विजय नरेश - जिन्होंने वर्जनाओं के पार अपनी दुनिया खुद बसाई

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विजय नरेश - जिन्होंने वर्जनाओं के पार अपनी दुनिया खुद बसाई

• सारिका ठाकुर

हममें से अधिकांश फिल्म निर्माण का मतलब फीचर फिल्मों का निर्माण ही समझते हैं, लेकिन शुरुआत में ऐसा नहीं था। तब फिल्म निर्माण प्रक्रिया में वृत्त चित्र को गंभीर और प्रभावी माध्यम माना जाता था, हालाँकि उसमें तब भी महिलाओं की भूमिका सीमित थी। ऐसे समय में पूना फिल्म इंस्टीट्यूट से निर्देशन की पढ़ाई करने वाली पहली या दूसरी छात्र थीं विजय ठाकुर, जो सुप्रसिद्ध साहित्यकार नरेश सक्सेना की पत्नी बनने के बाद विजय नरेश के नाम से पहचानी जाने लगीं।

विजयजी का जन्म 6 फरवरी 1942 को सागर, मप्र में हुआ। उनकी माँ बेनी कुंवर मशहूर तवायफ थीं, जिनकी गायकी की धाक चारों ओर फैली हुई थी। बेटी ‘विजय’ को वे पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाना चाहती थीं, लेकिन सागर में स्थितियां प्रतिकूल होने लगी थीं। दबंगों और तथाकथित रसूखदारों ने उनकी जायदाद पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। यह सब देखकर वे जबलपुर आ गईं और बेलबाग़ में रहने लगीं। उस इलाके में कई और तवायफों का ठिकाना था, लेकिन वहाँ स्थापित होने में उन्हें वक़्त नहीं लगा। शास्त्रीय गायकी उनकी आजीविका का साधन थी, जिसके लिए उन्हें उस समय के संगीत मर्मज्ञों से यथोचित सम्मान भी मिला।

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बहरहाल, अपनी माँ के साथ विजय भी जबलपुर आ गईं। उनका दाखिला सेंट नॉबर्ट हायर सेकेंडरी स्कूल में करा दिया गया। उसी स्कूल में सुप्रसिद्ध साहित्यकार रामानुजलाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ की बेटी, साधना भी पढ़ती थीं। विजय और साधना में गहरी दोस्ती हो गयी। साधना जी का परिवार साहित्यिक और प्रगतिशील विचारों वाला था, इसलिए विजय जी के उनके घर पर आने से किसी को कोई एतराज़ न था। हालाँकि अपनी माँ की हिदायत कारण साधना जी कभी विजय जी के घर नहीं गईं और विजयजी ने कभी इस पर जोर नहीं डाला।  शाम को स्कूल से छुट्टी पाने के बाद भातखण्डे संगीत विद्यालय में विजय और साधना जी संगीत सीखने जाया करती थीं। दोनों स्कूलों के समय-अंतराल में दो-तीन घंटे का फ़र्क होता था। विजय का वह समय, साधना जी के घर पर ही बीतता था। हालाँकि उनकी माँ के ख़ास ‘मुन्नू मामा’ उनकी सुरक्षा में तैनात रहते।

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1957 में दोनों सहेलियों ने मैट्रिक पास कर लिया। इसके बाद विज्ञान विषय लेकर इंटरमीडिएट करने के लिए महाकौशल महाविद्यालय में उनका दाखिला हुआ, जिसका नाम उस समय  रॉबर्टसन कॉलेज हुआ करता था। यह जबलपुर का सबसे पुराना कॉलेज है। इससे भी पुराने एक कॉलेज का जीर्णोद्धार करने के बाद, यह नया कॉलेज तैयार हुआ था। चीफ कमिश्नर सर बेंजामिन रॉबर्टसन ने 14 अक्टूबर, 1916 को उद्घाटन किया था। कॉलेज का नाम उन्हीं के नाम पर रख दिया गया था। इस तरह विजयजी और साधना जी सेंट नार्बट स्कूल की छोटी चहारदीवारी से निकल कर एक बड़े परिसर में पहुंच गयी थीं। वहां स्कूल जैसा कठोर अनुशासन न था। ज्ञान की अनगिनत शाखाएं थीं। कॉलेज में सहपाठियों की तादाद में खासा इज़ाफ़ा हो गया था। उनमें से बहुत से परिचय के इलाके में भी आ गये थे। मगन भाई पटेल, कैलासचंद्र वर्मा और रमेश नेमा तो उनके समूह के ही साथी बन चुके थे। मगन भाई आगे चल कर ‘डॉ. मगन भाई पटेल’ हुए और अपनी प्रतिज्ञानुसार उसी कॉलेज में भूगर्भशास्त्र के प्राध्यापक हुए। कैलासचंद्र वर्मा और रमेश नेमा दोनों आगे चलकर वेटरनरी डॉक्टर बने। कैलाश जी उसी समय विजय जी के मुंहबोले भाई बन गए थे।

