डॉ. रश्मि झा - जो दवा और दुष्प्रभाव

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डॉ. रश्मि झा - जो दवा और दुष्प्रभाव
के बिना करती हैं लोगों का इलाज 

छाया : स्व संप्रेषित

• सीमा चौबे 

भारत में आयुर्वेदिक चिकित्सा और चीन में एक्यूप्रेशर और एक्यूपंक्चर पुरातन पद्धतियां हैं, जो आज भी उतनी ही कारगर है, जितनी प्राचीन काल में थीं। भोपाल की डॉ. रश्मि झा ने इनके मेल से अनगिनत लोगों को सेहतमंद बनाया है। उन्होंने न केवल शहरी मरीजों, बल्कि दूरस्थ जंगलों और आदिवासी इलाकों में भी स्वास्थ्य सेवाएं दी हैं। उन्होंने दवा और दुष्प्रभाव के बिना उपचार की एक नई दिशा प्रस्तुत की। बस्तर के राजगुरु परिवार की इस सदस्य के लिए यह पहचान पाना आसान नहीं रहा। पारंपरिक मूल्यों, सामाजिक दबाव और पेशेवर चुनौतियों के बीच उन्होंने अपनी राह खुद बनाई।

बचपन से मिली प्रेरणा

12 अक्टूबर 1953 को मंडला जिले में जन्मी रश्मि के माता-पिता स्व. काली दत्त झा और स्व. प्रतिभा झा शिक्षा और सेवाभाव के संस्कारों से संपन्न थे। सरकारी नौकरी में माता-पिता के बार-बार तबादलों के कारण रश्मि जी की शिक्षा अलग-अलग शहरों भोपाल, जगदलपुर  और दुर्ग में हुई। बचपन से ही उन्हें प्रकृति और वैकल्पिक चिकित्सा की ओर गहरी रुचि थी। बस्तर की हरियाली और आदिवासी जीवनशैली ने उनके भीतर प्राकृतिक उपचार के बीज बो दिये। मज़ेदार बात यह कि एक कैलेंडर पर छपे आयुर्वेदिक चूर्ण के विज्ञापन ने बचपन में ही उन्हें यह संकल्प दिला दिया था कि “मैं बड़ी होकर चूरन वाली डॉक्टर बनूँगी।” और यह संकल्प उन्होंने पूरा का दिखाया। दुर्ग से आयुर्वेद में स्नातक करने के बाद उन्होंने चीन के ग्वांगझू  ट्रेडिशनल चाइनीज मेडिसिन यूनिवर्सिटी से एक्यूपंक्चर में डिप्लोमा हासिल किया। बचपन से ही रामकृष्ण मिशन से जुड़े चाचा के बहुत करीब रहने के कारण मिशन और विवेकानंद साहित्य ने उनके जीवन को सेवाभाव और आध्यात्मिकता की दिशा दी।

संघर्ष और शुरुआत

बीएएमएस (उस समय एवीएमएस) के बाद जब वे भोपाल में श्री आयुर्वेद महाविद्यालय में अध्यापन से जुड़ीं, तभी राज्य लोक सेवा आयोग के जरिये उनका चयन हुआ, लेकिन नियुक्तियां रद्द हो जाने से बड़ा झटका लगा लेकिन निराशा के क्षणों में भी उन्होंने हार नहीं मानी और जगदलपुर लौटकर अपने पुश्तैनी मकान में आयुर्वेद से लोगों का उपचार करना शुरू कर दिया। राजगुरु परिवार से होने के कारण उन्हें समाज का सहज सहयोग मिला। बस्तर कलेक्टर ऋषिकेश मिश्रा के अस्थमा-पीड़ित बेटे के उपचार ने लोगों को चमत्कृत कर दिया। यहीं से उनकी ख्याति बढ़ी। धीरे-धीरे वे अधिकारियों और स्थानीय लोगों - दोनों की भरोसेमंद चिकित्सक बन गईं।

