मध्यप्रदेश की पहली महिला खेल पत्रकार प्रमिला तिवारी

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मध्यप्रदेश की पहली महिला खेल पत्रकार प्रमिला तिवारी

छाया: स्व सम्प्रेषित 

• सारिका ठाकुर

अपने क्षेत्र की पहली महिला

सत्तर और अस्सी के दशक में लगभग सभी प्रतिष्ठित हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के सिनेमा वाले स्तम्भ में एक नाम चमकता हुआ सा दिख जाता था ‘प्रमिला’। बिना सरनेम वाली इस पत्रकार का खेल(क्रिकेट) और फ़िल्मी कवरेज में कोई सानी नहीं था। रोलर कोस्टर जैसी ज़िन्दगी से डरने की बजाय हर पल उसका लुत्फ़ उठाने वाली प्रमिला जी का जन्म धार जिले के सरदारपुर में हुआ था लेकिन उनके जन्म के तीन-चार महीने बाद ही उनका परिवार ग्वालियर आ गया। उनकी माँ श्रीमती विद्यावती तिवारी ने हिन्दी विषय लेकर विशारद किया था और वे ग्वालियर में ही शासकीय उच्च विद्यालय में प्रधानाध्यापक थीं। पिता श्री जगदीश प्रसाद तिवारी पोस्ट ऑफिस में इंस्पेक्टर थे इसलिए अक्सर उनका तबादला हुआ करता था।

प्रमिला जी पांच बहनों में चौथी हैं। जब सभी भाई-बहन छोटे थे तो जहाँ-जहाँ पिता का तबादला होता तो परिवार भी उनके साथ ही रहता लेकिन बाद में बच्चों की शिक्षा के लिए माँ ने ग्वालियर में स्थायी रूप से बसने का निर्णय ले लिया। पिता छुट्टियों में घर आते इसके अलावा जिस बच्चे की छुट्टी होती वह पिता के पास रहने पहुँच जाता। पारिवारिक व्यवस्था इस प्रकार की थी बच्चों को माँ के साथ-साथ पिता का भी साथ मिलता रहे। चूँकि माँ स्वयं उच्च शिक्षित थीं इसलिए पुत्र-पुत्री में उन्होंने कभी फर्क नहीं किया। हाँ, रिश्तेदार जब सभी भाई-बहनों के साथ प्रमिला और उनकी बड़ी बहन शीला की थालियों में ‘घी’ देखते तो माँ को खूब ऊँच-नीच समझाते जिस पर कभी उन्होंने ध्यान नहीं दिया।  

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घर में परिवार के सदस्यों के उम्र के हिसाब से पत्र-पत्रिकाएँ आते। जैसे माँ को अंग्रेजी बहुत ज्यादा समझ में नहीं आतीं, तो उनके लिए हिन्दी अख़बार और अंग्रेज़ी का शौक रखने वालों केलिए अंग्रेज़ी अख़बार। इसके अलावा धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, रविवार. माया पराग, चम्पक नंदन जैसी दर्ज़न भर  पत्रिकाएँ आती थीं। बच्चों को फिजूलखर्ची  करने की इजाज़त नहीं थी लेकिन अगर पत्रिका, उपन्यास या कोई किताब ख़रीदा जाना फिजूलखर्ची के दायरे में नहीं आता था। माँ के कारण ही सभी बच्चे हिन्दी बोलने और लिखने में कुशल रहे। प्रमिला जी के अनुसार ‘’हमारा बचपन भौतिक सुख सुविधाओं से संपन्न नहीं था लेकिन बहुत ही खुशगवार सा था जिसमें रचने-गढ़ने के लिए बहुत कुछ था और तनाव का नामो निशाँ नहीं था ।”

