स्त्री विमर्श की जीती जागती तस्वीर हैं ऋचा साकल्ले

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स्त्री विमर्श की जीती जागती तस्वीर हैं ऋचा साकल्ले

छाया : ऋचा साकल्ले के फेसबुक अकाउंट से

• सारिका ठाकुर

किसी भी इंसान के जीवन में कुछ ग़लत इसलिए होता चला जाता है क्योंकि उसे पता ही नहीं चलता कभी कि जो कुछ उसके साथ हो रहा है वह ग़लत है और नहीं होना चाहिये। अगर बात परंपरागत सोच की हो तो पता होने के बाद भी कम ही लोग विरोध का रास्ता चुन पाते हैं। अनुभवी पत्रकार ऋचा साकल्ले का जीवन इस अर्थ में स्त्री विमर्श का सशक्त उदाहरण है। न केवल अपने जीवन में उन्होंने इस समस्या को गहराई से महसूस किया बल्कि प्रतिरोध भी किया। खुद के लिए फ़ैसले लेने की जब उम्र भी नहीं थी उन्होंने अपनी माँ के लिए आवाज़ उठाई।

02 जून 1976 को ऋचा साकल्ले  (richa sakalley) का जन्म भोपाल (bhopal)  में हुआ। उस वक़्त उनके पिता श्री राधेश्याम साकल्ले - जो श्याम साकल्ले के नाम से विख्यात हैं, भोपाल में बैंककर्मी थे जबकि उनकी माँ श्रीमती शैलमणि साकल्ले गृहणी हैं। पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के चलते वे अपने गृहनगर हरदा चले गये।  तीन भाई-बहनों में ऋचा सबसे बड़ी हैं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मॉडल स्कूल, हरदा से हुई। उस समय यह शहर का सबसे अच्छा स्कूल माना जाता था। इसके बाद शासकीय कन्या विद्यालय से वर्ष 1993 में उन्होंने हायर सेकेंडरी पास किया।

श्याम जी शहर के जाने-माने साहित्यकार और बड़ी हस्ती थे। अशोक चक्रधर, शैल चतुर्वेदी, प्रदीप चौबे, संतोष आनंद जैसे कवियों के साथ मंच साझा करते थे। प्रसिद्ध लेखक नरेन्द्र मौर्य - जिनकी कहानी ‘कोलंबस ज़िन्दा है’ की कहानी पर फ़िल्म 'साथ-साथ' बनी थी, श्याम जी के जिगरी दोस्त थे। घर में अक्सर साहित्यकारों का जमावड़ा होता। ख़ास तौर पर हरदा के घंटाघर चौराहे पर उनकी मंडली अक्सर जुटती थी। वे बचपन से ही ऋचा को पढ़ने लिखने और बड़ी होकर कुछ बनने के लिए प्रोत्साहित करते थे। जब ऋचा कुछ बड़ी हुईं तो अपने पिता की एक बात उन्हें खटकने लगी। वो उनके साथ तो बहुत ही अच्छा व्यवहार करते थे, सामाजिक जीवन में भी स्वयं को प्रगतिशील कहते थे, लेकिन अपनी जीवनसंगिनी के साथ उनका व्यवहार घोर उपेक्षापूर्ण था। उनके माता-पिता के बीच आयु का बड़ा अंतर तो था ही, घर में दादी भी साथ ही थीं। वे परम्पराओं के पालन में रत्ती भर भी ढील नहीं देती थीं। ऋचा ने अपनी माँ को मासिक धर्म वाले दिनों में ज़मीन पर सर्दी में भी मामूली चादर बिछाकर सोते देखा। आठवीं-नौवीं तक उन्हें बहुत कुछ समझ में आने लगा। जब ऋचा का समय आया तो उन्होंने ज़मीन पर इस तरह सोने से मना कर दिया। दादी से न उलझना पड़े इसलिए वो उनसे छिपाने लगीं। लेकिन मामला इतना आसान भी नहीं था। दादी उंगलियों पर दिन गिनती और जब उन्हें पता नहीं चलता तो ऋचा के पिता से बात करती कि ऋचा को डॉक्टर से दिखाओ उसे पीरियड क्यों नहीं आ रहे हैं। उनके पिता ने लिहाज की वजह से कभी ऋचा से बात नहीं की लेकिन उनकी माँ से जरुर पूछते। ऋचा कहती हैं "इन सबमें तसल्ली एक ही बात  की है कि पापा ने कभी इस बारे में बात नहीं की। भले ही लिहाज की वजह से ऐसा किया हो, वे माँ से बात करते थे और माँ मेरी ओर से बोलती थीं।"  

