छाया : igastudios
• सारिका ठाकुर
भोपाल, प्रदेश की राजधानी बना तो सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की नयी बसाहट के तौर पर तात्या टोपे नगर ने आकार लेना शुरू किया। इसी इलाके में एक रोज़गार अधिकारी का परिवार उस समय शहर में नया नया ही आया था। पत्नी टेलीफोन विभाग में काम करती थी। परिवार में अम्मा और दादी के अलावा पति पत्नी और चार बच्चे थे। यह परिवार था विष्णु कृष्ण निलेकर (Vishnu Krishna Nilekar) और गीता निलेकर (Geeta Nilekar) का। गीताजी शादी के पहले से ही नौकरी कर रही थीं इसलिए घर की जिम्मेदारी माताजी और दादी जी साथ मिलकर उठा रही थीं। चार बच्चों में सबसे बड़ी थीं मंजूषा (manjusha) जो अपने भाई-बहनों बीच ही इतनी खुश रहती कि घर के बाहर कभी किसी से दोस्ती करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई।
देश के शीर्ष पांच कोलाजिस्टों- Collagists (कोलाज विशेषज्ञों ) में तीसरे स्थान पर काबिज मंजूषा गांगुली का जन्म 5 नवम्बर 1953 को ग्वालियर में हुआ। नौकरी की वजह से उनके पिता ग्वालियर से भोपाल आ गए और मंजूषा की स्कूली शिक्षा यहाँ तिलक स्कूल से हुई। स्कूल के पास ही सरकारी आवास में उनका परिवार रहता था। मंजूषा को बचपन से ही चित्रकारी का शौक था। परिवार में कोई भी चित्रकार नहीं था लेकिन उनकी माँ को बचपन में चित्रकारी का शौक ज़रूर था। आर्थिक समस्या के कारण वे इस शौक को छोड़ देने के लिए मजबूर हो गयी थीं। जब उन्हें अपनी बिटिया में चित्रकार बनने के लक्षण दिखे तो कला परिषद्, भोपाल kala parishad bhopal (Arts Council Bhopal) में संचालित चित्रकला विद्यालय में उन्होंने उसका दाख़िला करवा दिया। मंजूषा उस समय नौवीं-दसवीं में पढ़ रही थीं। इस स्कूल का संचालन कलागुरु श्री लक्ष्मण भांड (Guru Shri Laxman Bhand) कर रहे थे। मंजूषा कहती हैं, “चित्रकला के प्रति मेरी समझ उसी स्कूल विकसित हुई और वहीं मेरे भविष्य का आधार भी तैयार हुआ।”
वर्ष 1970 में हायर सेकेंडरी करने के बाद नूतन कॉलेज nutan College (सरोजनी नायडू महिला महाविद्यालय, भोपाल- Sarojini Naidu Women's College, Bhopal) में उनका दाखिला हुआ। उस समय चर्चा थी कि कॉलेज में चित्रकला (Arts) की भी पढ़ाई होगी। इसी लालच में उन्होंने वहाँ दाखिला ले लिया लेकिन स्नातक अंतिम वर्ष की पढ़ाई हो जाने के बाद भी वह दिन नहीं आया, इसलिए कॉलेज के बाद उनके लिए कला परिषद् में ‘लक्ष्मण सर’ की कक्षा में जाने का रोज नियम सा था। चित्रकला उस समय भी महँगा शौक ही था, लेकिन गुरूजी (भांड सर) बिना कहे मदद कर दिया करते थे। वे सबकी नज़र बचाकर स्केच बुक या रंग वगैरह उनके पास छोड़ जाया करते थे।
वर्ष 1974 में स्नातक की उपाधि हासिल करने के बाद मंजूषा जी ने महारानी लक्ष्मीबाई महाविद्यालय (एमएलबी कॉलेज) Maharani Laxmi Bai College (MLB College) का रुख किया। वहाँ महाविद्यालय के परिसर और चित्रकला विभाग को देखकर वे दंग रह गयीं। कॉलेज का चित्रात्मक वर्णन करते हुए वे कहती हैं, “एक बड़ा सा गेट था, चारों ओर हरा भरा जंगल और उसके बीच कॉलेज की वह लाल पुरानी इमारत। हमारे विभाग की खिड़कियों से छोटा तालाब और बड़ा तालाब दिखता था। लैंडस्केप बनाने के लिए इससे बेहतर जगह तो हो ही नहीं सकती थी। इसके अलावा हमें सिखाने वाले सुशील पाल सर और धीमान सर भी बहुत गुणी थे। सुशील पाल सर तो शान्ति निकेतन से सीखकर आए थे। कॉलेज में ज्यादातर मुसलमान लड़कियां थीं, वे चौकीदार के केबिन में अपना बुर्का निकालकर रख देती थीं फिर अन्दर जाती थीं।”