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प्रमिला जी की सम्पूर्ण शिक्षा ग्वालियर में ही हुई। कमला राजा महाविद्यालय से हिंदी, भूगोल, होम साइंस जैसे विषय से स्नातक करने के बाद उन्होंने इतिहास में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। यह उस समय की बात है जब स्नातकोत्तर का प्रमाण पत्र भी जारी नहीं हुआ था, अखबार में उन्होंने विज्ञापन देखा जिसमें पानीपत के एक कॉलेज में इतिहास विषय के व्याख्याता पद के लिए रिक्ति निकली थी, जिसके लिए प्रमिला जी ने आवेदन कर दिया। जल्द ही साक्षात्कार के लिए बुलावा आ गया। पानीपत में एक पारिवारिक मित्र रहते थे, इसलिए वहाँ जाने में कोई दिक्कत नहीं आई। लेकिन प्रमिला जी के लिए पानीपत जाने का मकसद कुछ और था। दरअसल इतिहास में उन्होंने पढ़ा था कि दिल्ली के आख़िरी सुल्तान इब्राहीम लोधी के पास एक हाथी था जिसे वह वह बहुत प्यार करता था। पानीपत युद्ध के बाद जब इब्राहीम लोधी की मौत हुई तो उसकी कब्र के उत्तर-पूर्व में कुछ ही दूरी पर उसके हाथी को भी दफ़नाया गया। प्रमिला जी हाथी का वह मकबरा देखने के लिए उत्सुक थीं।

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वे जब साक्षात्कार के लिए पहुंची तो उनसे एक भी प्रश्न विषय से सम्बंधित नहीं पूछा गया। बल्कि ज़्यादातर सवाल इधर-उधर के ही  थे, मसलन -फ़र्ज करो हम आपके छात्र हैं, आप हमें किस तरह पढ़ाएंगी। इस प्रश्न के उत्तर में प्रमिला जी ने सपाट सा उत्तर देते हुए कहा था कि मैं आपको नहीं पढ़ा सकती क्योंकि  मेरे सामने मुझसे अधिक उच्च शिक्षित लोग बैठे हैं। इस साक्षात्कार के बाद उन्हें अपने चयन की कोई उम्मीद नहीं थी, तो वे चपरासी को बताकर हाथी का मकबरा देखने चली गईं। शाम को चपरासी उन्हें ढूंढता हुआ आया और कहा कि साहब ने आपको तुरंत बुलाया है। कॉलेज पहुँचने पर पहले तो खूब फटकार मिली, फिर धीरे से कहा गया कि ‘जाकर अपना नियुक्ति पत्र ले लीजिये।

यह अप्रत्याशित सी बात थी जिसके बाद प्रमिला जी की ज़िन्दगी बदल गयी। वे ग्वालियर से पानीपत आ गई, शुरुआत में कुछ दिनों तक पारिवारिक मित्र के घर ही रहीं बाद में दो-तीन नव नियुक्त व्याख्याताओं के साथ रहने लगीं। पहली बार जब वे कक्षा लेने पहुंची तो नज़ारा देखकर ही दंग रह गई। कक्षा में एक भीड़ सी थी जिसमें से कई तो लुंगी और लट्ठधारी थे। प्रमिला जी ने हाजिरी लेने के बाद अंग्रेज़ी बोलकर क्लास पर रौब जमाया फिर एक चेतावनी के साथ सभी गैर छात्रों को कक्षा से बाहर जाने के लिए कहा। उनकी चेतावनी का अपेक्षित असर हुआ और तमाम बाहरी लोग क्लास छोड़कर चले गए।

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लगभग तीन साल उस कॉलेज में पढ़ाने के बाद माता पिता ने प्रमिला जी की शादी तय कर दी और शादी के बाद वे पानीपत कॉलेज की नौकरी छोड़कर पति के साथ मुंबई आ गईं। जल्द ही उन्हें यह महसूस होने लगा कि यहाँ निर्वाह होना मुश्किल है, हालांकि उनके मन में विवाह विच्छेद जैसी बातें नहीं थीं। दरअसल, मुंबई पहुँचने के तीन-चार महीने बाद ही उन्होंने एक साल के अनुबंध पर एक कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर दिया। यहाँ उन्हें खूब ऊँची तनख्वाह मिलने लगी। लेकिन इससे उनके पारिवारिक जीवन में कलह घुलने लगी, क्योंकि उनके पति की तनख्वाह प्रमिला जी से कम थी जिससे उनका अहं को  चोट पहुँचती थी। नतीजा यह हुआ कि हर महीने उनकी तनख्वाह उनसे ले ली जाती और वे एक-एक पैसे की मोहताज हो जातीं। ऊपर से तानाकशी और जली-कटी सुनाने का सिलिसिला ख़त्म ही नहीं होता।

