लिखना ज़रूरी है क्योंकि जो रचेगा, वो बचेगा : डॉ.लक्ष्मी शर्मा

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लिखना ज़रूरी है क्योंकि जो रचेगा, वो बचेगा : डॉ.लक्ष्मी शर्मा

छाया : स्व संप्रेषित 

• वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा

डॉ. लक्ष्मी शर्मा हिंदी साहित्य और सोशल मीडिया की ज़रूरी पहचान बन चुकी हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे बेहद सहज सरल तरीके से मुश्किल से मुश्किल बात रख देती हैं और फिर चुपके से अपना पक्ष भी समझा देती हैं। उनकी अभिव्यक्ति बेफ़िक्र और बेबाक होकर अपना रास्ता तय करती है और पाठक के आस-पास छितरी धुंध छांट देती हैं। फिर पढ़ने वाला दिमाग को मिले इस सुकून को पाकर दाद दिए बिना नहीं रह पाता। पढ़ने का इससे बड़ा सुख और क्या होगा। यही वजह है कि उनके पास बेशुमार पाठक हैं। यहां तक आने के लिए जिस अनुभव और आत्मविश्वास की ज़रूरत होती है वह शायद लक्ष्मी जी के व्यक्तित्व और अभिव्यक्ति दोनों से जुड़ गया है। 

25 जून 1964 को लक्ष्मी जी का जन्म इंदौर में हुआ। उनके पिता लादूराम जी और माँ का नाम गोविंदी देवी था। हालांकि उन्होंने जब होश संभाला तो खुद को एक पितृविहीन घर में पाया, जिसमे मां और पांच साल बड़े भाई थे और सटे हुए मकान में दीदी अपने ससुराल में थी। वे कहती हैं -"मैं गरीब परिवार में थी लेकिन मां ने हमें कभी खाने-पहनने का अभाव नहीं होने दिया, इसलिए मन में कोई कुंठा नहीं थी। मुझे याद है, एकाध बार नाते-रिश्तेदारी में किसी ने मां के सामने मुझे अपशगुनी कह दिया था क्योंकि मेरे जन्म के तीन वर्ष बाद मेरे पिताजी की मृत्यु हो गई थी। मां ने सख्ती से डपट कर कहने वाले का विरोध किया था। इसी तरह की एक और घटना के ज़िक्र में वे कहती हैं- "मैं  लेफ्ट हेंडर हूं और इस बात को उस समय बुरा मानते थे, लड़की हो तो और भी ज़्यादा। लोग मुझे टोकते और मां हमेशा मेरे समर्थन में खड़ी होकर टोकने वाले का पुरज़ोर विरोध करती। 

बचपन से ख़ूबसूरत और कुशाग्र बालिका लक्ष्मी की पढ़ाई इंदौर के ही सरकारी स्कूल में हुई, जहां वे हमेशा अव्वल आती थीं। प्राथमिक शिक्षा बोर्ड में पूरे संभाग में भी वे पहले नंबर पर रहीं। स्वास्थ्य संबंधी कारणों से ग्यारहवीं बोर्ड से स्नातक स्तर तक सामान्य रहे। फिर स्नातकोत्तर परीक्षा और एम.फिल में प्रावीण्य सूची में रहीं। स्नातक की परीक्षा शासकीय रानी लक्ष्मीबाई स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय से पास करने के बाद पीजी की डिग्री शासकीय माता जीजाबाई स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय से ली। श्री हेमंत कुमार शर्मा से ब्याह के बाद वे राजस्थान आ गईं और एम.फिल, पीएचडी उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से की। उनकी शादी, बच्चों का जन्म और पढ़ाई किसी कोरस गीत की तरह ही चलते रहे। 

