सुधा मल्होत्रा - जिन्होंने महज दस साल के करियर में गाए कई यादगार गीत

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सुधा मल्होत्रा - जिन्होंने महज दस साल के करियर में गाए कई यादगार गीत

छाया: सुधा मल्होत्रा के एफ़बी अकाउंट से

विशिष्ट महिला 

• शिशिर कृष्ण शर्मा 

फिल्म-संगीत के आज के श्रोताओं के लिए पार्श्व गायिका सुधा मल्होत्रा का नाम शायद अनजाना हो, लेकिन फिल्मी कव्वालियों में दिलचस्पी रखने वाले लोग निश्चित रूप से सुधा जी के प्रशंसक हैं। फिल्म बरसात की रात की कव्वाली- ‘न तो कारवां की तलाश है, न हमसफ़र की तलाश है’, आज दशकों बाद भी बड़े चाव से सुनी जाती है तो इसलिए कि उसमें मन्ना डे, मोहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले के साथ सुधा जी की आवाज़ का माधुर्य है।

30 नवम्बर 1936 को दिल्ली में जन्मी सुधा मल्होत्रा चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं। उनकी पहली प्रस्तुति छः साल की उम्र में एक कार्यक्रम में मास्टर गुलाम हैदर और उनके ऑर्केस्ट्रा के सामने हुई थी। उन्होंने फिल्म खानदान में नूरजहां का गाया गाना ‘तू कौन सी बदली में है मेरे चाँद’ पेश किया था। इसे सुनकर मास्टर हैदर ने कहा था कि वे बड़ी होकर बहुत नाम कमाएंगी। इसके बाद उनका जो आत्मविश्वास जागा और माता पिता का भी भरपूर प्रोत्साहन मिला तो वे आगे भी मंच पर गाती रहीं। उन्होंने लाहौर में देशबन्धु सेठी से शास्त्रीय गायन सीखा। धीरे-धीरे वे ऑल इंडिया रेडियो लाहौर पर भी गाने लगीं। भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो सुधा जी का परिवार दिल्ली आ गया और वे पं. अमरनाथ से संगीत सीखने लगीं। गुलाम हैदर साहब ने सुधा जी की आवाज़ को पसंद किया था। वे उन्हें मौका दे पाते, इसके पहले ही वे पाकिस्तान चले गए।

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सुधा जी के पिता शिक्षक थे। उन्हें भोपाल में प्राचार्य के रूप में काम करने का मौका मिला तो वे यहाँ आ गए। सुधा जी का ननिहाल मुंबई में था, जहां बचपन से उनका आना-जाना लगा रहता था। प्रख्यात संगीतकार अनिल बिस्वास उनके मामा के मित्र थे। उन्होंने सुधा जी को गाते हुए सुना तो बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने फिल्म आरजू (1950) में सुधा जी से उनका पहला गाना गवाया- ‘मिला गए नैन’, जो शशिकला पर फिल्माया गया था। इस समय उनकी उम्र महज चौदह साल थी। इस गीत की रिकॉर्डिंग के बाद वे वापस भोपाल आ गईं। ‘मिला गए नैन’ की कामयाबी के बाद उन्हें एक के बाद एक गाने के प्रस्ताव मिलने लगे। वे मुंबई जातीं और गाना रिकॉर्ड कर वापस आ जातीं। दो-तीन साल तक यही सिलसिला चलता रहा और अंतत: उन्हें मुंबई में ही बस जाना पड़ा। हालांकि जोधपुर के मशहूर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स का संग्रह करने वाले गिरधारीलाल विश्वकर्मा का कहना है कि सुधा जी की पहली फ़िल्म आरज़ू नहीं बल्कि आख़िरी पैग़ाम उर्फ़ द लास्ट मैसेज थी। इस फ़िल्म में सुधा जी ने आबिद हुसैन ख़ान और सुशांत बनर्जी के संगीत निर्देशन में तीन गीत गाए थे, जिसमें एक सोलो, एक फ़ीमेल डुएट ( सहगायिका उमादेवी के साथ ) और एक मेल डुएट ( सहगायक विनोद के साथ ) था।