मंजूषा के रंग और तूलिका (paint and paintbrush) से सजी दुनिया में लक्ष्मण भांड सर के विद्यालय के अलावा एमएलबी कॉलेज को भी जगह मिल गयी। अब भांड सर का स्कूल कला परिषद् से पत्रकार भवन में स्थानांतरित हो गया था। महाविद्यालय से स्नातोकत्तर की पढ़ाई के साथ ही मंजूषा वहां से पांच साल का डिप्लोमा कोर्स भी कर रही थीं, जो वर्ष 1975 में पूरा हुआ। इसके बाद उन्हें चित्रकला विद्यालय के कलाकारों के समूह में शामिल कर लिया गया और कला परिषद में ही वर्ष 1977 में आयोजित प्रदर्शनी में पहली बार उन्होंने हिस्सा लिया।
वर्ष 1976 में उन्होंने स्वर्ण पदक के साथ स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की। उस समय वे आत्मविश्वास से लबालब भरी हुई थीं। इसके बाद का समय मंजूषा जी के लिए उम्मीदों के पंख फैलाकर उड़ान भरने की रही। उन्हें कला परिषद में पढ़ाई ख़तम होने के फ़ौरन बाद ही नौकरी मिल गयी। उस समय कला परिषद् भोपाल की सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था। वहाँ आए दिन बड़े-बड़े कलाकारों की प्रस्तुतियां, नाटक, प्रदर्शनी आदि के आयोजन होते थे। मंजूषा को प्रबंधकीय भार दिया गया यानी आने वाले बड़े कलाकारों के सत्कार का ध्यान रखना और उन्हें जरुरी सहायता मुहैया करवाना। उन्होंने वहाँ लगभग छः महीने काम किया और इस बीच विलायत खां और जाकिर हुसैन जैसे बड़े-बड़े कलाकारों से मिलने के अलावा नाटक निर्देशक वेणु गांगुली से भी उनकी भेंट हुई। वेणु जी किसी नाटक के रिहर्सल के लिए अक्सर वहाँ आते थे, लेकिन उस समय वह औपचारिक परिचय मात्र था।
कला परिषद् में काम करने के दौरान अगर कोई आयोजन न हो तो मंजूषा जी के पास काफी समय होता था। समय काटने के लिए उन्होंने सफ़ेद और नीले रद्दी कार्बन पेपर से कोलाज बनाना शुरू कर दिया। यह एक नया प्रयोग था। तरह-तरह की आकृतियाँ और विषय मूर्त रूप लेने लगीं। शुरुआत वास्तविक आकृतियों से ही हुई, बाद में अमूर्त विषयों पर भी उन्होंने कोलाज बनाये। मंजूषा जी बताती हैं, “कोलाज बनाने की शुरूआत तो कार्बन पेपर से हुई थी लेकिन बाद में ‘नेशनल ज्योग्राफिक और ‘लाइफ’ पत्रिका के पन्नों का इस्तेमाल किया क्योंकि वे चटख रंग वाले और खूब चमकीले हुआ करते थे।”
कला परिषद में लगभग छः महीने काम करने के बाद वर्ष 1977 में वे एमएलबी कॉलेज में ही अतिथि शिक्षक के तौर पर कक्षाएं लेने लगीं। दरअसल, मंजूषा जी के कला प्रशिक्षक श्री सुनील पाल सेवा निवृत्त हो गये थे और उसी रिक्त स्थान पर उनकी नियुक्ति बतौर अतिथि शिक्षक के तौर पर हुई। उल्लेखनीय है कि उस महाविद्यालय में व्याख्याता पद पर पहली अस्थायी नियुक्ति मंजूषा जी की ही हुई थी। उसी दौरान कला परिषद द्वारा एक फिल्म बनाई जा रही थी - ‘सतह से उठता आदमी’ जिसके निर्देशक थे मणि कौल। महान साहित्यकार मुक्तिबोध