एक तरफ एक कुशल चिकित्सक के रूप में रश्मि जी का नाम हो रहा था तो दूसरी तरफ आकाशवाणी,जगदलपुर पर उनके आवाज़ श्रोताओं को मुग्ध कर रही थी। 1979 से 1984 तक वे ‘युववाणी’, ‘महिला सभा’ और ‘डॉक्टर से बातचीत’ जैसे लोकप्रिय कार्यक्रमों में श्रोताओं को आयुर्वेदिक उपचार की जानकारी देती रहीं। आदिवासी श्रोताओं के लिए वे हल्बी भाषा में जड़ी-बूटियों की पहचान और उनके उपयोग पर कार्यक्रम प्रस्तुत करती थीं। 1982 में जब निरस्त नियुक्तियाँ बहाल हुईं तो उनकी पदस्थापना कोंटा में आयुर्वेदिक चिकित्सा अधिकारी के रूप में हुई। इसके बाद वे महारानी अस्पताल, जगदलपुर में भी रहीं।

निजी जीवन और चुनौतियां 

रश्मि जी के करियर और निजी जीवन में सब कुछ उनके मन मुताबिक चल रहा था, तभी विवाह के प्रस्ताव आये, जो दहेज की मांग के कारण उन्होंने अस्वीकार कर दिये। लेकिन फूंक-फूंक कर कदम रखने वाली रश्मि जी की किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। बढ़ती उम्र बढ़ने और परिवार एवं समाज के दबाव ने माता-पिता को चिंतित कर दिया और उन्होंने बेटी से चर्चा किये बिना डॉ. स्वामी को पसंद कर लिया और रश्मि जी को भोपाल बुलवा लिया। डॉ. स्वामी उस समय भोपाल के प्रतिष्ठित डॉ. इन्साफ़ के साथ काम कर रहे थे और अपनी क्लिनिक भी चला रहे थे। डॉ. स्वामी का एक मित्र जो जगदलपुर में कार्यरत था, वह रश्मि जी के रुतबे और काबिलियत से भली भांति परिचित था। उसने अपने दोस्त से ये रिश्ता न ठुकराने की बात कही। 

मुलाकात के दौरान रश्मि ने डॉ. स्वामी से साफ़ कह दिया कि वे अपना मूल पेशा आयुर्वेद नहीं छोड़ेंगी, दूसरे - उन्हें घर के कामकाज का अनुभव भी नहीं है। डॉ. स्वामी ने उनकी हर शर्त मान ली तो रश्मि जी ने भी शादी के लिए सहमति दे दी। महज चार दिन में ही रिश्ता तय हो गया। इस बीच रश्मि जी के परिवार ने डॉ. स्वामी के बारे में और कोई जानकारी नहीं ली। फरवरी में यह रिश्ता तय हुआ और जल्दबाजी में 10 मार्च,1984 को विवाह संपन्न हो गया।

ससुराल में पहले ही दिन रश्मि के सामने अपने जीवनसाथी की असलियत उजागर हो गई। पता चला कि डॉ. स्वामी महज नाम के ही डॉक्टर थे। उदास मन से उन्होंने वैवाहिक जीवन की शुरुआत की। अपना दुःख उन्होंने जब चाचा को बताया, तो वही समझाइश मिली कि शादी एक पवित्र रिश्ता है, इससे  समझौता करना ही पड़ेगा वगैरह वगैरह। राजगुरु परिवार की बेटी, जिसने पहले कभी पानी का गिलास भी नहीं भरा था, अब ससुराल में रसोई और छोटे-बड़े काम संभालने लगी। उसी साल उनका तबादला भोपाल के विधायक विश्राम गृह में चिकित्सा अधिकारी के पद पर हो गया। पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ वे नौकरी करती रहीं। लेकिन पति की झूठी डिग्री का मामला उनके लिए एक गंभीर तनाव का कारण बन गया। 

दरअसल, डॉ. स्वामी ने उन्हें धमकी दी थी कि यदि यह बात किसी को बताई गई तो वे आत्महत्या कर लेंगे। इस कारण रश्मि जी अपने माता-पिता को इस बारे में कुछ भी नहीं बता सकीं। ससुराल में उन्हें लगातार पाबंदियों और यातनाओं का सामना करना पड़ा। एक बार बहुत छोटी सी बात पर उन्हें मारपीट का शिकार होना पड़ा, जिससे पूरे शरीर में सूजन और नीले-नीले निशान पड़ गये। उस दिन उन्हें महसूस हुआ कि यह जीवन अब असहनीय हो गया है। संयोगवश उसी दिन उनकी माँ ने ड्राइवर के साथ कुछ सामान भेजा। इस अवसर का उपयोग करते हुए रश्मि अपने मायके लौट आईं। उनके माता-पिता ने भी उन्हें ससुराल वापस भेजने से साफ़ मना कर दिया। उन्होंने तय किया कि बेटी को लौटने के लिए मजबूर नहीं किया जायेगा। इसके बाद रश्मि जी ने अपने अधिकार और सुरक्षा के लिए तलाक की अर्जी दाखिल की और 1988 में तलाक हासिल किया।

