छाया : दैनिक भास्कर
कांता बहन त्यागी (Kanta Behan tyagi) निमाड़ के आदिवासियों (Tribals of Nimar) के लिए एक ऐसा सम्मानित और सेवाभावी अमिट नाम है जो आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर आदिवासियों - खास तौर पर महिलाओं के लिए जीवनभर उत्थान के कार्य करती रहीं। स्व. ठक्कर बप्पा एवं स्व. श्रीकृष्णदास जाजू की प्रेरणा से समाज सेवा में कदम रखने वाली कांता बहन त्यागी का जन्म 24 मई 1924 ग्राम सबली, जिला हापुड़ (उप्र) में हुआ। उनके पिता श्री जगन लाल त्यागी जमींदार और माँ गृहिणी थीं।
उनके सेवा कार्यों की शुरुआत वर्ष 1947 में स्वतंत्रता पश्चात् ही हो गई थी, जब वे कुरुक्षेत्र में शरणार्थियों के लिए जी जान से जुटी रही थीं। इसी वर्ष उन्होंने महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के आश्रम में प्राथमिक चिकित्सा नवीन शिक्षा पद्धति एवं खादी ग्रामोद्योग के लिये प्रशिक्षण के अलावा बाल निकेतन, दिल्ली (Bal Niketan, Delhi) में बाल सेविका प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। वर्ष 1951 में वे लीला भण्डारी (Leela Bhandari) जी के साथ कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट 'कस्तूरबा ग्राम' इंदौर (Kasturba Gandhi National Memorial Trust 'Kasturba Gram' Indore) आ गईं। यहाँ आने के बाद एक घटना से व्यथित कांता जी के जीवन की दिशा ही बदल गई। दरअसल सन् 1952 में श्री काशीनाथ त्रिवेदी की प्रेरणा से आगर से मांडव तक हुई सर्वोदय कार्यकर्ताओं की पदयात्रा में कस्तूरबा ग्राम (Kasturba Gram) से कांता बहन और लीला जी भी शामिल हुईं। इस दौरान उन्हें मांडव के इतिहास के साथ ही आसपास रह रहे आदिवासियों की दयनीय स्थिति के बारे में भी पता चला।
इस यात्रा का उनके मन पर गहरा प्रभाव हुआ। उन्होंने मन ही मन संकल्प किया कि वे सेवा कार्य आदिवासी क्षेत्र में ही करेंगी। अपने इस निर्णय से जब उन्होंने ट्रस्ट की तत्कालीन मंत्री सुश्री सुशीला जी को अवगत कराया तो वे उनके इस निर्णय से सोच में पड़ गई। काफ़ी सलाह मशविरे, समझाइश के बाद भी जब कांता जी अपने निर्णय पर अडिग रहीं तो ऐसी जगह की खोज होने लगी जहाँ से वे अपने इरादों को अमली जामा पहना सकें। काफ़ी खोजबीन के बाद आखिरकार निवाली का चुनाव किया गया। 27 मार्च 1953 को आदिवासी अंचल में ग्राम निवाली, तहसील सेंधवा, जिला खरगोन (वर्तमान बड़वानी) में कस्तूरबा वनवासी कन्या आश्रम (Kasturba Vanvasi kanya Ashram niwali sendhwa) की स्थापना हुई। संचालिका बनी कांता त्यागी और बाद में वे ही आश्रम की प्रतिनिधि भी बनी। आश्रम स्थापना के समय उनकी उम्र महज 23 साल थीं। बस, यहीं से उन्होंने आदिवासी समाज के उत्थान की दिशा में खासकर लड़कियों की शिक्षा के लिए काम करना शुरू किया और उसके बाद जीवन भर इस नींव को शिक्षित, संस्कारित ओर गरिमामयी भव्य इमारत का स्वरूप देने में जुटी रहीं।
देश के किसी भी आदिवासी अंचल (tribal area) में कन्या शिक्षा को लेकर इस तरह की कोशिशें कम ही काम ही देखने को मिलती हैं। आज़ादी के बाद जब शहरी लड़कियों का पढ़ना-लिखना ही मुश्किल था, तब एक अनजान महिला का खादी की साड़ी पहनकर घने जंगलों में जाना और आदिवासी समाज के बीच शिक्षा का महत्व समझाना किसी चुनौती से कम नहीं था। शुरुआती दौर में तो आदिवासी उन पर भरोसा ही नहीं करते थे। संपर्क के लिये जब वे गाँव में पहुँचती तो महिलाएं देखते ही दरवाजा बंद कर देती, कोई उन्हें डाकन बताता तो कोई बालिकाओं की बली चढ़ाने वाली कहता। आदिवासी शंकित होकर उनसे दूर ही रहते थे। यहाँ तक कि उन्हें मार डालने तक की धमकी दी गई। लेकिन इन सब बातों की परवाह किये बिना वे अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ती रहीं। उन्होंने निवाली के पास ग्राम कुंजरी के आदिवासी गारदी भाई को अपना सहयोगी बनाया। स्थानीय बोली बोलना सीखा, खुद को आदिवासी जीवन शैली में ढाला और बेटियों को पढ़ाने के लिये आदिवासी समुदाय को प्रेरित किया।