के जीवन पर बनी इस फिल्म में मंजूषा जी ने मुक्तिबोध की पत्नी के चरित्र को अपनी आवाज़ दी और एक छोटी सी भूमिका भी निभाई। हालाँकि फिल्म में काम करने का दूसरा मौका उन्हें फिर कभी नहीं मिला लेकिन कोलाज (Collage) को ही अपनी विधा के रूप में अपनाते हुए उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कॉलेज में पढ़ाने के साथ-साथ कोलाज विधा पर ही ध्यान केन्द्रित करते हुए उन्होंने कई नायाब प्रयोग किये और दुनिया भर के एकल प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया जिसमें उनके पति श्री वेणु गांगुली (Venu Ganguly) का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। वे सुप्रसिद्ध रंगकर्मी (Theater Artist) थे।
वर्ष 1978 की बात है। निर्देशक वेणु गांगुली एक गुजराती नाटक ‘जस्मा ओढ़न’ की रिहर्सल कला परिषद में कर रहे थे। भोपाल में सबसे पहला थिएटर ग्रुप बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। उस नाटक की कला निर्देशक थीं नीलम चौधरी - जिनके कहने पर मंजूषा उस नाटक की ‘कास्ट्यूम डिजाईनर’ बन गयीं थी। सुप्रसिद्ध अभिनेत्री एवं निर्देशक नीलम मानसिंह चौधरी का भी रंगमंच की दुनिया का वह शुरूआती दौर ही था। वर्ष 2011 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उन दिनों वेणु दा के पास एक स्कूटर हुआ करती थी। अपने नाटक से जुड़ी लड़कियों को वे खुद घर से लाते और ले जाते थे। लड़कियों की सुरक्षा के लिए वे हमेशा सजग रहते थे। एक बार वे मंजूषा जी को भी घर छोड़ने के लिए गए। रास्ते में उन्होंने कहा, “आई एम वेरी फ़ॉन्ड ऑफ़ यू|” वे चुप रहीं। फिर वेणु दा ने ‘आई लव यू’ भी कह दिया,जिसके बाद उन्होंने इस प्रेम निवेदन को स्वीकार कर लिया लेकिन साथ में यह भी कह दिया कि, “देखिये, शादी करनी हो और वो भी जल्दी तो ठीक है, बेवजह घूमने-फिरने के लिए ये सब मुझे मंजूर नहीं।” मंजूषा जी के इस कथन को वेणु दा ने किस गंभीरता से लिया यह तीन दिन बाद साफ़ हो गया।
इस घटना के तीसरे दिन मंजूषा अपने कॉलेज में थीं और एग्ज़ाम ड्यूटी पर थीं। एक व्यक्ति मंजूषा जी के पास पहुँचा और कहने लगा, आपको वेणु दा ने बुलाया है। ज़ाहिर था कि मंजूषा जी उस वक़्त परीक्षा छोड़कर नहीं जा सकती थीं सो उन्होंने मना कर दिया। वह व्यक्ति इंतज़ार करता हुआ कॉलेज में ही खड़ा रहा। कॉलेज का समय समाप्त होने के बाद वे उस व्यक्ति के साथ गुरु तेगबहादुर काम्प्लेक्स पहुँची। वह व्यक्ति उन्हें तीसरे माले पर लेकर गया और एक फ़्लैट के दरवाजे को खटखटा दिया। दरवाजा खोला रीता भादुड़ी (Theater Artist reeta bhaduri) (सुप्रसिद्ध रंगकर्मी रीता वर्मा) ने। उन्होंने हँसते हुए गले लगाया, घर के अन्दर किया और दरवाजा बंद करते हुए कहा, “तुम आ तो गयी हो, जा नहीं सकती अब।” मंजूषा जी ने मुड़कर देखा तो रीता और राजीव वर्मा (rajiv vermaTheater Artist) का घर उस समय के तमाम रंगकर्मियों से भरा हुआ था। विभूति झा नाम के एक वकील साहब भी उस समय वहाँ मौजूद थे। रीता जी ने फिर कहा, “आज तुम्हारी शादी है, देखो पूरी तैयारी है।”
“कैसी तैयारी है?” उनके मुंह से निकला।
“दूल्हा-दुल्हन के साथ गवाह है, वकील है और क्या चाहिए?”