नया जीवन, नई राहें

तलाक के बाद रश्मि जी ने अपनी प्रैक्टिस फिर से शुरू की और भोपाल में डॉ. एस.के. जैन से एक्यूपंक्चर की बारीकियां सीखीं। डॉ. जैन के साथ उन्होंने कई स्वास्थ्य शिविरों में भाग लिया और रोगियों की सेवा की। इसी बीच उन्हें सरकारी आवास भी मिल गया, जिससे स्थायित्व मिला। अब उन्होंने आयुर्वेद के साथ-साथ उन्होंने स्वतंत्र रूप से एक्यूपंक्चर में भी काम करना शुरू कर दिया।

अंतरराष्ट्रीय आयाम और चीनी चिकित्सा का अनुभव

रश्मि जी का करियर सिर्फ भारत तक सीमित नहीं रहा। उन्हें भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय और चीन सरकार के सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम के अंतर्गत एक प्रतिष्ठित फैलोशिप प्राप्त हुई। इसके तहत उन्होंने चीन में पारंपरिक चिकित्सा और विशेष रूप से एक्यूपंक्चर का गहन अध्ययन किया। वे बताती हैं कि जब वे 1994 में चीन पहुंचीं तो उन्हें मंदारिन का एक भी अक्षर नहीं आता था। यह भाषा अत्यंत कठिन थी, शुरू में तो लगता था कि इसे सीख पाना संभव ही नहीं होगा, लेकिन खुशकिस्मती से उनकी अध्यापिका भारत स्थित चीनी दूतावास में रह चुकी थीं। उन्होंने भाषा सीखने में रश्मि जी की बहुत मदद की। उन्होंने स्थानीय लोगों से संवाद स्थापित किया, बातचीत की पहल की और धीरे-धीरे भाषा की कठिनाइयां आसान होने लगीं। इस तरह रश्मि ने वर्ष 1994–1995 में बीजिंग लैंग्वेज एंड कल्चर यूनिवर्सिटी से चीनी भाषा में डिप्लोमा लेकर 1995 से 1997 तक गुआंगज़ौ (Guangzhou) यूनिवर्सिटी ऑफ़ ट्रेडिशनल चायनीज़ मेडिसिन से पारंपरिक चीनी चिकित्सा पद्धति और एक्यूपंक्चर का गहन अध्ययन किया। 

इस दौरान विश्वविद्यालय में आयोजित अंतरराष्ट्रीय एक्यूपंक्चर सम्मेलन में उन्होंने शोधपत्र प्रस्तुत किया। इसके अलावा अपने गुरु प्रो. ली ताओशान की लिखी चीनी भाषा की 2 एक्यूपंक्चर पुस्तकों - 'लाइन ऑफ़ ट्रीटमेंट' और 'प्रिंसिपल ऑफ़ एक्यूपंक्चर' का अंग्रेज़ी अनुवाद भी किया। इतना ही नहीं, प्रो. ली ताओशान ने इन पुस्तकों के आवरण पर रश्मि जी का छायाचित्र प्रकाशित कर उनकी भूमिका और योगदान को विशेष सम्मान दिया।

गैस त्रासदी से उपजे अस्थमा का चीन में उपचार

भोपाल गैस त्रासदी में रश्मि जी भी प्रभावित हुईं और उन्हें लंबे समय तक अस्थमा जैसी गंभीर बीमारी से जूझना पड़ा। प्रारंभिक इलाज डॉ. एस.के. जैन से कराया, परंतु पूर्ण स्वास्थ्य उन्हें चीन में अपने गुरुओं की चिकित्सा पद्धति से मिला। वे याद करती हैं - “चीन प्रवास के दौरान अमेशन पर्वत की बर्फीली चोटियों पर मुझे हिमदंश (फ्रॉस्ट बाइट) हो गया। ठंड की मार इतनी गहरी थी कि पैर काटने की नौबत आ गई। लेकिन मेरे गुरुओं ने चिकित्सा से न केवल मुझे बचा लिया, बल्कि अपने पैरों पर खड़ा भी कर दिया।”