 घर-परिवार में मिलता सबका प्यार और स्कूल में मिलती प्रशंसा, पुरस्कार, छात्रवृत्ति ने उनके बाल मन मे विश्वास जगाने का काम किया। बड़े भाई गोपाल की साहित्य में दिलचस्पी थी और तब ही नन्हीं लक्ष्मी के भीतर भी यह  बीज अंकुरित हो गया। गोपाल जी किताबें लाते, लक्ष्मी पढ़ती जातीं। वे बताती हैं -"मैं इतनी बड़ी किताबी कीड़ा थी कि बीस की होने तक इंदौर के अहिल्या पुस्तकालय का लगभग सारा हिन्दी साहित्य चाट लिया था। लक्ष्मी जी को लिखने का अनुभव पहली बार एम.ए. में लघु शोध प्रबंध लेखन के समय हुआ। वे बताती हैं कि उनकी निर्देशिका उनकी लेखन शैली को पसंद करती तो खुद पर भरोसा जागता। उसी समय उन्होंने महाविद्यालय-वार्षिकी के लिए पहला लेख लिखा। वह प्रकाशित हुआ तो अपने लेखन के लिए पहली बार विश्वास जागा।" घर और बच्चे की ज़िम्मेदारी के साथ भी वे लगातार साहित्य पढ़ती रहीं। हालांकि एम.फिल करके महाविद्यालय में व्याख्याता होने तक लिखने का सिलसिला नहीं बना था। एक दिन यूं ही राजस्थान पत्रिका में एक बाल कहानी भेजी और वो छप भी गई। उसके बाद वे पीएचडी पूरी करने, नौकरी और बच्चों में व्यस्त हो गईं। 

सरकारी नौकरी में आने की लक्ष्मी जी की कहानी बड़ी दिलचस्प है क्योंकि सबसे पहले जिस महाविद्यालय में उन्होंने साक्षात्कार दिया था, वहाँ उनकी नियुक्ति नहीं हुई क्योंकि उन्हें वहीं कार्यरत एक शिक्षक को स्थायी करना था। फिर एक दिन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा सम्पूर्ण अनुदानित श्री खंडेलवाल वैश्य महिला महाविद्यालय से एक कर्मचारी उनके घर बुलावे की पर्ची लेकर आया। वहाँ व्याख्याता  का पद ख़ाली था। इससे पहले उन्होंने कभी इस कॉलेज का नाम भी नहीं सुना था। उन्हें बाद में पता लगा कि जिस कॉलेज में उनकी नियुक्ति नहीं हुई थी, उसी कॉलेज से उनकी सिफारिश की गई थी। तो एक बार फिर लक्ष्मी जी का इंटरव्यू हुआ और वे हिन्दी के व्याख्याता पद के लिये चुन ली गईं। यहां 1994 से 2011 तक उन्होंने सेवाएं दीं। बाद में राजस्थान सरकार द्वारा अनुदानित महाविद्यालय के शिक्षकों का समायोजन हो गया और उनकी नियुक्ति राजकीय महाविद्यालय, मालपुरा में हो गई, जहां अपनी सेवानिवृति (2019) तक वे एसो. प्रोफेसर के पद पर रहकर पढ़ाती रहीं। 

साल 2001 में डॉ लक्ष्मी ने राजस्थान विश्वविद्यालय में शिक्षकों के लिए आवश्यक पुनश्चर्या पाठ्यक्रम के दौरान एक कहानी लिखी और कथन पत्रिका में भेज दी। शायद यही लेखन की ओर मुड़ने का आधार भी रहा। वे कहती हैं -" मुझे आश्चर्य हुआ था कि वो कहानी न केवल प्रकाशित हुई, बल्कि पत्रकार स्व. राजकिशोर जी द्वारा उसकी प्रशंसा भी प्रकाशित हुई। तेलुगू पत्रिका प्रजा साहिथी में उसका अनुवाद भी प्रकाशित हुआ।" उनकी कलम की रफ़्तार और पैठ दोनों बन रही थीं। अगली दो कहानियों 'ख़ते मुतवाज़ी' और 'मोक्ष' को भी खूब पसंद किया गया। उनका विश्वास मज़बूत हुआ कि अच्छा लेखन बिना किसी प्रचार के भी मान्यता पाता है। उनके पहले उपन्यास 'सिधपुर की भगतणें' को चित्रा मुद्गल जी ने पुस्तक मेले की श्रेष्ठ किताब कहा और आउटलुक पत्रिका ने उसे साल की बेस्टसेलर किताबों में पहले पायदान पर रखा। फिर तो यह विश्वास ही उनका लेखन-मूल्य बन गया, क्योंकि चित्रा जी से उनका पहला परिचय पुस्तक मेले में ही हुआ था। 