एक दिन तो इंतहा हो गई जब उन्हें घर से निकालकर दरवाज़ा बंद कर लिया गया। प्रमिला जी कहती हैं, “तब तक मुश्किलों को सहने की आदत सी पड़ गई थी इसलिए न रोई, न दरवाज़ा पीटकर खोलने की गुहार लगाई। लेकिन बहुत बड़ा सवाल था कि जाऊं तो कहाँ जाऊं। शाम हो रही थी, पास में पैसे नहीं थे और घर के कपड़ों में मैं दरवाज़े के बाहर ख़ड़ी थी।” आखिर को एक टैक्सी लेकर कॉलेज में साथी व्याख्याता पल्लवी के घर पहुँची, जिसने टैक्सी के पैसे दिए और खाना खिलाया। अगले दिन अपने लिए घर देखने गईं और हाथ की चूड़ियाँ और चेन बेचकर पेशगी दी। इस तरह सवा साल के वैवाहिक जीवन का वहीं पटाक्षेप हो गया।

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नया घर बहुत अच्छा नहीं था, रसोई साझा ही थी, लेकिन सर छुपाने के लिहाज से ठीक था। अगले महीने से तनख्वाह आने लगी और ज़िन्दगी भी वापस पटरी पर आने लगी। प्रमिला जी के कॉलेज में हिंदी के एक प्रोफ़ेसर थे डॉ. सिंह। वे अक्सर प्रमिला जी की हिन्दी की तारीफ़ किया करते थे। उनके प्रोत्साहन से प्रमिला जी छोटे-छोटे लेख लिखने लगीं। उनका पहला लेख डॉ. सिंह की सहायता से सबसे पहले नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ, इसके बाद यह सिलसिला चल निकला, लेख कभी छप जाते कभी नहीं भी छपते। उसी दौरान वे कॉलेज पत्रिका की संपादक बनीं। जीवन आगे कौन सा मोड़ लेने वाला है इसका अंदाजा तब तक खुद प्रमिला जी को नहीं था। वे डॉ. धर्मवीर भारती की प्रशंसक थीं जो उस समय धर्मयुग के संपादक थे। उसी दौरान प्रमिला जी का परिचय सुरेन्द्र प्रताप सिंह से हुआ जो उस समय धर्मयुग में ही कार्यरत थे। प्रमिला जी ने उनसे गुजारिश की कि मुझे डॉ. भारती से मिलवा दें। सुरेन्द्र जी ने उत्तर दिया, “वे बड़े खतरनाक संपादक हैं, पसंद न आने पर हमारे मुंह पर फाइल फेंक देते हैं फिर भी कोशिश करता हूँ।”

अन्ततः एक दिन डॉ. भारती से मुलाकात का समय निश्चित हो ही गया। उनसे मिलने का मकसद एक तो अपने पसंदीदा लेखक से मिलना था दूसरा वे उनके उपन्यास ‘गुनाहों के देवता’ पर बात करना चाहती थीं। औपचारिक बातचीत के बाद अचानक प्रमिला जी ने पूछा ‘आपने सुधा को क्यों मारा? आप किसी और तरह से उपन्यास का अंत कर सकते थे, सुधा को मरना जरूरी था क्या? यह सुनकर पहले वे हँसे फिर समझाते हुए कहा कि उपन्यास का कौन सा पात्र जियेगा या मरेगा या क्या करेगा कभी कभी खुद लेखक के हाथ में नहीं होता। इस मुलाकात में प्रमिला जी को भले ही अपने प्रश्न का उत्तर नहीं मिला लेकिन डॉ. भारती ने जाते-जाते कह दिया कि तुम्हारी जगह कॉलेज में नहीं पत्रकारिता में है। इस बात से मन में खलबली सी होने लगी। काफ़ी  सोच विचार के बाद वे एक बार फिर डॉ. भारती से मिलीं और कहा कि आप बहुत सख्त संपादक हैं इसलिए धर्मयुग में नहीं आ सकती। आपके केबिन में मैं इसी तरह हमेशा बेधड़क आना चाहती हूँ। उन्होंने हँसते हुए कहा, “ फिर मेरे पड़ोस में चली जाओ।”

