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विशिष्ट महिला
• सारिका ठाकुर
उर्दू की सुविख्यात लेखिका डॉ. सुघरा मेहदी का वास्तविक नाम सईदा इमामत फातिमा था। उनका जन्म रायसेन जिले के बाड़ी कस्बे में 8 अगस्त 1937 को सैयद अली मेहदी और सियादत फातिमा के घर हुआ। चार बहनों में वे सबसे छोटी थीं, उनके बाद दो छोटे भाई थे। मूल रुप से उनके पिता फर्रुखाबाद (उप्र) जिले के दाईपुर कस्बे के निवासी थे।
श्री मेहदी भोपाल पुलिस सेवा में सब इंस्पेक्टर थे और उनकी माँ खुद एक कवयित्री थीं। उनका प्रारंभिक जीवन बाड़ी में ही व्यतीत हुआ। हालाँकि तबादले के दौरान भोपाल में भी कुछ समय तक उनका रहना हुआ। सेवा निवृत्ति के बाद श्री मेहदी अपने परिवार को लेकर दाईपुर वापस चले गए। कुछ समय बाद वहीं उनका इंतकाल हो गया। परिवार की पूरी जिम्मेदारी उनकी माँ पर आ गयी। दाईपुर में पढ़ाई की उचित व्यवस्था नहीं थी। इसलिए 1950 के दशक में उनके मामा पद्मश्री डॉ. आबिद हुसैन सभी बच्चों को लेकर दिल्ली आ गए । डॉ. हुसैन जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के संस्थापकों में से एक थे और विश्वविद्यालय के अहाते में ही निवास करते थे। उनकी अपनी कोई औलाद नहीं थी वे बहन के बच्चों को अपनी औलाद से भी बढ़कर प्यार करते थे। सुघरा जी की मामी (बेगम सालेहा आबिद हुसैन) मशहूर उर्दू लेखिकाओं में से एक थीं। सुघरा जी के व्यक्तित्व निर्माण में उनके मामा और मामी की बहुत बड़ी भूमिका रही। वे एक तुनकमिजाज, शरारती और अत्यधिक संवेदनशील बच्ची थीं जिसका उनके मामा-मामी पूरा ख़याल रखते थे।
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सुघरा जी की हाई स्कूल और उच्च शिक्षा दिल्ली में ही हुई। उनके करियर की शुरुआत एक दिल्ली में स्थित बुलबुली खाना स्कूल में शिक्षिका के तौर पर हुई। इसके बाद वे बल्लीमारां उच्च माध्यमिक कन्या विद्यालय में वे शिक्षिका बनीं। फिर वे अपनी पीएचडी पूरा करने के लिए वापस जामिया आ गईं जिसमें उन्होंने अकबर इलाहाबादी के साहित्य पर आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया था। इसके बाद वे जामिया में ही उर्दू के सहायक व्याख्याता के तौर पर नियुक्त हुईं और प्रोफ़ेसर पद तक पहुंची। एक शिक्षिका के रूप में वे अपने छात्रों के साथ मन से जुड़ जाती थीं और कक्षा के अलावा भी उन्हें पढ़ाने से कभी गुरेज नहीं करती थीं। स्नातकोत्तर और पीएचडी के विद्यार्थियों के लिए विश्वविद्यालय से सटा हुआ उनका घर स्थायी ठिकाना हुआ करता था, जहाँ वे उनकी पढ़ाई लिखाई के साथ व्यक्तिगत समस्याओं का भी पूरे धैर्य से निबटारा किया करती थीं। छात्रावास की वार्डन के रूप में उनकी छवि कुछ सख्त थी, लेकिन वहां रहने वाली सभी छात्राएँ उनके प्यार और दुलार को भी समझती थीं।
वर्ष 2000 में उन्होंने अपनी एक दोस्त सईदा हमीद -के साथ मिलकर मुस्लिम महिला फ़ोरम की शुरुआत करते हुए भारत के विभिन्न हिस्सों में रहने वाली मुसलमान महिलाओं की समस्या को आवाज़ देने की कोशिश की। सईदा जी राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्या रह चुकी थीं। दोनों ने यह महसूस किया कि मुसलमान महिलाओं के जीवन से सम्बंधित मुश्किलों को लेकर आवाज़ उठाने वाली एजेंसी न के बराबर है। वैसे तो हर समुदाय में महिलाओं के स्वर को दबा दिया गया है लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय में निहित भय के कारण उन्हें अपने ही घर में दमन का सामना करना पड़ता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ की पितृसत्तात्मक व्याख्याओं का उपयोग उन्हें अधीन रखने के लिए किया जाता है। इसी अवधारणा को लेकर गठित मुस्लिम विमेन फ़ोरम वह मंच बना जहाँ महिलाओं ने बेहिचक अपनी समस्याओं के अलावा मुस्लिम पर्सनल लॉ और नागरिक अधिकारों पर बात की। इसकी सबसे बड़ी संगोष्ठी मप्र सरकार की मदद से और सुघराजी के अच्छे मित्रों में से एक रहे डॉ. अजीज़ कुरैशी के माध्यम से दिल्ली स्थित विश्व युवा केंद्र में आयोजित हुआ। डॉ. कुरैशी बाद में उत्तराखंड के राज्यपाल बने।