गारदी भाई की तरह अन्य लोग भी उनसे जुड़े और धीरे धीरे उनका काफिला बढ़ने लगा तो उन्होंने शिक्षा के साथ साथ महिला स्वास्थ्य पर भी काम करना शुरू किया। निवाली के पास ही झाकर गाँव (Jhakar) में रात्रिकालीन प्रौढ़शाला और छोटे बच्चों के लिये बालवाड़ी खुलवाई। बालवाड़ी के बच्चे और लोग जब भी बीमार होते तो आरोग्य सेविकाएं उनका इलाज करतीं, गर्भवती महिलाओं को घर जाकर प्रसव करातीं। साप्ताहिक बाज़ार में आसपास की महिलाओं का इलाज करतीं। महिलाओं में स्वच्छता, शिक्षा और संस्कार के लिये शिविर लगाये जाते। इससे गाँव-गाँव में जागृति आयी। आदिवासी बन्धुओं का आश्रम के प्रति इतना विश्वास बढ़ गया कि वे अपने आपसी झगड़े भी अपनी कांता बहन के पास निपटाने लगे। अपराध करने पर भी कांता जी को बताते और पुलिस के सामने अपराध कबूल करते। इस तरह आदिवासी निडर और सशक्त बने। बालवाड़ी की इन गतिविधियों से ग्रामीणों का विश्वास बढ़ता गया और कस्तूरबा वनवासी कन्या आश्रम जिसका उद्देश्य महिलाओं और बच्चों की सेवा से वनवासी जनता को अशिक्षा, गरीबी अंधविश्वास, बीमारियों से बचाकर अन्याय से उबारने की राह खुलने लगी।
केवल चार बालिकाओं के साथ कांता बहन ने इस आश्रम की शुरुआत की थी। इस आश्रम में रहकर हजारों बच्चियों ने शिक्षा ग्रहण की ओर यह क्रम अनवरत जारी हैं। यहां से शिक्षित और संस्कारित बालिकाएं स्कूलों, कॉलेजों में प्राध्यापक और महाविद्यालयों की प्राचार्य बन कर अपनी अलग पहचान बना रही हैं। शासन के विभिन्न विभागों में अलग-अलग पदों पर कार्य करते हुए देश-प्रदेश में निवाली का नाम रोशन कर रहीं हैं। वर्तमान में निवाली स्थित कस्तूरबा वनवासी कन्या आश्रम 1100 से भी अधिक बालिकाओं के आश्रम को संचालित कर रहा है।
शिक्षा और सामाजिक क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान को काफ़ी सराहना मिली। 12 अप्रैल 1998 को भारत सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य हेतु उन्हें पद्मश्री (padm shree) से नवाजा गया। 1987 में भारत सरकार मानव संसाधन मंत्रालय नई दिल्ली द्वारा महिला एवं बाल कल्याण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य हेतु सम्मानित किया गया। मप्र शासन द्वारा भी बिरसा मुंडा, तथा इंदिरा गांधी राज्य स्तरीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सामाजिक संस्था दीपाली बेन मेहता अवार्ड मुम्बई, जानकी देवी बजाज पुरस्कार मुम्बई सहित अनेक सम्मान उन्हें प्राप्त हुए। बदलाव का जो सपना कांता बहन ने देखा, उसे विपरीत परिस्थिति में भी पूरा किया। 23 मई 2005 को उनका निधन हो गया।
पूरा जीवन स्नेह, सादगी और समर्पण के साथ जीने वाली कांता बहन अक्सर यह कहा करती थीं कि ‘मानव समाज के पारंपरिक रूप का प्रतिनिधित्व आदिवासी संस्कृति करती हैं, किंतु परिवर्तन के इस दौर में उनकी सामाजिक संरचना दोयम दर्जे की हो गयी है। उनकी संस्कृति पर आधारित शिक्षा के द्वारा उन्हें समाज के समकक्ष लाकर अपनी स्वावलम्बी सामाजिक संरचना में विश्वास पैदा किया जा सकता है। उनमें जागृति का अभाव है, लेकिन यदि उन्हें अवसर दिया जाये तो वे अपने ही संसाधनों से स्वावलम्बी व्यवस्था के निर्माण में कर सकते हैं।’ कांता बहन त्यागी के ये विचार धरातल पर उतरे, जिसका परिणाम है कि कस्तूरबा आश्रम की शाखाएं सेंधवा जनपद के वरला एवं ग्राम धनोरा (चारदड) में भी कार्यरत हैं। कांता बहन शिक्षा के साथ मानवीय संवेदनाओं के दूसरे पहलुओं से भी वाकिफ़ थीं। उन्होंने निवाली के पास ग्राम झाकर में श्री कांता विकलांग सेवा ट्रस्ट की 1978 में स्थापना की। इस आश्रम को शासकीय मान्यता भी मिली और यहां दिव्यांगों की शिक्षा, स्वास्थ्य और बेहतरी के कार्यों का सिलसिला शुरू हो गया जो आज भी जारी है।
संदर्भ स्रोत : सुश्री पुष्पा सिन्हा (निदेशक- कस्तूरबा वनवासी कन्या आश्रम, निवाली) द्वारा प्रेषित सामग्री, रविवार डेल्ही डॉट कॉम पर प्रकाशित श्री नरेंद्र तिवारी का लेख, जिसमें एक अंश श्री ब्रह्मदीप अलूने के लेख से जोड़ा गया है।
सम्पादन : मीडियाटिक डेस्क
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