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टाइम्स ऑफ़ इंडिया की उसी इमारत में ही धर्मयुग के साथ माधुरी, इलस्ट्रेटेड वीकली आदि के भी दफ्तर थे। फौरी बातचीत के बाद प्रमिला जी फ़िल्मी पत्रिका ‘माधुरी’ की रिपोर्टर बन गईं। यह नया काम बड़ा ही दिलचस्प था। फ़िल्मी सितारों से मिलना और उनका साक्षात्कार लेना सबकुछ बड़ा ही अनूठा सा लगता था। पहला साक्षात्कार उन्होंने संगीतकार रवींद्र जैन का लिया था, बाद में जिनके साथ उनका घरोबा हो गया था। लगभग पांच-छह साल माधुरी में काम करने के दौरान लगभग सभी फ़िल्मी हस्तियों से उनकी दोस्ती हो गई। ख़ासतौर पर स्व. अमजद खान को वे आज भी शिद्दत से याद करती हैं। इस दौरान वे ‘धर्मयुग’ के लिए भी बीच बीच में स्तम्भ लेखन का कार्य करतीं। एक ही समूह की पत्रिका होने के कारण इस पर कोई पाबंदी नहीं थी।

एक बार डॉ. भारती ने उन्हें बुलाकर पूछा – ‘क्रिकेट’ की रिपोर्टिंग करना चाहोगी? तब तक उन्हें क्रिकेट के तकनीकों के बारे में कुछ नहीं पता था लेकिन भारती जी एक नई विधा में उनकी संभावनाओं को देख रहे थे। उन्होंने प्रमिला जी को राजसिंह डूंगरपुर से मिलने के लिए कहा। वे उनसे मिलीं तो उन्होंने बल्लेबाज कपिल देव से मिलवाया। प्रमिला जी कहती हैं ‘वे कपिल थे जिन्होंने कागज पर रेखाएं खींचकर क्रिकेट की तकनीकी बातें उन्हें समझाईं। धीरे-धीरे वह क्रिकेट की रिपोर्टिंग में भी मज़ा आने लगा। इस तरह प्रमिला जी की ज़िन्दगी पूरी रफ़्तार से दौड़ रही थी, जिसमें ‘मकान’ की वजह से कभी कभी ब्रेक लग जाता। एक वर्ष से अधिक के लिए वहां घर ही नहीं मिलता था। काम बढ़ने लगा था। एक तरफ माधुरी के लिए पूर्णकालिक सेवा दूसरी तरफ धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान के लिए स्वतंत्र रूप से स्तम्भ लेखन।

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पांच-छह साल बाद विज्ञापन एजेंसी ‘लिंटास’ को अनुवादक की आवश्यकता हुई, जिसके बारे में एक संगीतकार ने प्रमिला जी को बताया था। वहां चयन हो जाने के बाद  प्रमिला जी ने ‘माधुरी’ की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह स्वतंत्र रूप से काम करने लगीं। वे ‘लिंटास’ के साथ भी पूर्णकालिक तौर पर नहीं जुड़ी थीं हालाँकि वहां से काम नियमित रूप से मिल रहा था। उस समय वे एक साथ कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्तम्भ लेखन कर रही थीं। इसलिए तय कर लिया कि अब नौकरी नहीं करनी। लेकिन जल्द ही यह प्रण टूट गया। सुरेन्द्र प्रताप सिंह तब तक रविवार के संपादक बन गए थे और कोलकाता चले गए थे। उन्होंने बम्बई प्रतिनिधि के तौर पर प्रमिला जी को रविवार से जुड़ने का न्योता दिया। सुरेन्द्र जी उनके घनिष्ठ मित्र थे इसलिए प्रमिला जी ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। लेकिन वे चार महीने से ज़्यादा वहां काम नहीं कर सकीं क्योंकि सुरेन्द्र जी ने रविवार छोड़ दिया था और संस्थान की अंदरूनी राजनीति चरम पर पहुँच गई थी।

एक बार फिर प्रमिला जी ने प्रण लिया कि अब और नौकरी नहीं करनी लेकिन फिर इस प्रण के टूटने की भूमिका तैयार हो गई जब शरद जोशी जी इन्डियन एक्सप्रेस समूह का नया अख़बार ‘हिन्दी एक्सप्रेस’ निकालने की तैयारी कर रहे थे। शरद जोशी से प्रमिला जी की मुलाक़ात टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के दफ्तर में धर्मवीर भारती ने  माधुरी छोड़ने के बाद करवाई थी। बाद में उनके परिवार से भी घनिष्ठता हो गई। चूंकि लिंटास का दफ्तर एक्सप्रेस टावर में ही था इसलिए उस इमारत में दूसरे संस्थानों में काम करने वालों से भी प्रमिला जी का परिचय था। एक दिन जब वे लिंटास के दफ्तर में थीं, तभी प्रभाष जोशी जी ने फोन कर उन्हें तुरंत नीचे आने को कहा। वे भागती हुई दूसरे माले पर जनसत्ता के दफ्तर पहुंची। वहां उन्होंने फ़िल्मी स्तम्भ लिखने के लिए कहा। प्रमिला जी कहती हैं – “मैं पहले कभी प्रभाष जी से नहीं मिली थी और मुझे पता भी नहीं था कि मेरे नाम की सिफारिश किसने की थी। बाद में पता चला कि वे शरद जोशी थे।”