उम्र के साथ हुई इस तब्दीली के साथ कुछ और भी बदल गया। वे माँ के साथ अपने पिता के बर्ताव को लेकर सवाल पूछने लगीं। कई बार उनके पिता झुंझलाकर कह उठते –“तुम्हें क्या दिक्कत है? तुम्हें तो मैं कुछ नहीं कहता!” इसके बाद पिता-पुत्री के बीच बहस की शुरुआत हो जाती। समय के साथ यह बहस लम्बी और तीखी होती चली गयी। हालाँकि उस वक्त तक ‘फ़ेमिनिज़्म’ जैसे शब्द से उनका परिचय भी नहीं हुआ था। वर्ष 1993 में हायर सेकेण्डरी के बाद वे मेडिकल की तैयारी के लिए  इंदौर आ गयीं। दरअसल उनके पिता के मित्र की बेटी इंदौर रहकर मेडिकल की तैयारी कर रही थी जो ऋचा की भी सहेली थी। मित्र ने पिता से पूछा कि क्या ऋचा इंदौर जाएगी। यह सुनकर वे झट से मान गए। हालांकि मेडिकल परीक्षा वे सफल नहीं हुईं लेकिन घर के तनावपूर्ण वातावरण से निकलकर खुली हवा में सांस लेना सुखद अनुभव था। इस असफलता के बाद उन्हें वापस हरदा आना पड़ा। पिता कहते, ‘’क्या करोगी आगे? कीड़े मकोड़ों जैसी ज़िन्दगी चाहती हो क्या? जिन्दगी भर रसोई में बर्तन घिसना चाहती हो? अगर बेहतर ज़िन्दगी चाहती हो तो कुछ करो।”

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ऋचा कहती हैं, “काश उस समय कोई कहता-कोई बात नहीं, एक बार में सफल नहीं हुई तो क्या, फिर कोशिश करो ज़रुर सफल होगी।” यानी उस समय कोई भी आसपास ऐसा नहीं था जो रास्ता दिखाता कि आगे क्या करना है। वापस हरदा लौटने के बाद उनका दाखिला शासकीय विज्ञान महाविद्यालय, हरदा में करवा दिया गया। वह एक मुश्किलों से भरा दौर था। विज्ञान उनके लिए हौआ नहीं था, वे पढ़ाई कर रही थीं लेकिन बेमन से। उनके इंदौर जाने के बाद से उनके माता-पिता के बीच तनाव और भी बढ़ गया। उनकी माँ परेशान रहने लगीं, उनका स्वास्थय बिगड़ने लगा। एक समय ऐसा भी आया जब उनका रक्तचाप आसमान छूने लगा। माँ की हालत देख ऋचा भी अवसादग्रस्त रहने लगीं। जब भी पिता-पुत्री आमने-सामने होते बहस में उलझ जाते। नतीजा ये हुआ कि वे ग्रेजुएशन के पहले वर्ष की परीक्षा ही नहीं दे पायीं। ज़िन्दगी  और भी उलझ गयी।