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इसी दौरान अनिल बिस्वास के बहनोई मशहूर बांसुरी वादक पन्नालाल घोष ने उन्हें फिल्म ‘आंदोलन’ में ‘वंदे मातरम’ गाने के लिए आमंत्रित किया। सहगायक थे मन्ना डे और पारुल घोष। उस दौर के तमाम छोटे-बड़े संगीतकारों के साथ उन्होंने काम किया। सुधा जी की गायकी में दो ख़ास बातें थीं –  उच्चारण की स्पष्टता और शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित आवाज़ में लोच और मधुरता का अनोखा मेल। 1950 के दशक में सुधा जी अपने काम में बेहद मसरूफ़ रहीं, उन्होंने लगातार दर्जनों फिल्मों में दर्जनों गाने गाए। फिर शिकागो रेडियो के मालिक गिरधर मोटवानी से उनका विवाह हो गया। उस ज़माने में लड़कियों का फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था और एक बड़े कारोबारी घराने की नई बहू को तो इसके इजाज़त मिलना नामुमकिन ही था। इसलिए बड़े-बुजुर्गों की इच्छा का आदर करते हुए सुधा जी ने फ़िल्मों को अलविदा कह दिया। एक साक्षात्कार में सुधा जी ने अफ़सोस जताते हुए कहा था कि उनका जन्म पन्द्रह-बीस साल बाद होना था। उनका जन्म उस दौर में हुआ था जब बाली उम्र में शादी करने का रिवाज़ था। 14 साल की उम्र में शुरू हुआ उनका करियर 23 साल की उम्र में ख़त्म भी हो गया और स्वभाविक रूप से उनकी जगह नए लोगों ने ले ली।

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हालांकि सुधा जी के करियर को परवान चढाने में अनिल बिस्वास के अलावा साहिर लुधियानवी का भी बड़ा हाथ रहा। साहिर ने उनके लिए बड़े खूबसूरत गीत लिखे। एक समय उनका नाम साहिर के साथ जोड़ा जाने लगा। यह तक कहा जाने लगा कि साहिर और अमृता प्रीतम के बीच अलगाव का कारण भी सुधा मल्होत्रा थीं। मोटवानी परिवार में जब सुधा जी का रिश्ता तय हुआ तो कुछ लोगों ने उनकी और साहिर की कुछ तस्वीरें उस समय के मशहूर ब्लिट्ज़ अख़बार में छपवा दीं। हालांकि अख़बार ने बाद में उनसे इस बात के लिए माफ़ी मांग ली ,लेकिन शादी के बाद सुधा जी को गाने की इजाज़त न मिलने की यह  भी एक बड़ी वजह बन गई। सुधा जी को लता मंगेशकर की आवाज़ बेहद पसंद रही है। वे उनके कई गानों को दोबारा गाना चाहती थीं, मसलन – ‘आपकी नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे’, ‘रसिक बलमा’ और ‘वो जो मिलते थे कभी’। लेकिन लता के गीत एक म्यूज़िक कंपनी के कारण अनुराधा पौड़वाल को गाने को मिले और सुधा जी मन मसोस कर रह गईं।

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बहुत कम लोगों को मालूम है कि ‘तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको’ की धुन खुद सुधा जी ने तैयार की थी। यह उनका आख़िरी रेकॉर्डेड गीत था। फ़िल्म ‘दीदी’ के इस गीत के संगीतकार एन. दत्ता थे, लेकिन रिकॉर्डिंग के दिन वे अचानक बीमार हो गए। उन्होंने सुधा जी को कोशिश करने की अनुमति दे दी, जिसमे वे कामयाब रहीं। इस तरह वे  गायक के साथ कम्पोज़र भी बन गईं।ऐसा ही एक और वाक़या सुधा जी ने अपने प्रशंसकों के साथ साझा किया है। फ़िल्म ‘बरसात की रात’ की कव्वाली ‘ना तो कारवां की तलाश है’ की रिकॉर्डिंग होना थी। रफ़ी, आशा, एस.डी. बातिश और कुल नौ लोगों के लिए एक चुनौती थी कि कम समय में उन्हें यह गीत तैयार करना था। बीस घंटे से भी ज़्यादा वक़्त तक रिहर्सल चलती रही और गाने को मुकम्मल करने के बाद ही सब लोग स्टुडियो से बाहर निकले- भरपूर आनंद और संतुष्टि के भाव के साथ।

फ़िल्म “दीदी” के बाद भी काफ़ी समय तक सुधा मल्होत्रा के पहले से रेकॉर्ड हुए गीत बाज़ार में आते रहे और पसंद भी किए गए। इनमें “कश्ती का ख़ामोश सफर है” (गर्ल फ्रेंड / 1960), “सलामे हसरत कुबूल कर लो” (बाबर / 1960), “ना मैं धन चाहूं” (काला बाज़ार / 1960), “अस्सलाम आलेकुम बाबू कहो कैसा हाल है” (कल्पना / 1960), “अलिफ़ जबर आ” (लव इन शिमला / 1960), “ये हाथ ही अपनी दौलत है” (मासूम/ 1960), “जाने वाले देख ले” (देखी तेरी बंबई / 1960), “जाओ जी जाओ बड़ी शान के दिखाने वाले” (रज़िया सुल्तान / 1961), “सच्चे का है बोलबाला” (सच्चे मोती / 1962), “कदमों में शमां के परवाने” (किनारे किनारे / 1963) और “हम भी थे अनजान” (मैं सुहागन हूं। 1964) जैसे गीतों के अलावा फिल्म “बरसात की रात” (1960) की मशहूर क़व्वालियां “ये इश्क़ इश्क़ है”, “ना तो कारवां की तलाश है” और “जी चाहता है चूम लूं” भी शामिल हैं