डॉ. लक्ष्मी को जानने वाले कहते हैं कि उनके दिन-प्रतिदिन के लेखन में चपलता है, ज़बरदस्त हंसने-हंसाने का माद्दा है। इसकी वजह वे अनुभव हैं जो जीवन को पगडंडी से चलकर राजमार्ग की और आये हैं। पिता के दुनिया से जाने के बाद अकेली मां ने संघर्षों में पाला ज़रूर लेकिन कभी अपने दुखों का रोना रोया न सहानुभूति पाने के लिए ढाल बनाया। उन्होंने बच्चों को बिना डांटे-चिड़चिड़ाए पाला। वे कहती हैं -"मां हंसते हुए सारे संघर्ष करती रही। उन्हें मैंने पहली बार उन्नीस साल की उम्र में रोते देखा था जब वे मेरे भाई की शादी में पिता जी को याद करते हुए कमरे में छुपकर रो रहीं थीं। हास्य-बोध मुझे उनसे ही मिला है। किसी से ईर्ष्या न करना, महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ में नहीं पड़ना, भौतिकता को खुद पर हावी नहीं होने देना मुझे जीवंत बनाए रखता है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि आपसी सहयोग के बगैर हम कुछ भी नहीं हैं और जो मिला है उसमें प्रसन्न रहें, सब कुछ पा लेने की महत्वाकांक्षा खुशी की जगह कुंठा देती है। जब बच्ची लक्ष्मी कच्चे मकान की छोटी सी खोली में चिमनी के उजाले में पढ़कर खुश थी, विवाह के बाद मकान मालकिन से गिलास मांगकर सिंक के नल का पानी पीने और दरी पर सोकर भी खुश थी तो डॉ. लक्ष्मी शर्मा, प्रोफेसर, उपन्यासकार बन कर किस बात की कमी के लिए दुखी या चिंतित हो।" 

डॉ. लक्ष्मी शर्मा जब बेहतरीन लिखने भी लगीं तब एक सवाल स्वाभाविक रूप से आता है कि कोई गुरु या मार्गदर्शक तो ज़रूर रहा  होगा ? जवाब में वे कहती हैं -" अध्ययन और अनुभव ही मेरे गुरु-मार्गदर्शक हैं। हां, हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ, जो मेरी मित्र भी हैं, उन्होंने ज़रूर मुझे नियमित लिखने के लिए प्रेरित किया और करती रहती हैं।" यूं उनके अध्यापन और लेखन में कुछ समस्याएं भी आईं खासकर अध्यापन-सेवा में। --"सारे स्टाफ को अनुदानित महाविद्यालय-प्रबंधन की कुटिलताओं से लड़ना पड़ा, दो बार विधानसभा और न्यायालय तक जाना पड़ा। हाँ, लेखन में भी एक बड़ी समस्या आई और आती है मेरे आलस की।" वे हंसकर कहती हैं। 

डॉ.लक्ष्मी शर्मा का नया उपन्यास आ रहा है जो इंदौर शहर में उनके बचपन के घर से आरम्भ होता है। वे बताती हैं- "ये एक स्त्री की कहानी है जो उसी मकान में हमारी तरह किराएदार थी। बदचलन और लड़ाका नाम से कुख्यात उस स्त्री के व्यक्तित्व में इतनी परतें थीं कि मैं उसे कभी नहीं भूली।वही नायिका है, जो मुझे पंचकन्याओं की परंपरा में छठी कन्या लगती है।" इसी साल उनकी एक और किताब  'रेत में रमती जोगमाया: दुबई' भी आ रही है। बतौर लेखक के रूप में वे आकांक्षा रखती हैं कि हिन्दी सहित सभी भाषाओं में खूब रचा जाये और उस रचे हुए को खूब पढ़ा जाये क्योंकि इस युद्ध के कोलाहल, और मनुष्य-जीवन की दुश्वारियों से भरे कठिन समय में साहित्य ही है जो जीवन की शाश्वत जिजीविषा और आस्था को बचाए रखेगा। लिखना ज़रूरी है क्योंकि जो रचेगा, वो बचेगा। 