करियर को आगे बढ़ाने के लिए ग्रेजुएशन जरुरी था, इसलिए वर्ष 1995 में चित्रांश एडी कॉलेज, भोपाल में उन्होंने कला विषय लेकर दाख़िला ले लिया। भोपाल में ऋचा के नाना-नानी रहते थे, इसलिए यहाँ आकर पढ़ाई करने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। उस समय तक उन्हें खुद के बारे में सिर्फ इतना पता था कि वे अच्छा लिख सकती हैं। इस आत्मविश्वास के पीछे वे पुरस्कार थे जो स्कूली जीवन में उन्हें विभिन्न प्रतियोगिताओं में मिले थे। तब तक उनका भाई पढ़ने के लिए इंदौर चला गया था। वर्ष 1998 में ग्रेजुएशन करने के बाद उनके भाई ने पत्रकारिता से भी स्नातक करने के बारे में पूछा। उस समय पत्रकारिता और जनसंचार का एक साल का कोर्स होता था। ऋचा ने थोड़ी मालूमात हासिल की तो यह सुझाव उनको पसंद आया। उनका दाखिला देवी अहिल्या वि.वि.के स्कूल ऑफ़ जर्नलिज़्म में हो गया। ऋचा कहती हैं, “मैंने पत्रकरिता की पढ़ाई के बारे में पहले नहीं सोचा था, लेकिन जब दसवीं में थी तब यूं ही अकेले में न्यूज़ रीडर (news reader) और एंकर (anchor) की नक़ल किया करती थी। वह दौर गुज़र जाने के बाद पत्रकारिता (Journalism) से जुड़ना मुझे सचमुच हैरान कर गया।”

बीजेएमसी (BJMC) करने के दौरान ऋचा को स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अपराध, भेदभाव, घरेलू हिंसा जैसे विषयों की जानकारी मिली। मन में घुमड़ रहे कुछ सवालों के जवाब भी मिले और यह भी पता चला कि अपने घर की जिन बातों से वे बचपन से परेशान हैं वह सिर्फ एक घर का नहीं बल्कि दुनिया भर की समस्या है। इंदौर में पत्रकारिता की पढ़ाई का अनुभव बहुत ही अच्छा रहा। ऋचा कहती हैं, उस समय पूरा हिन्दुस्तान जैसे हमारे कॉलेज में जुटा था, वहाँ बिहार, असम, पंजाब, उत्तराखंड - हर जगह के विद्यार्थी थे। इसके बाद उन्होंने माखनलाल विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में मास्टर्स भी किया। इस दौरान उन्हें किसी एक विषय पर शोध कार्य करना था। जब श्याम जी ने जानना चाहा कि उन्होंने शोध के लिए कौन सा विषय लिया है तो ऋचा ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया - “घरेलू हिंसा।”

उनके पिता चुप रह गए, जैसे उनके पास कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं। ऋचा कहती हैं, इसके बाद उनके पिता का उनकी माँ के प्रति बर्ताव बदलने लगा। दोनों के बीच कई चीजें ठीक हुईं।” इधर शोध पर काम करने से पहले उन्होंने मदद के लिए माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में कार्यरत दीपेन्द्र बघेल से संपर्क किया। उन्होंने ऋचा को भारत ज्ञान विज्ञान समिति (bharat gyan vigyan samiti) भेज दिया। संस्था की महासचिव आशा मिश्रा से इस मुद्दे पर उनकी गहरी चर्चा हुई। ऋचा कहती हैं, “पहली बार ‘सिमोन द बोउआर’ (simon the bowar) के बारे में मुझे आशाजी ने ही बताया। उन्होंने उनकी किताब का हिन्दी अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ (stri upekshita) मुझे पढ़ने को दी।”

शोध के लिए घरेलू हिंसा विषय पर जब उन्होंने महिलाओं से बातचीत की तो उन्हें कई हैरतअंगेज बातें सुनने को मिलीं जैसे -“पति नहीं मारेगा तो कौन मारेगा?”