“लेकिन मेरे घर के लोग?”
“उनको खबर भेज देते हैं, तुम एक चिट्ठी लिख दो कि अपनी मर्ज़ी से शादी कर रही हो।”
चिट्ठी लिख उस पर अपने हस्ताक्षर कर मंजूषा ने दे दिए, एक व्यक्ति हरकारा बनकर उनके घर दौड़ा। उनके पिताजी चिट्ठी पढ़ते ही आग बबूला हो गए। उन्होंने उनके छोटे भाई से कहा, “जा ताई को लेके आ जा, मैं इस शादी को नहीं मानता।“ उल्लेखनीय है कि मंजूषा जी का छोटा भाई भी उस समय वेणु दा के ग्रुप से जुड़ा हुआ था। जब तक वह रीता-राजीव जी के घर पहुँचा तब तक रजिस्ट्री वाली शादी हो चुकी थी।
“वेणु दा! आपने ठीक नहीं किया” - रुआंसी आवाज़ में छोटे भाई ने कहा।
वेणु दा के कुछ दोस्त उसे लेकर बाहर चले गए। खूब समझा-बुझाकर और खिला-पिलाकर उसे अपनी तरफ़ कर लिया। जब वह लौटा तो उसके सुर पूरी तरह बदले हुए थे। अब वह कह रहा था, “मुझे कोई दिक्कत नहीं, मैं खुद अपनी बहन की शादी करवाऊंगा।” इसके बाद एक पंडितजी की भी व्यवस्था हुई, रीता जी ने अपनी शादी का जोड़ा मंजूषा को पहना दिया। उल्लेखनीय है कि रिश्ते में वेणु गांगुली रीता वर्मा के काका लगते हैं। अब मंजूषा उनकी काकी बन गयी थीं। पंडित जी को देखकर मंजूषा का कलेजा मुंह को आ गया क्यों वे उनके पड़ोस में ही रहते थे। लेकिन उन्होंने फेरे करवा दिये। देर रात खाने पीने और हुल्लड़बाजियों के बाद वेणु अपनी नई नवेली दुल्हन को लेकर अपने फ़्लैट पर पहुँचे। अगली सुबह के सभी अखबारों की सुर्ख़ियों में वेणु गांगुली और मंजूषा निलेकर की शादी छाई हुई थी। यह देख उनके पिताजी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। छोटा भाई फिर उनके पास पहुँचा और बोला, “ताई, घर चलो, पापा ने बुलाया है।”
वेणु गांगुली ने कहा, “अब तुम्हारी ताई अकेली नहीं जायेंगी, मैं भी इनके साथ चलूँगा।” वेणुजी की रणनीति के तहत ससुर के गुस्से से निपटने के लिए रीता वर्मा और राजीव वर्मा ने अपने बच्चे को भी साथ ले लिया। यह चाल कामयाब रही, जब मंजूषा के पिताजी उन पर गुस्से से चिल्ला रहे थे, तभी वह बच्चा उनकी गोद में चढ़कर बैठ गया और पिताजी का गुस्सा काफूर हो गया। उसके बाद फिर कभी कोई दिक्कत नहीं आई। बेटी और दामाद दोनों को हमेशा उस घर में प्यार मिलता रहा। मंजूषा और वेणु दा अपने-अपने काम में फिर जी जान से जुट गए।
मंजूषा और वेणु जी की एक ही संतान है अरूप गांगुली। वेणु दा शानदार फुटबॉल खिलाड़ी थे, यह गुण उनके बेटे में भी आया। अरूप टेनिस और वालीबॉल खेलते थे, कुछ समय सानिया मिर्जा के जोड़ीदार भी रहे। उन्होंने डूरंड कप और रोवर्स कप में हिस्सा लिया था। अरूप 2010 में पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए और बाद में वहीं बस गये। वर्ष 2013 में श्री वेणु गांगुली का देहांत हो गया और मंजूषाजी अकेली रह गयीं। बेटे को आने-जाने में सुविधा हो इसलिए वे ऐच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर भोपाल से पुणे जाकर बस गयीं। पुणे के कला जगत ने भी उन्हें सर आँखों पर बिठाया।
