विशिष्ट महिला
• सारिका ठाकुर
अपने युग की उदात्त कवयित्री तोरन देवी शुक्ल ‘लली’ का जन्म उनके ननिहाल मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले के पिपरिया गांव में सन 1897 में एवं निधन नवम्बर 1960 ई. में हुआ। लली जी के पूर्वज दिलवल, जिला उन्नाव (उप्र) के निवासी थे। इनके पिता पंडित कन्हैया लाल तिवारी रेल डाक सेवा में कार्यरत थे एवं इसी प्रयोजन से कुछ अंतराल तक गुजरात के मेहसाणा में भी रहे। मेहसाणा में एक ‘तोरन देवी मंदिर’ है जिसके प्रति ‘लली’ जी के पिता अटूट आस्था रखते थे, इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का नामकरण ‘तोरन देवी’ किया। उनकी सम्पूर्ण शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। इनके माता-पिता, मामा एवं नाना का इनमें साहित्यिक प्रतिभा विकसित करने के प्रति विशेष योगदान रहा। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भी इन्हें खूब प्रोत्साहित किया।
संवत 1986 में महज 15 साल की उम्र में उनका विवाह कैलाश नाथ शुक्ल के साथ कर दिया गया। ग्रंथ आकार में उनकी पहली कृति जागृति के लम्बे अरसे के बाद द्वितीय कृति ‘साधना’ प्रकाशित हुई। परन्तु तत्कालीन प्रतिष्ठित पत्र एवं पत्रिकाओं (चाँद, वीणा, रसिक मित्र, साहित्य सरोवर, प्रियंवदा, रसिक रहस्य, गृहलक्ष्मी, स्त्री दर्पण, मर्यादा, अभ्युदय, प्रताप, सरस्वती, भारत भगिनी इत्यादि) में भी लली जी की की पर्याप्त रचनाएं प्रकाशित हैं। उन्होंने कुछ समय तक लखनऊ से प्रकाशित मासिक ‘त्रिवेणी’ का संपादन भी किया। ‘जाग्रति’ में लली जी की 54 कविताएँ संकलित हैं जो दिव्य ज्योति, जीवन ज्योति, रत्न ज्योति, अमर ज्योति एवं दीप ज्योति – इन चार शीर्षकों में विभक्त हैं । इस ग्रंथ में संकलित कविताएँ भक्ति, दार्शनिकता एवं राष्ट्र भक्ति से ओतप्रोत हैं। सन 1968 में मिथिलाधिपति महाराज कामेश्वर सिंह जी –प्रधान भारत धर्म महामंडल’ द्वारा लली जी को ‘साहित्य चन्द्रिका’ की उपाधि से सम्मानित किया।
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एक अज्ञात शोधकर्ता के शोध प्रपत्र में प्रस्तुत विवेचना के अनुसार वस्तुतः ‘लली’ जी अपने समकालीन छायावादी कवियों से भावात्मक दृष्टि से कुछ भिन्न प्रतीत होती हैं । वे यथार्थ रूप में सांस्कृतिक-राष्ट्रीय धारा के स्वरों के साथ ही प्रसन्न भावों की गायिका हैं । उनके काव्य में दुःख एवं अवसाद भी लालित्य के साथ प्रस्फुटित होता है । वर्ष 1960 में उनके देहांत के उपरान्त उनकी पुत्रवधु श्रीमती प्रेम शुक्ल ने उनके द्वारा रचित द्वितीय काव्य संग्रह ‘साधना’ प्रकाशित करवाया जिसमें उनके जीवन से सम्बंधित महत्वपूर्ण विवरण दर्ज हैं, जिसके अनुसार –