“प्यार करता है तभी तो मारता है।

इस तरह की बातें सुनने के बाद उनकी समझ में आया कि समाज में इस तरह की घटनाएं आम हैं। समाज स्त्री और पुरुष को तैयार ही इस तरह करता है कि स्त्रियों को लगे कि ऐसा तो होता ही रहता है और पुरुषों को लगे कि ऐसा करना उनका विशेषाधिकार है। मेरा घर तो इनके सामने कुछ भी नहीं है। उस समय उन्हें अपनी माँ याद आईं जिन्होंने कभी इस तरह की घटनाओं को स्वीकार नहीं किया। कमज़ोर सा ही सही लेकिन वे उनसे प्रतिरोध की बातें ज़रुर करती थीं।

वर्ष 2001 में ऋचा को ‘दैनिक भास्कर’ (dainik bhaskar) में पहली नियुक्ति मिली। उन्हें अनुवाद का काम मिला। उन्हें रिपोर्टिंग (reporting) करनी थी लेकिन अखबारों में झट से रिपोर्टिंग का काम नहीं दिया जाता। फ़ील्ड में भेजने से पहले डेस्क के काम का तजुर्बा ज़रुरी होता है। हालाँकि उन्हें आश्वस्त किया गया कि मौक़ा दिया जाएगा। कुछ महीनों के बाद उनसे फीचर भी लिखवाए जाने लगे। ऋचा ने सबसे पहला फीचर ‘मजदूर दिवस’ के अवसर पर लिखा था। इस विषय पर लिखने में माकपा नेता बादल सरोज ने उनकी बहुत मदद की थी। नौकरी के साथ वे बीजीवीएस के दफ़्तर भी रोज़ जाती थीं और वहाँ वक्त बिताती थीं।

एक बार मानव अधिकार आयोग की एक परियोजना पर शोधकार्य करने के लिए ऋचा से आशा जी ने पूछा। मंडला में रहकर बैगा आदिवासियों के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू पर अध्ययन करना था। ऋचा की बड़ी इच्छा हुई शोधकार्य में हिस्सा लेने की। उन्होंने सम्पादक महोदय से बात की लेकिन उन्होंने तुरंत मना कर दिया। इसक बाद भी वे लगातार कोशिश करती रहीं लेकिन छुट्टी नहीं मिली। ऋचा ने नौकरी का मोह छोड़कर शोध के लिए मंडला जाना चुना। इस तरह दैनिक भास्कर के साथ उनका लगभग साल भर का सफ़र रहा। वे लगभग एक महीने इस शोधकार्य के लिए मंडला में रहीं, जहाँ उन्होंने आदिवासियों के जीवन को करीब से देखा। उन्हें यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष को लेकर किसी तरह का भेदभाव नहीं है। एक महीने के बाद वे भोपाल लौट आईं और नौकरी की तलाश में जुट गयीं। दैनिक भास्कर में उनके सहयोगी रहे वरिष्ठ पत्रकार पुष्पेंद्र सोलंकी ने सांध्य प्रकाश समाचार पत्र में काम करने के लिए उन्हें बुला लिया। वहाँ भी उन्होंने कहा कि मैं रिपोर्टर बनना चाहती हूँ। पुष्पेंद्र उस समय सांध्य प्रकाश में संपादक थे। उन्होने आश्वासन दिया कि वे उन्हें रिपोर्टिंग का भी अवसर देंगे।