चीन प्रवास के तीन वर्षों में रश्मि जी ने अपने अवकाश के दिनों का भरपूर उपयोग किया। वे केवल कक्षाओं और अध्ययन तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि चीन को नज़दीक से जानने-समझने के लिए उन्होंने पूरे देश की यात्राएं कीं, उनसे प्राप्त अनुभव उनके लिए समृद्ध सांस्कृतिक व शैक्षणिक धरोहर साबित हुआ। वर्ष  2010 में उन्होंने चीन प्रवास के संस्मरण ‘चीन के वे दिन’ शीर्षक से प्रकाशित किए उसका मराठी अनुवाद 2023 में आया। इस पुस्तक को मप्र साहित्य अकादमी और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा पुरस्कृत किया गया।

राजभवन में सेवा

अपने चिकित्सकीय अनुभव और समर्पण के कारण रश्मि जी को मानद चिकित्सक के रूप में राजभवन में सेवा का अवसर मिला। यहाँ उन्होंने राज्यपाल श्री मोहम्मद शफी कुरैशी, राज्यपाल डॉ. भाई महावीर और राज्यपाल श्री बलराम जाखड़ जैसी शख्सियतों को चिकित्सकीय सेवाएं प्रदान कीं। उनके पेशेवर जीवन का इस गौरवशाली अध्याय ने उनकी पहचान को और भी मजबूत किया।

बिना दवा स्वास्थ्य सेवा – एक अनोखा प्रयोग

रश्मि जी ने आयुर्वेद और एक्यूपंक्चर के साथ-साथ एक्यूप्रेशर चिकित्सा को जन-जन तक पहुँचाने का अनूठा प्रयास किया। उन्होंने “बिना दवा स्वास्थ्य सेवा” नामक पुस्तक लिखी, जिस पर आधारित एक फ़िल्म भी वालंटियर हेल्थ एसोसिएशन ऑफ इंडिया (VHAI) ने तैयार की। इस पुस्तक और फिल्म की मदद से मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यशालाएं आयोजित की गईं। पत्थलगांव में तो वे दो सप्ताह तक ठहरीं और करीब सौ कार्यकर्ताओं को सिखाया कि किस तरह बिना दवा, केवल एक्यूप्रेशर के माध्यम से स्वस्थ रहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त भोपाल, उज्जैन, मांडू और ग्वालियर में भी उन्होंने स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण शिविर लगाए।

वर्ष 1997 से 2013 तक पंडित खुशीलाल आयुर्वेद महाविद्यालय से संबद्ध जिला आयुर्वेद चिकित्सालय भोपाल में रहते हुए उन्होंने बीएएमएस इंटर्न छात्रों को भी एक्यूप्रेशर चिकित्सा से प्रशिक्षित किया। इस समय वे भदभदा स्थित अपने क्लिनिक में मरीजों का इलाज कर रही हैं। वे आधुनिक जीवनशैली में प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों को अपनाने की प्रेरणा देती हैं, ताकि लोग स्वस्थ, ऊर्जावान और तनाव मुक्त जीवन जी सकें। इतना ही नहीं वे अपने फार्म हाउस में औषधीय जड़ी-बूटियों की खेती भी करती हैं  जिससे उपचार में स्वदेशी और प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग हो सके। लगभग पाँच वर्ष पूर्व उन्होंने अपनी माँ की स्मृति में मुक्ताकाश मंच  'प्रतिभा वीथी' की स्थापना की, जहां समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं।

 

सम्मान एवं उपलब्धियाँ

•  1997 – गुआंगज़ौ विश्वविद्यालय (चीन) द्वारा सर्वश्रेष्ठ छात्रा के रूप में सम्मानित

•  2000 – आयुर्वेद के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य हेतु “वैद्य उद्धवदास मेहता सम्मान” से अलंकृत

•  कलकत्ता – एक्यूपंक्चर के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए विशेष सम्मान प्राप्त

•  2022 – 'विज़्डम ऑफ वूमन (WOW)' ग्रुप द्वारा देशभर की आयुर्वेदिक महिला चिकित्सकों में से एक को चुनकर लाइफटाइम अचीवमेंट राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित

•  N.I.M.A (National Integrated Medical Association) की अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहीं

सन्दर्भ स्रोत : डॉ. रश्मि झा से सीमा चौबे की बातचीत पर आधारित 

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