• सीमा चौबे
महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बावजूद आज भी महिलाओं को कमतर आंका जाता है। कोई महिला वंचित वर्ग से हो और विकलांग भी हो तो उसे सामान्य जीवन जीने के लिये भी खासी जद्दोजहद करनी पड़ती है। लेकिन देवास जिले में खातेगांव जनपद की ग्राम पंचायत बरछा बुजुर्ग की सरपंच सुनीता भलावी ने अपने शानदार प्रदर्शन से साबित कर दिया कि इरादे पक्के हों तो विकलांगता कभी आड़े नहीं आ सकती।
बैसाखी के सहारे चलने वाली सुनीता को गांव की समस्याओं को सुलझाने के लिए किसी सहारे की ज़रूरत नहीं होती। संघर्षों के कई पड़ाव पार कर सरपंच बनी सुनीता अब अपने गांव को विकास की नई दिशा देने में जुटी हैं। तीन हज़ार की आबादी वाले इस गाँव में वे हर घर में जाकर लोगों से उनकी समस्या सुनती हैं और उसका समाधान करती हैं।
आमला विक्रमपुर (तहसील खातेगांव) में 4 अगस्त 1997 को शिवराम और सुशीला भलावी के घर जन्मी सुनीता 8 वर्ष की उम्र तक सामान्य बच्चों की तरह ही खेलती-कूदती थी, लेकिन एक बुखार ने उसे ज़िन्दगी भर के लिए विकलांग बना दिया। दरअसल बुखार के दौरान लगे एक गलत इंजेक्शन से उनका एक पैर पतला होता गया और उन्हें बैसाखी का सहारा लेना पड़ा। मज़दूरी कर अपने 6 बच्चों का भरण-पोषण कर रहे शिवराम अपने बच्चों के लिए दो जून की रोटी ही बमुश्किल जुटा पाते थे, ऐसे में उन्हें शिक्षा दिलाना उनके बूते से बाहर की बात थी, लेकिन यह सुनीता की ज़िद का ही नतीजा था कि विषम परिस्थितियों में भी वे अपने भाई-बहनों में सबसे ज्यादा पढ़ पाईं।
भाई-बहनों में दूसरे नम्बर की सुनीता शुरू से ही पढ़ाई में होशियार रहीं। गाँव में आठवीं तक ही स्कूल था, आगे की पढ़ाई के लिए माता-पिता ने गाँव बाहर भेजने से मना कर दिया। लेकिन सुनीता आगे पढ़ने की अपनी जिद पर अड़ी रहीं, आखिरकार गाँव की अन्य लड़कियों के साथ नेमावर के पास हंडिया के एक स्कूल में उनका दाखिला करवा दिया गया जहाँ वे होस्टल में रहकर पढ़ने लगीं। दसवीं से बारहवीं तक की शिक्षा उन्होंने स्वाध्यायी छात्र के रूप में इंदौर के एक सरकारी होस्टल में रहकर प्राप्त की।
सुनीता बताती हैं 11वीं में बायो साइंस यह सोचकर था लिया कि आगे करियर का चुनाव बेहतर तरीके से कर पायेंगी, लेकिन बारहवीं होते ही वर्ष 2016 में बरछा बुजुर्ग गांव के गोपाल विश्वकर्मा से विवाह हो गया। फर्नीचर का छोटा-मोटा काम करने वाले गोपाल खुद भी विकलांग हैं। ससुराल में उन्हें तीन जेठ-जेठानियाँ उनके बच्चे तथा एक अविवाहित देवर सहित भरा-पूरा परिवार मिला जहाँ बहुओं पर तमाम तरह की पाबंदियां थीं। वे अपनी मर्ज़ी से कोई काम नहीं कर सकती थीं। नित्यक्रिया के अलावा उन्हें घर से बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी (उस समय घर में शौचालय नहीं था)। घर में घूंघट अनिवार्य था।
सामाजिक विसंगतियों पर बचपन से ही सवाल उठाने और विरोध करने वाली सुनीता को ये सब नागवार गुजरा। पैरों में दिक्कत होने के चलते उन्हें साड़ी पहनने में दिक्कत होती थी इसलिए उन्होंने जब साड़ी न पहनने और घूँघट करने से मना किया तो घर में खासा बवाल हुआ लेकिन किसी की परवाह किये बिना उन्होंने सलवार सूट पहनना शुरू कर दिया, घूँघट करने का तो सवाल ही नहीं था। इस बारे में सुनीता बताती हैं - "मैं किसी परम्परा या संस्कृति के खिलाफ नहीं हूँ, लेकिन किसी का घूँघट न करना किसी के लिए अनादर कैसे हो सकता है ?"