मंजूषा जी मात्र चित्रकारी या कोलाज विधा में ही निपुण नहीं है बल्कि अन्य कई क्षेत्रों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। मराठी भाषी होकर भी हिन्दी साहित्य में उन्होंने प्रतिष्ठा अर्जित की। वे कवयित्री, लेखक और कला समीक्षक भी हैं। उनकी कहानियां और कला समीक्षाएं अपने समय की प्रसिद्ध पत्रिका दिनमान, सारिका और धर्मयुग आदि में प्रकाशित होती रहीं। उन्होंने सैयद हैदर रजा पर अपनी पीएचडी पूरी की। इसके बाद वे वर्ष 2000 से 2013 तक हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल में प्राध्यापक के रूप में कार्यरत रहीं। रेखांकित करने योग्य बात यह है कि शुरुआत में हमीदिया महाविद्यालय में केवल छात्रों को ही चित्रकला विषय मान्य था, लेकिन डॉ. मंजूषा गांगुली ने अपने कार्यकाल में सतत प्रयासों से मध्यप्रदेश उच्च शिक्षा विभाग से विशेष अनुमति लेकर चित्रकला विभाग में छात्राओं के लिए भी कला शिक्षण प्रारंभ करवाया।
मंजूषा जी कोलाज, म्यूरल और डिज़ाइन में विशेषज्ञता रखती हैं। अब तक वे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 42 से ज्यादा एकल प्रदर्शनियों में हिस्सा ले चुकी हैं। वर्ष 2010 में वे कैंसर से पीड़ित हो गयीं। सर्जरी के बाद ऐसा लगा जैसे इस रोग ने पीछा छोड़ दिया लेकिन वह फिर लौट आया। इस समय वे अपने पुत्र के साथ कैलिफोर्निया में हैं जहाँ उनकी एक बार फिर सर्जरी हुई है, मगर उनके हौसले आज भी बुलंद हैं। उम्मीद है वे जल्द ही कला क्षेत्र में लौट आएंगी अपनी कृतियों से दुनिया को पहले की तरह हैरान करने के लिए।
उपलब्धियां
• 14वें अंतर्राष्ट्रीय कला महोत्सव-2010 में राष्ट्रीय कला कौस्तुभ सम्मान
• ऑल इण्डिया विमेंस कॉन्फ्रेंस, भोपाल -2005 में ‘गुरु सम्मान’
• अमेरिकन बायोग्राफिकल इंस्टिट्यूट(एबी) द्वारा ‘मिलेनियम मैडल ऑफ़ ऑनर-2000
• अमृता शेरगिल फेलोशिप, मध्यप्रदेश -1998-99
• रज़ा पुरस्कार-1985, मप्र कला परिषद्, भोपाल
• कला परिषद द्वारा एमपी स्टेट्स बेस्ट अवार्ड- 1985
• अखिल भारतीय चित्रकला पुरस्कार -1979
प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें
• हरा बादल सपनों का: अरूप प्रकाशन, भोपाल
• रज़ा-परंपरा और परिवेश: सामानांतर प्रकाशन, नई दिल्ली
• रमेशचन्द्र नारायण पाटकर की पुस्तक ‘समकालीन कला इतिहास-भारतीय और पाश्चात्य’ का मराठी से हिन्दी अनुवाद: मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी
• 'और फिर तुम आये' -इस पुस्तक पर मंजूषा जी अभी काम कर रही हैं
सन्दर्भ स्रोत : मंजूषा गांगुली से सारिका ठाकुर की बातचीत'
शोधपत्र: भोपाल में चित्रकला शिक्षण-एक अध्ययन: कुमारी अंकिता जैन, शा. हमीदिया कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, भोपाल
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