उन्होंने नौ वर्ष की आयु से ही काव्य-रचना प्रारंभ कर दी थी। अल्पायु में विवाह हो जाने के पश्चात काव्य रचना के लिए कुछ समय तक उनको समुचित वातावरण नहीं मिला, परन्तु जल्द ही वे रचनाकर्म में पुनः जुट गईं । उनकी कविताएँ नवयुवकों को युद्धभूमि में जाने को उत्प्रेरित सी करती थीं, परिणामस्वरूप उन्हें कटुतापूर्वं व्यंग्य बाणों का भी सामना करना पड़ा। उनके मन को ठेस पहुंची लेकिन लेखनी निरंतर चलती रही और उनकी कविताएँ नव जागृति का सन्देश देती रही। इसके अतिरिक्त उन्हें संगीत कला का भी ज्ञान था। विभिन्न अवसरों पर गाये जाने वाले सभी लोकगीत वे रूचि लेकर गाती थीं। वर्ष 1940 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा उनकी काव्य कृति ‘जागृति’ को सेकसरिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पुरस्कार ग्रहण करने जब वे पूना पहुंची, उस समय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का 29 वां अधिवेशन चल रहा था, इस अवसर पर उन्होंने कहा था –
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हिन्दी साहित्य के लिए मेरी सेवा कैसी है और कितनी है यह मैं नहीं जानती। मैं यह भी नहीं कहना चाहूंगी कि मुझे लिखते हुए कितना समय व्यतीत हुआ, परन्तु इतना अवश्य कहूँगी कि भारत की तथा हिंदी भाषा की क्रांति के युग में मेरा जन्म हुआ और संभवतः परिस्थिति के कारण केवल एक ही आदर्श व सिद्धांत मेरे सामने रहा कि ऐसे अवसर पर राष्ट्र के लिए जो कोई जो कुछ भी कर सकता हो निरंतर यथाशक्ति करता चले उसमें अपने किसी भी स्वार्थ सिद्धि को महत्व देना केवल दुर्बलता मात्र है और इसलिए आज अधिकांश हिन्दी साहित्यकारों में अभिशाप की भांति फैली हुई दलबंदी एवं आत्म विज्ञापन से सर्वथा दूर रहने का प्रयत्न किया है।
उनकी पुत्रवधु प्रेम शुक्ल लिखती हैं कि –“सर्वगुण संपन्न गृहणी की तरह जीवन के समस्त कार्यों को सुचारू रूप से चलते हुए वे साहित्य साधना में निरंतर संलग्न रहीं। दिन में तो विभिन्न कार्य कलापों में व्यस्त रहने के कारण उन्हें एकांत एवं शांत वातावरण नहीं मिल पाता था, अतः रात्रि के समय उनका लेखन कार्य संपन्न होता था। यह भी उनकी एक विशेषता ही थी कि विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करते हुए भी उनकी साहित्य साधना कभी रुकी नहीं।“
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इनकी दूसरी कृति ‘साधना’ सन 1947 में ही पूर्ण हो चुकी थी एवं उसे प्रकाशित करवाने के प्रयत्न किये जा रहे थे, परन्तु सन 1950 में उनके इकलौते पुत्र श्री हरिहर नाथ शुक्ल ‘सरोज’ का असामयिक निधन हो गया जिसका उनके मन पर गहरा आघात पहुंचा। इस सदमे से वे साहित्य साधना से भी सदा के लिए दूर हो गईं। इस पीड़ादायक परिस्थिति में ‘साधना’ का प्रकाशन कुछ वर्षो के लिए स्थगित हो गया। पुत्र शोक से ‘लली’ जी कभी उबर नहीं सकीं एवं 1960 में वे भी दुनिया से विदा हो गईं। लली जी के पति भी वृद्ध हो चले थे, पुत्रवधु कामकाजी थीं, अतएव वे भी समुचित ध्यान नहीं दे पाई क्योंकि उस समय उनके एकमात्र पुत्र ‘मनोज’ अत्यंत छोटे थे। समय सरकता रहा एवं वर्ष 1992 में लली जी की पुत्रवधू ने अपने पुत्र एवं पुत्रवधू के प्रयासों से काव्य संग्रह ‘साधना’ को पुस्तक स्वरूप देकर प्रकाशित करवाया।
सन्दर्भ : स्त्री काव्यधारा पृष्ठ 17 एवं ‘लली’ जी की द्वितीय कृति ‘साधना’ में उल्लेखित विवरण पर आधारित
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