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सुघरा जी की बौद्धिक धारणाएं उनके चाचा डॉ. आबिद हुसैन की छत्रछाया में विकसित हुई। उनकी दार्शनिक विश्लेषणों से वे प्रभावित थीं इसलिए क़ुरान और इस्लाम जैसे मुद्दों पर भी वे बेख़ौफ़ और बेलाग बोलती थीं, इस बात की परवाह किये बिना अधिकाँश रूढ़िवादी लोग उनके खिलाफ हो जाएँगे। वे जिस बात से सबसे ज्यादा आहत होती थीं वह एक आम धारणा थी जिसके अनुसार जामिया मिलिया को इस्लामी कट्टरवाद का अड्डा बताया जाता था। उनकी दोस्त सईदा हमीद लिखती हैं कि –“वे रवींद्र नाथ टैगोर के दर्शन के प्रतीक उस संस्थान में रहती थीं जहाँ दिमाग के सभी दरवाजे और खिड़कियाँ खुली होती हैं, ताकि हवाएं हर दिशा में बह सके। जामिया ने हर धर्म और समुदाय के बच्चों का स्वागत किया और उन्हें अपने विश्वास का स्वतंत्र रूप से अभ्यास करने की अनुमति दी। जामिया ने हर धर्म और समुदाय के बच्चों का स्वागत किया और उन्हें अपने विश्वास का स्वतंत्र रूप से अभ्यास करने की अनुमति दी।” इसलिए सुघरा जी के जीवन में ‘धर्मनिरपेक्षता’ एक सहज सरल भाव के रूप उपस्थित रही।
सुघरा जी के नजदीकी मित्रों में एक शरणार्थी लड़का जितेन्द्र कुमार था जिसे रेलवे प्लेटफॉर्म पर लावारिस भटकते हुए देखकर जामिया लाया गया था। नमाज़ के समय जब सभी लड़के मस्जिद चले जाते वह अपने छोटे से मंदिर में पूजा करता जो उसने होस्टल में ही बना रखा था। सुघरा और उनकी एक सहेली अजरा, जितेंद्र को राखी बांधती थी और क़रीब 65 सालों तक निरंतर अपने उस भाई को वे राखी भेजती रहीं चाहे वह कहीं भी हो। धर्मनिरपेक्षता पर अपनी राय रखने के मामले में सईदा जी, सुघरा जी को शमशीर-ए-बरहना (नंगी तलवार) की उपमा देती हैं। उनके अनुसार चाहे वह सलमान रुश्दी की ‘द सैटेनिक वर्सेज’ के बाद की प्रतिक्रिया हो या उसके दशकों बाद बाटला हाउस की घटना, सुघरा मेहदी ने जामिया मिलया को धर्मनिरपेक्ष और उदार संस्था के रूप में प्रकाशित करते हुए कट्टरवाद के हर रंग का विरोध किया। वह उन लोगों के खिलाफ भड़क उठती थीं जो निहित स्वार्थों के लिए घृणा फैलाने का काम करते हैं।
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डॉ. शगुफ्ता यास्मीन को दिए गए साक्षात्कार में सुघराजी ने बताया था कि लेखन की उत्प्रेरणा उन्हें अपनी मामी से मिली। बचपन से ही वे उन्हें लिखने के लिए उत्प्रेरित करती रहीं। वास्तव में उन्होंने ही अपनी परवरिश के माध्यम सुघरा जी को एक साहित्यकार के रूप में गढ़ा। सुघरा जी की पहली कहानी 1951 में एक उर्दू पत्रिका में शाया हुई। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अब उनकी कहानियां देश की प्रतिष्ठित उर्दू पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होने लगी थी। उनका पहला उपन्यास ‘पा बा जालन’ 1972 में प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने समकालीन महिलाओं की समस्याओं का जीवंत चित्रण किया था। इस उपन्यास को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया था। इसके बाद अगले उपन्यास धुंध ने भी तहलका मचा दिया। उन्होंने सिर्फ उपन्यासों या कथाओं में ही नहीं बल्कि हास्य व्यंग्य में भी महारत हासिल था। इसी उत्प्रेरणा के परिणामस्वरूप अपने जीवन में उन्होंने लगभग 40 पुस्तकें लिखीं… जिसमें उपन्यास, छोटी कहानियां, अकादमिक शोध, अनुवाद यहाँ तक की बाल साहित्य भी शामिल है। वे जामिया के धर्मनिरपेक्ष और उदार विचारधारा की मजबूत समर्थक थीं। उनके द्वारा लिखी गई अंतिम किताब है –‘हमारी जामिया’, जिसमें उन्होंने जामिया का 1920 से लेकर अपने जीवन के अंतिम दौर तक के इतिहास को दर्ज किया है। प्रमाणिक दस्तावेज तैयार करने के लिए उन्होंने अपने व्यक्तिगत अभिलेखागार से तस्वीरों का चयन किया और अपनी 60 वर्ष के अनुभवों को सप्रमाण अंकित किया। यह किताब जनवरी 2014 में प्रकाशित हुई।