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सुधा जी को उस दौर के तकरीबन सभी छोटे-बड़े संगीतकारों के साथ काम करने का मौक़ा मिला। उन्होंने 135 फ़िल्मों में क़रीब 250 गीत गाए। “मोहब्बत की धुन बेक़रारों से पूछो” (दिले नादान / 1953), “आवाज़ दे रहा है ” कोई आसमान से” (गौहर / 1953). “गंगा की रेती पे बंगला उठवाइ दे” (मिर्ज़ा ग़ालिब / 1954), “घूंघट हटाय के नज़रें मिलाय के” (रंगीन रातें / 1956), “मालिक तेरे जहां में” (अब दिल्ली दूर नहीं / 1957), “मेरा जला रात भर दिया” (चमक चांदनी / 1957), “सपनों का चंदा आया” (मिस्टर एक्स / 1957), “हम तुम्हारे हैं ज़रा घर से निकल कर देख लो” (चलती का नाम गाड़ी / 1958), “जाने कैसा जादू किया रे” (परवरिश / 1958), “देखो जी मेरा हाल, बदल गई चाल” (सोलहवां साल / 1958), “हट हट हट जा रे नटखट पिया” (स्वर्ण सुंदरी / 1958), “कासे कहूं मन की बात” (धूल का फूल / 1959), “सन सन सन वो चली हवा” (काग़ज़ के फूल / 1959), और “ग़म की बदली में चमकता… कल हमारा है” (कल हमारा है / 1959) जैसे उनके गाए हुए कई गीत बेहद पसंद किए गए”।

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सुधा मल्होत्रा बताती हैं, “नौशाद साहब के संगीत निर्देशन में फ़िल्म उड़न खटोला के सभी गीत पहले उनकी ही आवाज़ में रेकॉर्ड किए गए थे। लेकिन जब फ़िल्म और रेकॉर्ड रिलीज़ हुए तो उन गीतों में से उनकी आवाज़ नदारद थी। उधर चेतन आनंद ने भी अपनी फ़िल्म के लिए मेरी और गीता दत्त की आवाज़ों में साहिर लुधियानवी का लिखा एक गीत ख़ैयाम के संगीत निर्देशन में रेकॉर्ड कराया था। वो फ़िल्म नहीं बनी तो आगे चलकर उस गीत को यश चोपड़ा की फ़िल्म में इस्तेमाल कर लिया गया। धुन और बोल वही थे लेकिन अब आवाज़ें बदल चुकी थीं। वो गीत था, “कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है”। फ़िल्म “बरसात की रात” की क़व्वालियों में मुख्य स्वर मेरा होने और पार्श्वगायन में बढ़ती मेरी व्यस्तताओं की वजह से मेरे ख़िलाफ़ भी उठापटक शुरू हो गयी थी। उस ज़माने में संगीत के क्षेत्र में एच.एम.वी. कंपनी का एकाधिकार था। ये तो मैं नहीं कह सकती कि कम्पनी पर किसी तरह का कोई दबाव था, लेकिन उस दौर में कम्पनी ने मेरे गाए गीतों का एक भी रेकॉर्ड जारी नहीं किया”।  

फ़िल्मों से अलग होने के बावजूद सुधा जी ने रियाज़ जारी रखा, वे संगीत की कक्षाएं चलाती रहीं और कभी -कभी मंच पर भी जाती रहीं। 24 साल के अंतराल के बाद उन्होंने जिस फ़िल्म के लिए आखिरी बार गाया, वह थी 1982 में बनी राज कपूर की प्रेम रोग और गीत था – ये प्यार था या कुछ और था। यह गीत उन्होंने अनवर के साथ गाया था। उनके कुछ प्राइवेट एल्बम भी जारी हुए। एक पार्श्वगायक के रूप में सुधा जी का करियर कुल जमा दस साल का रहा, लेकिन उनके गीतों की ताज़गी आज भी बरक़रार है। हिन्दी फ़िल्म संगीत में उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए 2013 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। वर्तमान में वे मुंबई के खार इलाके में अपने बेटे और बहू के साथ रह रही हैं। बेटा पारिवारिक व्यवसाय देखता है, जबकि बहू ‘ल ऑफिशियल’ और ‘सेवेनटीन’ जैसी फैशन पत्रिकाओं की संपादक है।

लेखक हिन्दी सिनेमा के मशहूर इतिहासकार हैं ।  मूल आलेख उनके ब्लॉग बीते हुए दिन‘ से लिया गया है
और उसमें कुछ अंश वेबदुनिया पर प्रकाशित श्री समय ताम्रकार के आलेख से लेकर जोड़े गए हैं।    

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