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परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि प्रमिला जी ने हिन्दी एक्सप्रेस में काम शुरू कर दिया, हालाँकि वहाँ उन्हें काफी छूट थी। वे अपनी मर्ज़ी से दफ्तर आती-जातीं, इसके अलावा जनसत्ता के लिए भी साप्ताहिक स्तम्भ लिखतीं, साथ ही पिछली पत्रिकाएँ तो थीं हीं। प्रमिला जी की यादों में वे सुनहरे दिन थे जब शरद जी अपने स्टाफ को पैदल लेकर चर्चगेट स्टेशन तक लेकर जाते और मूंगफली खिलाते थे या इन्डियन एक्सप्रेस के कैफे में साथियों के साथ जमावड़ा होता। इस बीच निजी जीवन में फिर से तनाव की स्थिति बनने लगी जब उनके पति ने धमकी देना शुरू कर दिया कि मुंबई में रहने नहीं दूंगा। उस समय भी शरद जी ने ही उन्हें मुश्किलों से उबारा।

दुर्भाग्यवश दो साल बाद ‘हिन्दी एक्सप्रेस’ बंद हो गया लेकिन जनसत्ता के लिए साप्ताहिक स्तम्भ लेखन अगले छह सालों तक जारी रहा। धर्मयुग के लिए खेल रिपोर्टिंग भी समानांतर ही चल रही थी। इसके बाद अगले कुछ वर्षों के लिए वे महिलाओं की पत्रिका ‘मनोरमा’ से भी जुड़ीं और उनके लिए फिल्मों पर आधारित नियमित स्तम्भ लेखन का कार्य किया। लेकिन इस दौरान व्यक्तिगत जीवन चुनौतियों से खाली नहीं था। खासतौर पर मकान की समस्या बहुत बड़ी थी क्योंकि एक साल से ज्यादा समय के लिए घर नहीं मिलते थे। ऐसे में अपने दोस्तों के साथ अलिखित सा समझौता था कि जिसका घर बड़ा होगा बाकी दोस्तों की किताबें और क्रॉकरी वहीं रखी जाएंगी। इस तरह हर साल किसी न किसी दोस्त की बारी आती। मुंबई में अपने कैरियर के दौरान प्रमिला जी ने तीस घर बदले। हर घर के मालिक और पड़ोसियों के साथ नए अनुभव होते। उनकी जीवन शैली को देखकर लोग अपने हिसाब से कुछ भी धारणा बना लेते। हद तो तब हुई जब एक मकान मालकिन ने घर में फोन लगाने की अनुमति नहीं दी क्योंकि उनके हिसाब से ये अच्छी औरतों के लक्षण नहीं हैं।

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प्रमिला जी को पत्रकारिता में मिल रही सफलता भी कई लोगों को चुभने लगी थी। एक बार प्रमिला जी ने विवियन रिचर्ड से इंटरव्यू करने का मौका मिला, उस समय यह लॉटरी खुल जाने जैसा था। विवियन बहुत बड़े खिलाड़ी थे और उनका विस्तृत साक्षात्कार ले पाने में कई लोग असफल रहे थे। ऐसे में जब प्रमिला जी वह साक्षात्कार लेकर धर्मयुग पहुंची तो वहाँ कार्यरत एक वरिष्ठ साथी ने उसे पढ़ने के बजाय चिढ़कर फेंक दिया था जिसके बाद प्रमिला जी ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान से बात की और वह साक्षात्कार वहीं प्रकाशित हुआ। इसके पहले तक खेल रिपोर्टिंग वे केवल धर्मयुग के लिए ही करती थीं।