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सुघरा जी उर्दू की मशहूर लेखिका कुर्तुल ऐन हैदर के काफी करीब थीं। वे जब भी दिल्ली आतीं, सुघरा जी के घर ही रुकतीं। मज़ेदार बात यह है कि खुद सुघरा जी कुर्तुल हैदर की लेखनी को बहुत ज्यादा पसंद नहीं करती थीं, बल्कि वे उनकी घोर आलोचक थीं। इसके अलावा सुघरा जी अपनी दो सहेलियों के भी काफी क़रीब थी और उर्दू साहित्य में उनकी तिकड़ी काफी मशहूर थी। इस तिकड़ी में से एक सईदा हामिद थी, जो सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका हैं। तीसरी थीं अजरा – जो मशहूर शायर गुलाम रब्बानी की पुत्री थीं। ‘हमारी जामिया’ प्रकाशित होने के बाद सईदा जी ने उनसे मशहूर लेखक और फिल्म निर्माता ख्वाजा अहमद अब्बास की लघु कथाओं की एक पुस्तक का संपादन करने का अनुरोध किया। उस पुस्तक का विमोचन अब्बास साहब की जन्म शताब्दी पर होना था। सुघरा जी ने दिन रात एक कर लघु कथाओं को एकत्रित कर उसका संपादन किया। ‘अगर मुझसे मिलना है’ नामक इस पुस्तक का विमोचन एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में 14 मार्च 2014 को तीन मूर्ति भवन में हुआ। तीन दिन बाद 17 मार्च 2014 को वे चल बसीं। उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने राष्ट्रीय एकता पुरस्कार-2015 से उन्हें सम्मानित किया।
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गुल बर्धन - जिन्होंने बैले को समर्पित कर दिया जीवन
सुघरा जी भाई-बहनों में वर्तमान में कोई भी जीवित नहीं है। एक भाई की मौत 20-22 की उम्र में दाईपुर में गंगा में डूब जाने से हो गई थी.. दूसरे भाई का इंतकाल सुघरा जी के गुजर जाने के बाद हुआ… लेकिन भाई बहनों के बच्चे जरुर हैं जो अपनी खाला को आज भी बड़े इज्जत और प्यार से याद करते हैं। खुद सुघरा जी ने शादी नहीं की।
प्रमुख पुस्तकें
• कोई दर्द आश्ना ही नहीं( नावेल्ट) -1969
• पा बजोलां (उपन्यास) – 1973
• धुंद (उपन्यास): – 1974
• पुरवाई (उपन्यास ) -1979
• राग भोपाली : 1983
• अकबर की शायरी का तन्कीदी मुताला : 1983
• हयात-ए-आबिद (ख़ुद-नविश्त सवानेह) : 1984
• जो मेरे वो राजा के नहीं(कहानी) : 1985
• गुलाम रब्बानी ताबां: शख्सियत और अदबी खिदमात (मुर्रतिब) : 1993
• सेर करदना की ग़ाफिल (सफ़रनामा) : 1994
• अकबर इलाहाबादी(मोनोग्राफ़) : 1995
• पहचान (कहनियाँ) : 1995
• उर्दू ज़बान-ओ-अदब के फ़ारोग में जामिया मिल्लिया इस्लामिया का हिस्सा (मुरत्ताबा) : 1997
• हिन्दुस्तान में औरत की हैसिय्यत (अनुवाद) : 1998
• राजधानी में एक मुहिम (अनुवाद) : 2001
• मयखानो का पता (सफ़रनामा) : 2005
• हिकायत-ए-हस्ती (आपबीती) : 2006
• उर्दू अदब में देहली ख़वातीन का हिस्सा : 2006
• बे खतर कूद पड़े (मैदान तंज़-ओ-मज़ाह में हम) : 2010
• हमारी जामिया (तालीमी तहज़ीबी और समाजी सागा) : 2013
• सालिहा आबिद हुसैन (मोनोग्राफ) : 2013
• तस्बीह-ए-रोज़-ओ-शब(सालिहा आबिद हुसैन की डायरी : 2013
• अगर मुझ से मिलना है (मुन्तखब अफ़्साने) : 2014
• हमारी जामिया
• बच्चों की आपा-जान (बच्चों के लिए) : 2014
सन्दर्भ स्रोत : ‘क्लेरिअन डॉट नेट’ पर प्रकाशित सईदा हमीद का लेख और ‘द खिचड़ी ब्लॉग’ पर प्रकाशित अबू तुरब नक़वी के लेख एवं सुघरा जी की भतीजी अज़रा नकवी से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित
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