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तमाम कोशिशों के बाद भी विजय जी उस वर्ष इंटर पास नहीं कर सकीं, अगले साल पास होने के बाद उन्होंने भोपाल मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस के लिए दाखिला लिया। डॉक्टर बनना उनका सपना था लेकिन न जाने कैसे उनके मातृकुल की जानकारियां भोपाल पहुंच गईं थीं। इसके चलते पहले पढ़ना मुहाल हुआ, फिर रहना और आख़िर में जीना भी मुहाल होने लगा, तो उन्होंने जबलपुर मेडीकल कॉलेज में अपना तबादला करा लिया। वहां पहले साल की पढाई के दौरान ही उन्हें साइनस हो गया, जिसके कारण उन्हें सांस लेने में तकलीफ़ होने लगी और वे परीक्षा नहीं दे सकीं। आख़िरकार उन्हें डॉक्टरी की पढ़ाई ही छोड़ देनी पड़ी। इस बात को लेकर साधना जी उनसे नाराज़ हो गयीं थीं। उनके बीच कई महीनों तक अबोला रहा। विजय जी  इस के बाद स्वाध्याय के जरिये बीए की तैयारी में लग गईं, फिर हिंदी साहित्य में एमए किया।

दूसरी तरफ़ 1958 में नरेश सक्सेना, जो आज हिन्दी के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि हैं, अपने शहर ग्वालियर से, पढ़ने के लिये जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज आए। तब तक उनमें प्रगतिशील मूल्यों और साहित्य के प्रति अनुराग पैदा हो चुका था। जब वे महज सोलह-सत्रह साल के ही थे, तभी उनके कुछ मुक्तक ‘ज्ञानोदय’ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में प्रकाशित हो गये थे। जबलपुर में उनकी मुलाक़ात हरिशंकर परसाई, विनोद कुमार शुक्ल, मुक्तिबोध,ज्ञानरंजन और सोमदत्त से हुई। परसाई जी  के घर तो वे लगभग हर शाम जाया करते थे। वहां किताबों का भण्डार था और नरेश जी को पढ़ने की लत। परसाई जी के साथ वे शहर के साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी शामिल होते थे। उन्हीं के जरिए भवानी प्रसाद तिवारी और विष्णु दयाल भार्गव से उनकी पहचान हुई। तिवारी जी और भार्गव जी के यहां आना-जाना हुआ।

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एक दिन जब नरेश जी अपने हॉस्टल में अख़बार पढ़ रहे थे, तो उनकी नज़र उसमें छपी एक तस्वीर पर पड़ी। तस्वीर में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के साथ जबलपुर यूनिवर्सिटी के उन कलाकार छात्रों का समूह था, जो राष्ट्रीय युवा उत्सव में झंडे गाड़ कर लौटा था। उन्हीं के बीच एक लड़की भी बैठी थी। वह निहायत खू़बसूरत लेकिन कुछ उदास सी दिख रही थी। उदासी ने उसकी गरिमा को नया आयाम दे दिया था।हालंकि उसने युवा उत्सव में उसने ‘बेस्ट इंडियन क्लासिकल म्यूज़िक’ वर्ग की गायन प्रतियोगिता में सर्वोच्च स्थान पाया था। जबलपुर के समाचार पत्रों ने उसकी इस उपलब्धि को शहर का गौरव निरूपित किया था। वह लड़की और कोई नहीं, विजय ठाकुर ही थीं। नरेश जी यह देखकर हैरान हुए कि साइंस कॉलेज की छात्रा को शास्त्रीय संगीत में निष्णात होने का पुरस्कार मिला है – वह भी राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम में, जहां पर देश भर के विश्वविद्यालयों से, अपने-अपने फन के माहिर लड़के-लड़कियां हिस्सेदारी करने आते हैं। उल्लेखनीय है कि खुद नरेश जी भी बांसुरी और माउथ ऑर्गन के कुशल वादक हैं।

