्बई में शकीला तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं, उन्होंने माहिम में अपना घर ले लिया, चारों तरफ उनके कव्वाली की धूम थी। वे मौके के मुताबिक़ शेर पढ़तीं। कव्वाली गाने के बीच में शेर ओ शायरी का इस्तेमाल गिरह कहलाता है जिसमें शकीला बेजोड़ थीं। उनकी वजह से लोग टिकट खरीदकर कव्वाली सुनने आने लगे थे वरना उर्स या निजी समारोहों में ही कव्वाली के कार्यक्रम हुआ करते थे। मगर वे पूरी तरह पेशेवर कभी नहीं हो पायीं।
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बम्बई में एक तरफ उनका करियर परवान चढ़ रहा था दूसरी तरफ उनकी ज़िन्दगी दुश्वार होती जा रही थी। पहले वे अपनी अम्मी के सामने जुबान नहीं खोल पातीं थीं लेकिन बाद में दोनों के बीच तनातनी के हालात पैदा हो गए। वे अपने पिता की बहुत इज्ज़त करती थीं। घर चलाने की जिम्मेदारी शकीला की ही थी। उन्होंने अपनी बहन को एम.ए. तक की शिक्षा दिलवाई। इस बीच उन्होंने अपने बचपन के दोस्त बाबू खां को बम्बई अपने पास बुला लिया जिसकी वजह से उनकी अम्मी खासी नाराज़ हुईं थीं। वक़्त बीतने के साथ बाबू, जमीला बेगम की आँखों की किरकिरी बन गए क्योंकि शकीला जहां भी जातीं उन्हें अपने साथ रखतीं। शुरुआत में बाबू खां उनके घर की रसोई सँभालते और शकीला के छोटे भाई-बहनों को स्कूल पहुंचाने का काम करते। बाद वे ड्राइवर बन गए थे। इससे साथ तो बना रहा लेकिन इजहार-ए-मुहब्बत की सूरत तब भी नहीं बनी। बाद में वे उन्हें विदेशों में होने वाले कार्यक्रमों में भी अपने साथ रखने लगीं। समय गुजरता रहा, इस बीच शकीला ने अपने भाई के बेटे को गोद ले लिया। उस बच्चे की देखभाल शकीला और बाबू – दोनों ने मिलकर की।
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गर्मी की छुट्टियों में शकीला भोपाल जरुर आती थीं। ऐसी ही एक छुट्टी के दिन भोपाल में शकीला की अपनी अम्मी से बाबू खां के मसले पर ठन गयी। उस दिन उन्होंने अपने परिवार के सामने ऐलान कर दिया था कि वे बाबू खां से ही निकाह करेंगी। उनकी अम्मी आसानी से हार माने वालों में से नहीं थीं, उन्होंने बाबू खां को धमकाने के लिए गुंडे भेज दिए लेकिन जब बाबू खां ने उन गुंडों को अपनी मुहब्बत की दास्तां सुनाई तो वे भी पसीज गए। आखिरकार शकीला बानो और बाबू खां का निकाह हो गया लेकिन जमीला बानो के साथ हुए इस करार के साथ कि निकाह की खबर आम नहीं होगी। और चूँकि एक बच्चे को गोद ले चुकी हैं इसलिए किसी और बच्चे को जन्म नहीं देंगी। शकीला ने सारी शर्तें मान लीं। शादी के बाद बाबू खां की हैसियत में इज़ाफ़ा हुआ तो जेब में पैसे भी गए। कुछ ही दिनों के बाद वे यार दोस्तों के साथ शराब और शबाब पर पैसे उड़ाने लगे। शकीला ने उन्हें समझाया और खुशकिस्मती से वे सुधरने की राह पर लौट आए।
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उस समय शकीला फिल्मों में भी काम कर रही थीं लेकिन किसी के पास खुद कभी काम मांगने नहीं गयीं। उस दौर के हर सफल फिल्म में शकीला की कव्वाली ज़रुर हुआ करती थी। इसके अलावा उनके पास छोटे बजट की फ़िल्में भी आने लगीं जिसमें वे अभिनय करने लगी थीं। उनमें से कई फ़िल्में कभी रिलीज नहीं हुईं। समय कभी एक सा नहीं रहता। वक़्त के साथ कव्वाली की सूरत बदलने लगी। लोग मुकाबले वाली कव्वाली की मांग करने लगे। इच्छा न होते हुए भी वे एक बार कव्वाल इस्माइल आज़ाद के साथ मुकाबले के लिए तैयार हो गयीं। इस्माइल के द्विअर्थी और छिछली शायरी का सामना करना शकीला के लिए तकलीफदेह अनुभव रहा उसके बाद उन्होंने कव्वाली मुकाबले से हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया। कव्वाली का चरित्र और भी बदला और डिस्को कव्वाली का ज़माना आ गया। इस गिरते हुए स्तर के साथ समझौता करना शकीला की फ़ितरत नहीं थी।
शकीला खुद फिल्मों में काम करने से ज्यादा मंचो पर खुद को सहज पाती थीं लेकिन बुलावों का सिलसिला थमने लगा धीरे-धीरे। फिर वह वक़्त भी आया जब शकीला दिल्ली से मुंबई जा रही थीं और बीच में ही भोपाल लौटने की ज़िद करने लगीं। बड़ी मुश्किल से ट्रेन में रिजर्वेशन मिला और वे भोपाल आ गयीं। चंद रोज़ बाद ही यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से गैस रिसी, जिसकी चपेट में पूरे परिवार के साथ शकीला भी आ गयीं। परिवार के बाकी सदस्य तो बाद में उबर गए लेकिन शकीला फिर उसके बाद कभी गा नहीं सकीं। वे एकाध सुर लगाने में ही हांफ जातीं। वापस मुंबई आने के बाद भी सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ। इस बीच उनके वालिद चल बसे जिन्हें माहिम के कब्रिस्तान में ही दफनाया गया। उसके चंद सालों के बाद उनकी अम्मी जमीला बानो भी गुजर गयीं।
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जहनी तौर पर टूटी हुई शकीला ने उसी दौर में अपनी वसीयत लिखी। दरअसल, माता पिता के गुजर जाने के बाद वे अपनी छोटी बहन जरीना और गोद लिए हुए बेटे डबल्यू के लिए फिक्रमंद थीं। जैसे ही वह वसीयत सामने आई घर में भूचाल आ गया क्योंकि वसीयतनामे में शकीला ने बाबू खां को आधे हिस्से का वारिस बनाया था। शकीला के सामने कोई कुछ नहीं कहता, लेकिन घर सियासी अखाड़ा बन गया जिसके बारे में शकीला कुछ नहीं जानती थीं। उन्हें अपने भाई बहनों से बहुत ज्यादा प्यार था। उन्होंने कई बार जरीना को पैसे दिए थे ताकि वे उन्हें वे संभालकर रखें। मगर ज़रुरत पड़ने पर जब शकीला ने बहन से पैसे मांगे वे साफ़ मुकर गयीं। जमा-पूंजी लुट जाने से कहीं बड़ा सदमा था छोटी बहन का फ़रेब।
इस फरेब ने उनके वजूद का ज़र्रा-ज़र्रा बिखेर दिया और 16 दिसंबर 2002 में इस फानी दुनिया को वे अलविदा कह गईं, मगर उससे पहले ‘बाबू खां’ का निकाह अपने सामने करवाकर उन्हें लेकर तसल्ली जरुर हासिल कर ली।
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सन्दर्भ : बानो का बाबू, लेखक रफ़ी शब्बीर,
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