उनकी पहली रचना एक बाल कहानी थी जो ‘राजस्थान पत्रिका’  अख़बार में प्रकाशित हुई थी। मेरी पहली साहित्यिक कहानी ‘दलित-विमर्श : एक शोधपत्र’ है जो रमेश उपाध्याय जी द्वारा सम्पादित ‘कथन’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी को बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला। प्रसिद्ध पत्रकार स्व. राजकिशोर जी ने ‘अमर उजाला’ अख़बार में इस पर लम्बी टिप्पणी लिखी और हैदराबाद से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘प्रजा-साहिति’ में इस कहानी का तेलुगु अनुवाद भी छपा था। रचनात्मक लेखन की पहली किताब ‘एक हँसी की उम्र थी जिसमें अधिकतर कहानियाँ पहले से प्रकाशित थी जिनमें ‘खते मुतवाजी, मोक्ष, एक थी लड़की और दलित विमर्श' जैसी कहानियाँ थीं। इनकी समीक्षा  ‘कथन’ और ‘राजस्थान पत्रिका’ में प्रकाशित हुईं। 

उनके उपन्यास 'सिधपुर की भगतणें’ पर मुम्बई विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने एम.फिल का लघु शोध लिखा है। इसी उपन्यास पर ओडिशा और आंध्र प्रदेश के विश्वविद्यालयों में एम.ए. के लघु शोध-प्रबंध भी लिखे गये हैं। 'स्वर्ग का अंतिम उतार' उपन्यास को वर्ष 2020 के लिए शिवना अंतर्राष्ट्रीय कथा-सम्मान से पुरस्कृत किया गया है। मप्र प्रेस क्लब, इंदौर द्वारा 'मध्यप्रदेश रत्न अलंकार 2022' और सर्जन सेवा संस्थान, श्री गंगानगर द्वारा वर्ष 2023 के लिए राष्ट्रीय साहित्य सम्मान उन्हें मिला है। इन दिनों लेखन और सोशल मीडिया पर सक्रिय डॉ. लक्ष्मी को परिवार, विशेषकर बच्चों के साथ समय बिताना बहुत पसंद है। सैर-सपाटा और  पुष्प-सज्जा भी उनके शौक हैं। वे अपने समाज की राष्ट्रीय सांस्कृतिक मंत्री हैं, उनकी रुचि समाज की लड़कियों की पढ़ाई, पुस्तकालय और छात्रावास के लिए काम करने में ज़्यादा रहती है। 

प्रकाशन 

• मोहन राकेश के साहित्य में पात्र-संरचना (आलोचना) 

•  एक हँसी की उम्र (कहानी-संग्रह)

• स्त्री होकर सवाल करती है (फ़ेसबुक पर प्रकाशित कविताओं का संपादन)

• आधुनिक कविता (राजस्थान विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम हेतु कविता-संपादन)

• सिधपुर की भगतणें - (उपन्यास)

• स्वर्ग का अंतिम उतार- (उपन्यास)

• रानियां रोतीं नहीं (कहानी-संग्रह)

इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, एकांकी, बाल-कथा, आलोचना, पुस्तक-समीक्षा आदि प्रकाशित। दूरदर्शन, आकाशवाणी पर नियमित चर्चा-परिचर्चा, कथा-पाठ आदि। कई वर्षों तक साहित्यिक पत्रिका 'समय-माजरा' एवं 'अक्सर’ के संपादन मंडल से सम्बद्ध।

सन्दर्भ स्रोत : डॉ. लक्ष्मी शर्मा से वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा की बातचीत पर आधारित 

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