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उसी शाम शहीद स्मारक भवन में सात बजे से जबलपुर की सांस्कृतिक संस्था ‘मिलन’ का वार्षिक समारोह आयोजित था। दो दिवसीय इस समारोह के पहले दिन साहित्यिक कार्यक्रम था, दूसरे दिन सांस्कृतिक। पहले दिन काव्य पाठ का कार्यक्रम हो चुका था। दूसरा दिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों वाला था। क्या होना है, उसका आमंत्रण पत्र में उल्लेख नहीं था। नरेश जी शहीद स्मारक पहुंचे। उनकी पहुँच ग्रीन रूम तक थी, जहां उनकी दुआ-सलाम साधना जी से हुई, जिनके पास ही विजय जी भी बैठी थीं। नरेश जी और विजय जी की वह पहली मुलाकात थी। इसके बाद इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई ख़त्म होने तक मुलाक़ातों का दौर चलता रहा। कभी किसी आयोजन में, तो कभी साधना जी या भवानी प्रसाद तिवारी जी के घर पर। धीरे-धीरे ये मुलाक़ातें बेतकल्लुफ़ होती चली गईं।

1962 के साल में नरेश जी की पढ़ाई पूरी हो गई, वे ग्वालियर वापस चले गए। नौकरी के लिये आवेदन किया और सरकारी नौकरी पाकर लखनऊ पहुंच गये। विजय ठाकुर भी  एमए की पढ़ाई पूरी कर अपनी शास्त्रीय गायन की प्रतिभा के साथ आकाशवाणी में साक्षात्कार देने लखनऊ पहुंची। लखनऊ आकाशवाणी का पत्र उन्हें देर से मिला था, तो वे एक तरह की हड़बड़ी में ही निकल पड़ी थीं। न तो वे अपने लखनऊ पहुँचने की इत्तला नरेश जी को कर सकीं थीं, न ही उनका कोई पता ठिकाना उन्हें मालूम था। नरेश जी का पता उन्हें आकाशवाणी से मिल सकता था, क्योंकि उन्हें कविता पाठ के लिये वहां बुलाया जाता था। पर यह बात उनके मन में आयी ही नहीं। वे अपने आप पर झल्लाती रहीं।

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एकाएक उन्हें नरेश जी से सुनी हुई एक बात याद आयी, कि लेखकों-कवियों-कलाकारों का ठिकाना कॉफी हाउस हुआ करता है। वे आकाशवाणी भवन से बाहर निकलीं। कॉफी हाउस के लिये रिक्शा किया। ग़नीमत थी, कि रिक्शा वाले ने नहीं पूछा कि कौन सा कॉफी हाउस…? वह उन्हें सबसे ज्यादा प्रसिद्ध कॉफी हाउस ले गया। विजय जी ने कॉफी हाउस का दरवाज़ा खोला तो कोने की एक टेबल पर नरेश जी को बैठा देखा। स्वयं नरेश जी भी उन्हें अपने सामने देखकर हैरान थे। नरेश जी के बहन-बहनोई लखनऊ में ही रहते थे। वे उन्हें अपनी बहन के घर ले गए और वहां पर ठहरा दिया। दूसरे-तीसरे दिन परिणाम आया। विजय जी का चयन हो गया था। अब उन्हें लखनऊ में ही रहना था।

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इसी बीच नरेश जी का तबादला हो गया। वे झांसी चले गए, लेकिन उनकी बहन ने हर इतवार विजय जी को अपने घर ले जाना-बुलाना जारी रखा। एक दिन नरेश जी का रिश्ता लेकर वे बेनी कुंवर से मिलने अपने बड़े भाई के साथ पहुंची। काफ़ी जांच पड़ताल के बाद विजय जी की माँ ने इस रिश्ते को अपनी मंजूरी दे दी। 16 मई 1970 को धूमधाम से दोनों की शादी हुई। विजय जी का कन्यादान भवानी प्रसाद तिवारी ने किया था।  

विजय जी के मन में फ़िल्म और टेलीविजन के क्षेत्र में कुछ कर दिखाने की आकांक्षा थी। नरेश जी ने उनकी इच्छाओं को पूरा महत्व दिया। उन्होंने सुझाव दिया कि इसके लिए  पूना फिल्म इंस्टीट्यूट जाकर निर्देशन की पढ़ाई करना ही बेहतर होगा। पति की बात मानकर विजय जी शादी की कुछ महीनों बाद ही पूना चली गईं। उन दिनों इंस्टीट्यूट, महिलाओं को फिल्म डायरेक्शन के पाठ्यक्रम में प्रवेश नहीं देता था। उसकी सोच थी कि निर्देशन का क्षेत्र, पुरुषों के लिये ही उपयुक्त है। पटकथा, कैमरा और यूनिट लेकर नदी-नाले, पहाड़ों, गढ्ढों और जंगलों में जाना पड़ता है। रात-दिन काम करना पड़ता है, वक़्त-बेवक़्त और मुश्किलों की परवाह नहीं की जाती। औरतें ये सब कैसे कर सकेंगी। ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे सिनेमा के महारथियों ने विजय जी से भी यही सवाल पूछे। उन्होंने कहा कि मान लो कि कोई वृत्तचित्र जंगल के जीवन पर बनाना हो, तो तुम्हें तो वहां कंदराओं और गुफाओं में, बीहड़ों और पहाड़ों पर काम करना होगा, कैसे करोगी…?