उनके इस दुस्साहस का घर में ही नहीं, गाँव में भी पुरजोर विरोध हुआ। उन्हें घमंडी और पढ़ी-लिखी होने का ताना दिया गया (उस समय वे गाँव की सबसे अधिक शिक्षित महिला थीं)। शादी के बाद उनका सरनेम न बदलना भी गाँव में चर्चा का विषय बना। बावजूद इसके घूँघट प्रथा का उनका विरोध जारी रहा। शुरुआत घर से ही हुई। उन्होंने सबसे पहले अपनी जेठानियों का घूँघट हटवाया। धीरे-धीरे गाँव की लगभग सभी महिलाओं का पर्दा करना बंद करवा दिया, हालांकि यह करना कतई आसान नहीं था।
घर में शौचालय निर्माण भी उनकी जिद के चलते हुआ। इसके बाद उन्होंने ग्रामीणों को स्वच्छता का पाठ पढ़ाना शुरू किया। महिलाओं के स्वास्थ्य और सुरक्षा का हवाला देते हुए वे ग्रामीणों को शौचालय बनाने के लिए प्रेरित करतीं। देर से ही सही लोगों को बात समझ में आई और गाँव के घर-घर में शौचालय बनकर तैयार हो गये। अब तक गाँव की औरतें अच्छी तरह समझ चुकी थीं कि सुनीता उन्हीं के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहीं हैं, इसलिये वे भी सुनीता के साथ हो गईं।
सरपंच बनने से पहले से ही सुनीता गाँव की समस्याओं को लेकर सक्रिय रहती थीं। विकास के काम हों या ग्रामीणों को सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाना हो, वे उनके साथ जनपद पंचायत के दफ़्तर तक जातीं। यहाँ काम नहीं होने पर वे जिला पंचायत, देवास तक पहुँच जातीं।
घर के काम निपटाने के बाद वे महिलाओं को पढ़ने और बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करतीं। इसी बीच सुनीता एक बेटे और एक बेटी की माँ भी बन गईं।
गाँव में बुनियादी सुविधाओं के लिए कई बार मांग करने और दफ़्तरों के चक्कर लगाने के बाद भी सुनवाई न होना उनके लिए चुनौती बन गया। गाँव में विकास के काम नहीं होना, योजनाओं के लाभ के लिए लोगों का भटकना बार-बार मन को विचलित करता। ऐसे में स्वयं सरपंच बनकर लोगों की समस्याएं हल करने का ख्याल आया। वर्ष 2022 में पंचायत चुनाव की घोषणा होते ही गांव की महिलाओं से सलाह-मशविरा करने के बाद उन्होंने घरवालों को बताये बिना सरपंच पद के लिए फॉर्म भर दिया।
घर में इस बात की भनक लगते ही सब उन पर नाम वापिस लेने का दबाव बनाने लगे। दरअसल वे चुनाव के दौरान होने वाली घटनाओं से डरे हुए थे, लेकिन सुनीता अपने निर्णय पर अडिग रहीं। वे बताती हैं इस पद के लिए उनके अलावा 7 पुरुष प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे थे। उन्होंने केवल एक दिन चुनाव प्रचार किया, लेकिन परिणाम चौंकाने वाले रहे। वे गाँव में अभी तक हुए सरपंच पद के चुनाव में सबसे अधिक वोट हासिल करने वाली प्रत्याशी बनीं।
उनके चुनाव जीतते ही गाँव की महिलाओं को हौसला मिला। वे बताती हैं ऐसी कितनी ही महिलाएं थीं जिन्होंने पंचायत कार्यालय का मुंह तक नहीं देखा था। गाँव की औरतें पहले जरूरत पड़ने पर ही पंचायत जाती थीं। अब महिलाएं निडर होकर पंचायत कार्यालय आने लगी हैं।