अंत में उन्होंने मीरा रोड पर एक फ़्लैट ले लिया लेकिन उसमें रह नहीं सकीं क्योंकि काम के लिए उन्हें अँधेरी उपनगर की ओर आना पड़ता था। एक छोटा सा फार्म हाउस भी उन्होंने खरीदा। उस वक़्त उनका इरादा मुंबई में ही हमेशा के लिए बस जाने का था उनका लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक समय ऐसा आया जब सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद होने लगा। 1990 के बाद धर्मयुग ढलान पर आने लगा और दूरदर्शन जोर पकड़ने लगा, बाद में नए-नए चैनल खुलने का दौर भी शुरू हुआ। प्रिंट माध्यम से जुड़े सभी प्रतिभाएं उस समय अस्तित्व के लिए संघर्षरत थीं।\

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उसी दौर में प्रमिला जी के मन में हास्य धारावाहिक बनाने का विचार आया। निर्देशक थे रमेश तलवार और कलाकार थे शफ़ी इनामदार, फरीदा जलाल। खट्टा-मीठा नामक उस धारावाहिक में सभी ने खूब मेहनत की लेकिन अब उसे बेचने की समस्या आ गई। कई जगह से नाकामी मिली अंत में हिंदुजा घराने के ‘मुंबई इन’ ने ‘सवा तीन लाख’ प्रति एपिसोड की दर से उसे खरीद लिया। इसके बाद एक अलग किस्म के बुरे दौर की शुरुआत हुई। रमेश तलवार ने अपनी फ़ीस बढ़ा दी, उनकी देखा-देखी फरीदा जलाल भी ज़्यादा फ़ीस मांगने लगीं। मंजूरी बावन एपिसोड की मिली थी लेकिन किसी अन्य निर्देशक को लेकर बमुश्किल तेरह एपिसोड बने। लेकिन उसी समय हिंदुजा परिवार के एक सदस्य धरम हिंदुजा ने मॉरीशस में ख़ुदकुशी कर ली। इस हादसे के बाद ‘मुंबई इन’ चैनल भी बंद हो गया।

कुछ समय के बाद प्रमिला जी ने एक और धारावाहिक ‘सहारा चैनल’ के लिए बनाया। प्रोडक्शन के स्तर पर उन्हें कभी कोई दिक्कत नहीं आई क्योंकि पहचान हर स्तर पर थी लेकिन तीसरा और चौथा धारावाहिक चैनलों को बेचने में वे पूरी तरह असफल रहीं। इस तरह उन्हें यह भी समझ आ गया कि व्यापार करना बिलकुल ही अलग सी बात है। वे वापस पत्रकारिता की दुनिया में लौट आईं लेकिन अब समय का पहिया उलटा घूमने लगा था। कुछ ही पत्रिकाएं जीवित बची थीं, उधर धारावाहिकों के निर्माण में काफी पैसा डूब चुका था, इधर मीरा रोड वाले घर में उन्होंने जिस रिश्तेदार को रखा उसने संपत्ति कर जमा नहीं किया। नतीजतन प्रमिला जी की देनदारियां और बढ़ गईं, जिससे उन्हें घर बेच देना पड़ा।

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इसके बाद तो हालत और ख़राब हो गए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का दौर शुरू हुआ जिसके खांचे में वे खुद को फिट पाती ही नहीं थीं। परिवार के ज़ोर देने पर वापस ग्वालियर लौटीं, साल भर रहीं लेकिन मन नहीं लगा तो फिर मुंबई चली गईं लेकिन बात नहीं बनी। वहां कुछ साल बिताकर प्रमिला जी ग्वालियर लौट गईं हमेशा के लिए लेकिन वे मुंबई को कभी भूल नहीं पाईं। ग्वालियर भी पहले जैसा कहाँ था। उन्होंने यहाँ भी काम तलाशने की कोशिश की लेकिन भारी भरकम प्रोफाइल देखकर साक्षात्कार लेने वाला संकोच में पड़ जाता और इसलिए कहीं नौकरी या स्वतंत्र रूप से काम करने की स्थिति नहीं बनी। वर्तमान में प्रमिला जी अपनी बड़ी बहन शीला तिवारी के साथ ही ग्वालियर में निवास करती हैं, उनके भाइयों का परिवार भी ग्वालियर में ही है। उन्हें आज भी एक अवसर की तलाश है ताकि उनकी रुकी हुई कलम को फिर गति मिल सके।

सन्दर्भ स्रोत: प्रमिला तिवारी से बातचीत पर आधारित

© मीडियाटिक

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