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इस पर विजय जी का जवाब था – सर, स्त्री होना कोई अयोग्यता नहीं है। हम निर्देशन के क्षेत्र में ही काम करना चाहते हैं। उसके लिये जैसी भी चुनौतियां आयेंगी, उनका सामना करने को तैयार हैं। दोनों महारथियों ने विजय जी के आत्मविश्वास को परखा, भविष्य की आहटों को सुना और बहुत प्रभावित हुए। विजय जी को निर्देशन पाठ्यक्रम में प्रवेश दे दिया गया। इस तरह उन्होंने वहां भी एक और निषेध को तोड़ा। एक नई लकीर खींची और फिल्म इंस्टीट्यूट में, डायरेक्शन कोर्स करने वाली पहली महिला-विद्यार्थी बनीं। यह संयोग ही था कि उसी समय जया भादुड़ी वहां अभिनय की पढ़ाई कर रहीं थीं और वे विजय जी से एक साल वरिष्ठ थीं। शबाना आज़मी और मिथुन चक्रवर्ती तो उनके बैच में ही थे। कुमार शाहनी उनसे सीनियर थे। 1973-74 में विजय जी डिप्लोमा लेकर संस्थान से निकलीं।  

फिल्म इंस्टीट्यूट में परीक्षा के लिये बीस मिनट की एक फिल्म बनाना होती है। विजय जी ने ‘27वीं सालगिरह पर’ शीर्षक से अपनी फिल्म बनाई थी। ऐसी फिल्मों में  इंस्टीट्यूट के विद्यार्थी ही अभिनय समेत तमाम ज़िम्मेदारियां निभाते हैं, परंतु एक विशेष भूमिका के लिये विजय जी ने अपनी बालसखी साधना जी को जबलपुर से बुलाया था। वह फ़िल्म इतनी अच्छी बनी कि ‘माधुरी’ के तत्कालीन संपादक अरविंद कुमार ने अपने एक आलेख में उस फिल्म की खुल कर तारीफ की। आगे चलकर विजय जी ने ‘जौनसार बावर’ नाम की एक और फिल्म बनाई।  आज के उत्तराखंड में यह जगह समुद्र सतह से 8-9 हजार फुट की ऊंचाई पर है। वह पांडवों का वंशज मानी जाने वाली जौनसारी जनजाति का मूल स्थान है।.यह इलाका, यमुना और टौंस नदियों के मध्य में स्थित है। जौनसार-बावर के दो भाग हैं और उनमें दो प्रमुख समुदाय निवास करते हैं। नीचे का आधा भाग ‘जौनसार’ कहलाता है और ऊपर वाला, जो कि बर्फ़ से ढंका रहता है, उसे ‘बावर’ कहते हैं।

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जौनसार जनजाति के लोगों को पाशि कहा जाता है। जबकि बावर के लोग अपने को दुर्योधन का वंशज मानते हैं और उन्हें षाठी कहा जाता है। दोनों समुदाय दुनिया से पूरी तरह कटे हुए हैं और शायद इसीलिए वे अपनी संस्कृति और परंपराओं को सुरक्षित रखे हुए है। जौनसारी समुदाय में बहुपतित्व परम्परा है। इसे पाँच पांडवों से द्रौपदी के विवाह से जोड़कर देखा जाता है। यदि एक घर में चार या पांच भाई हैं, तो स्त्री का विवाह उन सभी भाईयों से हो जाता है। अगर एक ही पुरुष है, तो वह तीन-चार स्त्रियों से विवाह करता है। असल में ऐसे विवाहों का कारण वहां का भौगोलिक वातावरण भी है। एक व्यक्ति – स्त्री हो या पुरुष, चारा लाने के लिये लगता है। इस काम के लिए उसे इतनी दूर जाना पड़ता है कि वह सुबह का गया, शाम को ही लौट पाता है। ऐसे में एक और व्यक्ति की ज़रूरत घर का कामकाज देखने के लिए होती है, तो एक की पशुओं की देखभाल के लिये। एक की, लकड़ी वगैरह काटने-लाने के लिए। इसके अलावा वहां के लोगों को साल में दो बार अपना घर बदलना पड़ता है। सर्दियों में ठंड के प्रकोप से बचने के लिये, उन्हें दो हजार फ़ीट नीचे आना होता है। वहां वे दूसरा घर बनाते हैं। घर का एक सदस्य इस दौरान देखभाल के वास्ते ऊपर वाले घर में ही रह जाता है।