सरपंच बनने के बाद सबसे पहले पात्र लोगों को योजनाओं का लाभ दिलाने के लिए काम शुरू किया। पता चला कि बहुत से लोगों के दस्तावेजों में त्रुटियां हैं, इसलिए वो परेशान हो रहे हैं, उनको सुधारने का काम शुरू करवाया। पात्र व्यक्तियों की पेंशन शुरू करवाई। जो कम पढ़े-लिखे लोग थे, आने-जाने में सक्षम नहीं थे, उनको अपने साथ लेकर जनपद पंचायत कार्यालय खातेगांव तक ले गई और उनके कागजी काम पूरे करवाए।
सुनीता ने अपने अभी तक के कार्यकाल में बुनियादी ज़रूरतों - जैसे बिजली,सड़क और पानी पर तो ध्यान दिया ही है इसके अलावा वे गाँव में शिक्षा और स्वास्थ्य की अलख भी जगा रही हैं। उनके प्रयासों का ही परिणाम है कि जिन महिलाओं को अक्षरज्ञान तक नहीं था, वे आज हस्ताक्षर करने लगी हैं। इतना ही नही, बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों का दोबारा स्कूल में दाखिला करवाया। किशोरियों और महिलाओं के लिए विशेष तौर पर वे मासिक धर्म स्वास्थ्य शिविर आयोजित करवाती हैं।
गाँव में पेयजल की समस्या के निराकरण के लिए स्थानीय विधायक सहित अधिकारियों से मिलकर फाइल तैयार कर भोपाल भिजवाई। वहां से स्वीकृति के बाद अब नल-जल योजना के काम के अलावा स्ट्रीट लाइट का काम गांव में चल रहा है। गांव में गौशाला का निर्माण करवा चुकी सुनीता अब सामुदायिक भवन बनवाने के लिए प्रयासरत हैं। उनकी कार्यशैली से जनपद से लेकर जिला पंचायत तक के अधिकारी भी प्रभावित हैं। कभी उनके फ़ैसले के खिलाफ़ खड़े होने वाले गांव वालों को भी अब उन पर गर्व है। स्थानीय मीडिया और सरकारी मंचों से उन्हें काफ़ी सराहना मिलती है।
घर में छोटे बच्चे रहने के कारण सुनीता की पढ़ाई बारहवीं के बाद छूट गई थी। अब उन्होंने फिर से पढ़ने का निर्णय लिया और खातेगांव के विद्यासागर कॉलेज में बी.एड के लिए प्रवेश लिया है। इतना ही नहीं, वे कम्प्यूटर कोर्स भी कर रहीं हैं। उन्होंने किश्तों में एक स्कूटी भी खरीद ली है। हालांकि उनकी माली हालत बहुत अच्छी नहीं है। वे बताती हैं कि आज भी घर चलाने लायक ही गुजारा हो पाता है। उनका 8 साल का बेटा दीक्षांश और 6 साल की बेटी जीविका क्रमश: तीसरी और दूसरी कक्षा में अध्ययनरत हैं। वे चाहती हैं उनके बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने पैरों पर खड़े हों, ताकि उन्हें अभाव न झेलना पड़े।
ग्रामसभा व अन्य बैठकों में सक्रियता से भाग लेकर जनहित के निर्णय ले रही सुनीता भविष्य में राजनीति में अपनी तक़दीर आजमाना चाहती हैं। वे कहतीं हैं ज़िंदगी में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, लेकिन चुनौतियों का सामना कर हम अपनी मंज़िल पा सकते हैं। मैंने अपने जीवन में यही सीखा कि अगर परिस्थितियां प्रतिकूल हों, तो भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना।
सन्दर्भ स्रोत : सुनीता भलावी से सीमा चौबे की बातचीत पर आधारित
© मीडियाटिक
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