अगस्त 2002 में प्रदेश के पन्ना जिले में स्थित पटना तमोली गाँव में कट्टूबाई नामक महिला अपने पति मल्लू नाई की चिता पर सती हो गयी। इस घटना की रिपोर्टिंग करने की जिम्मेदारी उस समय ऋचा को सौंपी गयी। सांध्य प्रकाश (sandhya prakash) में आठ-नौ महीने काम करने के बाद उन्हें सहारा समय में अवसर मिला और वे भोपाल से नोएडा (noeda) जा पहुँची। अपने व्यक्तित्व के निर्माण में ऋचा बीजीवीएस, ऐडवा (aidwa) जैसी संस्थाओं की बड़ी भूमिका बताती हैं। इससे पहले हरदा से इंदौर या भोपाल तक वे निकली थी। राज्य से बाहर जाकर काम करने का यह पहला अवसर था। सहारा समय में काम करने के दौरान मिले अनुभव को वे बेशकीमती मानती हैं। वहाँ उनके चैनल ‘सहारा समय मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़’ (Sahara Samay Madhya pradesh and Chhattisgarh) के मुखिया मुकेश कुमार थे, जो ऋचा के काम की सराहना भी करते थे। दोनों एक ही विचारधारा को मानने वाले थे। ऋचा कहती है, “उस समय मैं पहली लड़की थी टेलीविजन मीडिया (television media) में जिसे बुलेटिन प्रोड्यूसर (bulletin producer) की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी।” इसके बाद मुकेश कुमार सहारा समय छोड़कर चले गये। ऋचा अपने भविष्य को लेकर उलझन में थीं। उनके जाने के बाद नीलेंदु सेन आये, उनकी टीम से ऋचा को सहारा समय नेशनल की टीम में भेज दिया गया। स्त्री केन्द्रित एक कार्यक्रम की रूपरेखा बनी, स्टूडियो भी तैयार होने लगा। कार्यक्रम शुरू हो पाता उससे पहले पुण्य प्रसून वाजपेयी बतौर ‘एडिटर इन चीफ़’ आ गए। असमंजस की स्थिति में ऋचा तय नहीं कर पा रही थीं कि उन्हें रुकना चाहिये या कहीं और नौकरी तलाश करनी चाहिये। उल्लेखनीय है कि प्रायः मीडिया लाइन में कोई वरिष्ठ पद पर कार्यरत पत्रकार (Journalist) काम छोड़ता है तो उसके साथ उसके अधीन काम करने वाले लोग भी काम छोड़ देते हैं और वहीँ जाना पसंद करते हैं जहाँ उनके वरिष्ठ को नियुक्ति मिलती है। पुण्य प्रसून वाजपेयी के साथ भी उनकी पूरी टीम थी। इस उहापोह की स्थिति में ऋचा ने कुछ तय किया और अपनी स्क्रिप्ट लेकर पुण्य प्रसून के चैम्बर में चली गयीं। पुण्य प्रसून ने वह स्क्रिप्ट देखी और नाज़िम नक़वी को पकड़ा दी, नक़वी ने उसे एन.के. सिंह को दे दिया। श्री सिंह को उनकी स्क्रिप्ट पसंद आई, इसके वे पुण्य प्रसून की टीम का हिस्सा बन गयीं। ऋचा को ‘मेरा आसमाँ’ शो में जगह मिली। इस टीम के साथ काम करने का अनुभव शानदार रहा। इस दौरान सहारा समय की टीआरपी के साथ दबदबा भी बढ़ा। सब कुछ बहुत ही अच्छा जा रहा था, लेकिन एक दिन अचानक चैनल के मालिक की नाराज़गी के कारण पुण्य प्रसून अपनी टीम सहित इस्तीफ़ा देकर चले गए।

इधर ऋचा ने ‘आज तक’ में कार्यरत प्रणव रावल जी से संपर्क किया। वे देवी अहिल्या बाई विश्वविद्यालय में उनके सीनियर थे। उनके सहयोग से वर्ष 2008 में आज तक चैनल में उनकी लिखित परीक्षा हुई और उनका मौखिक साक्षात्कार चैनल के मैनेजिंग एडिटर कमर वहीद नक़वी ने लिया, जिसमें सफल होने के बाद ‘तेज’ चैनल (tez tv channel) के लिए उनका चयन हुआ। वर्तमान में ऋचा इसी चैनल से जुडी हैं और सीनियर प्रोड्यूसर के पद पर कार्यरत हैं।