जब विजय, नरेश जी के साथ, लाखा मंडल पहुंची, तो लोगों ने कहा कि आप पहली महिला हैं, जो मैदान से चलकर और यमुना को पार कर, यहां के दुर्गम पहाड़ों पर आईं हैं। उस समय पुल भी टूटा हुआ था। पहाड़ी नदियों को पार करना किसी आफ़त का सामना करने से कम नहीं होता। वहां पहुंच कर विजय नरेश जी ने जो फिल्म बनाई, वह उस विषय वस्तु पर बनी पहली फ़िल्म है। यहाँ यह बताना उचित होगा कि विजय जी की कई फिल्मों की पटकथा नरेश जी ने ही लिखी है। दूसरी तरफ  नरेश जी की कविताओं में जो सांस्कृतिक सम्पन्नता दिखायी देती है, उसे निर्मित करने में उनकी प्रिया-पत्नी विजय की अहम भूमिका रही है। ख़ैर, विजय जी इसके बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान यानी इसरो में स्पेस एप्लीकेशन सेंटर में बतौर प्रोड्यूसर बनकर अहमदाबाद आ गईं। वहां उन्होंने दो तीन साल काम किया। इस दौरान हिन्द महासागर में चल रहे तेल ड्रिलिंग प्रोजेक्ट पर फिल्म बनाना उनका काम था। जहाज का नाम था ‘सागर सम्राट’। वहां तक हेलीकॉप्टर से जाना पड़ता था। उस दौरान कई हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो चुके थे।

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अहमदाबाद में रहते हुए विजय जी ने गुजराती भाषा में महिलाओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं पर एक धारावाहिक का भी निर्माण किया, जो इसरो के सैटेलाइट से प्रसारित होता था। तीन साल बाद लखनऊ लौटकर वे उप्र संगीत नाटक अकादमी में प्रोडक्शन इंचार्ज नियुक्त हुईं। यहाँ भी उनका कार्यकाल लगभग तीन साल का रहा। इसके बाद उन्होंने एक अंतराल लिया और फिर संगीत नाटक अकादमी की निदेशक बनीं। उन्होंने एक  फिल्मोत्सव का आयोजन करवाया, जो ऐतिहासिक साबित हुआ। यह 1980 का दौर था। उल्लेखनीय है कि इस आयोजन में फ़िल्मी सितारों की जगह सभी शीर्ष सिने निर्देशकों ने शिरकत की थी। विजय जी वर्ष 1986 में आइसीसीआर के जरिये सूरीनाम के भारतीय दूतावास में भारतीय सांस्कृतिक केंद्र की डायरेक्टर रहीं। यह केंद्र सरकार के प्रथम सचिव के पद के बराबर होता है। उन्होंने साधना जी को भी अध्यापन के लिये सूरीनाम बुलाया था, जो पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण नहीं जा सकीं। 1990 में विजय जी वापस लौट आईं और स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशनल टेक्नोलॉजी, उप्र की निदेशक बनीं।

सूरीनाम से लौटते वक्त वे दिल्ली में दुर्घटनाग्रस्त हो गईं, इसके अलावा मधुमेह से भी पीड़ित हो गईं। समय के साथ स्वास्थ्य निरंतर गिरता रहा। उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। वर्ष 2011 में उनका देहांत हो गया। विजयजी एवं नरेश जी की दो संतानों में बड़े पुत्र का कोरोना काल में असमय देहांत हो गया। उनकी पुत्री पूर्वा नरेश वर्तमान में पूना में निवास कर रही हैं एवं फिल्म निर्देशन में स्वयं को आजमा रही हैं।  

संदर्भ स्रोत-  राजेंद्र चंद्रकांत राय के शोधपरक फेसबुक पोस्ट ‘मोहब्बत की बारात कोठे पर’ एवं विजय नरेश के पति साहित्यकार श्री नरेश सक्सेना से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित

© मीडियाटिक

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