ऋचा की प्राथमिकताओं में शादी कभी नहीं रही। माताजी जरुर चिंतित रहती थीं लेकिन पिता ने कभी इसके लिए नहीं टोका। ऋचा कहती हैं, “उन्होंने टोका भी नहीं, न यह कहा कि खुद से किसी को पसंद कर लो। मेरा ध्यान भी उस तरफ नहीं था इसलिए शादी की बात लम्बे समय तक टलती रही।” ऋचा के अनुसार गौर करने लायक कोई रिश्ता भी नहीं आया। उनकी शर्त थी कि वे अपनी नौकरी नहीं छोड़ेंगी। इक्का-दुक्का पत्रकारों का रिश्ता आया लेकिन उन्हें ऋचा के नाईट शिफ्ट से दिक्कत थी इसलिए बात बढ़ी ही नहीं। उनकी माँ ने एक बार एक वैवाहिक विज्ञापन देखा जिसमे बताया गया था कि लड़का दिल्ली में रहता है, पत्रकार है और लाइव इण्डिया में काम करता है। दोनों के माता पिता ने एक दूसरे से बात की और ऋचा से कहा गया कि ‘दोनों बात कर लो’, लेकिन लम्बे समय तक बातचीत का अवसर नहीं आया क्योंकि बीच में सवाल था कि पहल कौन करे। खुद यह न करने के बारे में ऋचा बताती हैं कि “मैं दिखने में औसत हूँ, तो मुझे लगता था भला मुझे कोई क्यों पसंद करेगा।”

लाइव इण्डिया (live indfia) में पहले काम कर चुकीं वंदना झा - जो 'तेज' चैनल में उनके साथ थीं एक दिन ऋचा के घर आईं। बातों बातों में शादी की बात निकली और रोहित जी की बात उठी जिनसे ऋचा की शादी की बात चल रही थी। वंदना झा ने रोहित की खूब तारीफ की और उसी की पहल पर मुलाकात का वक्त तय हुआ। फिर दोनों की मुलाकातें भी होने लगी लेकिन शादी का फैसला लेने में ढाई वर्ष का समय लगा। शादी के बाद ऋचा के व्यक्तिगत जीवन पर ख़ास फ़र्क नहीं पड़ा लेकिन संयोगवश रोहित जी के पी 7 चैनल से 'दिल्ली आज तक' चैनल और वहां से 'तेज' चैनल में आने पर दोनों के जीवन में हलचल मच गयी। रोहित जी पैनल पर काम करते थे। मियां-बीबी की तू-तू मैं मैं का आनंद उठाने के शौक़ीन सहकर्मी दोनों की शिफ्ट साथ ही लगाते और इस बात पर कड़ी नज़र रखते कि अपने पति के साथ ऋचा कैसा व्यवहार रखती हैं। कभी कभी ऐसा होता कि पैनल के सभी लोगों के साथ वे अपने पति को भी डांट पिला देती और लोगों को बातें बनाने का मौका मिल जाता। ऋचा हंसकर कहती है “वह बहुत ही मुश्किलों से भरा दौर था। यदि मैं किसी गलती पर रोहित से कुछ नहीं कहती तो मुझपर पक्षपात का इल्जाम लग जाता और सामान्य व्यवहार रखने पर वे लोग कहते ,देखो पति के साथ कैसा बर्ताव करती है। कभी कभी आमने सामने भी कह देते कि तुम्हारे साथ कैसे रहता होगा बेचारा रोहित।” हालांकि इन बातों को दोनों कभी हंसकर टालते, कभी नज़र अंदाज़ करते लेकिन कभी-कभी दोनों में विवाद ऐसे शुरु होता कि घर तक पहुंच जाता। हालांकि ये सब कुछ वक़्त के लिए ही रहा।

वर्ष 2022 में 'तेज' चैनल की जगह 'गुड न्यूज़ टुडे' (good news today) अस्तित्व में आया और टीम भी बदल गई। वर्तमान में रोहित किसी अन्य चैनल में काम करते हैं। दोनों की कोई संतान नहीं है और वे दोनों किसी बच्चे को गोद लेने के लिए प्रयासरत हैं।

सन्दर्भ स्रोत : ऋचा साकल्ले से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित

© मीडियाटिक

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