रीता भादुड़ी

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रीता भादुड़ी

छाया : अमर उजाला

प्रतिभा - टेलीविजन, सिनेमा और रंगमंच

• शिशिर कृष्ण शर्मा

हिन्दी फिल्मों की मशहूर चरित्र अभिनेत्री, गुजराती सिनेमा की लोकप्रिय नायिका और छोटे परदे की सम्राज्ञी रीता भादुड़ी के बारे में यह धारणा आम है कि वे जया भादुड़ी की बहन हैं, लेकिन हक़ीक़त में ऐसा नहीं है। दरअसल जया भादुड़ी की बहन का नाम भी रीता है, लेकिन वे एक अलग शख्सियत हैं। रीता भादुड़ी के पिता श्री रमेशचंद्र भादुड़ी तत्कालीन अंग्रेज़ी सरकार में जागीरों के कमिश्नर थे और नौकरी के सिलसिले में उनका अधिकांश समय मध्यभारत की विभिन्न रियासतों में गुज़रता था। लेकिन एक समय ऐसा आया कि स्थायित्व के लिए उन्हें इंदौर शहर में बस जाना पड़ा। वहीं 11 जनवरी 1950 को रीता जी का जन्म हुआ। 3 बहनों और 1 भाई के परिवार में वे सबसे छोटी थीं।

बातचीत के दौरान रीता जी ने मुझे बताया था, “1950 के दशक के मध्य में हम लोग मुम्बई घूमने आए। ये शहर हमें इतना पसंद आया कि 1957 में इंदौर छोड़कर हम मुम्बई में ही बस गए। मुम्बई में उनकी मां चंद्रिमा भादुड़ी को हिन्दी पत्रिका ‘नवनीत’ में उपसम्पादक की नौकरी मिल गई। मुम्बई के बंगाली परिवारों से संपर्क हुआ तो हम लोग दुर्गापूजा के दौरान होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे।  ऐसे ही एक कार्यक्रम के दौरान हुए नाटक में उस ज़माने के मशहूर निर्देशकों नितिन बोस और बिमल रॉय ने मेरी मां को अभिनय करते देखा तो उन्हें अपनी फिल्मों क्रमश: ‘नर्तकी’ और ‘बंदिनी’ में ले लिया। ये दोनों ही फ़िल्में 1963 में रिलीज़ हुई थीं। फिल्म ‘बंदिनी’ में जेल वार्डन के किरदार से मां को पहचान मिली और वो फिल्मों में व्यस्त होती चली गयीं। आगे चलकर उन्होंने ‘तीसरा कौन’, ‘रिश्ते-नाते’, ‘शराफ़त’, ‘सावन भादों’, ‘नन्ही कलियां’, ‘लाल पत्थर’ और ‘आनंद आश्रम’ जैसी क़रीब 30 फिल्मों में काम किया।”

अपनी मां की ही तरह रीता जी का भी रूझान अभिनय की तरफ़ था। वो कॉलेज के ज़माने से ही नाटकों में काम करती आ रही थीं। साल 1971 में उन्होंने फ़िल्म इंस्टिट्यूट, पुणे में दाखिला ले लिया जहां पार्श्वगायक शैलेन्द्र सिंह, शबाना आज़मी और कंवलजीत जैसे कलाकार उनके बैचमेट थे। शबाना तो उनकी गहरी दोस्त भी थीं। दो साल का पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद रीता जी को पहली फिल्म मिली ‘आईना’। इस फिल्म के निर्देशक के.बालाचंदर और नायक राजेश खन्ना और नायिका मुमताज़ थे, संगीत नौशाद का था। ये फिल्म 1974 में बनी थी। उन्हीं दिनों फिल्म इंस्टिट्यूट के अपने एक बैचमेट मोहन शर्मा के ज़रिये रीता भादुड़ी की मुलाक़ात साउथ के जाने-माने निर्देशक सेतुमाधवन से हुई।उन्होंने रीता जी को अपनी मलयालम फ़िल्म ‘कन्याकुमारी’ की मुख्य भूमिका के लिए चुन लिया। इस फिल्म में रीता भादुड़ी के हीरो कमल हासन थे। इसके बाद जब सेतुमाधवन ने अपनी मलयाली फिल्म ‘चट्टकारी’ पर हिन्दी में ‘जूली’ बनाई तो उसकी एक अहम भूमिका रीता भादुड़ी को ऑफ़र की।

रीता जी का कहना था, “फिल्म ‘जूली’ और इसका संगीत सुपरहिट हुए। इस फिल्म का गाना ‘ये रातें नयी पुरानी, कहती हैं कोई कहानी’ मुझ पर फिल्माया गया था। लेकिन ‘जूली’ में मैंने बहन की भूमिका क्या की कि चरित्र अभिनेत्री ही बनकर रह गई। ‘उधार का सिन्दूर’, ‘प्रतिमा और पायल’, ‘अनुरोध’ जैसी कुछ फिल्मों में मैंने चरित्र भूमिकाएं निभाईं। फिर अचानक ही कुछ ऐसा हुआ कि मैं गुजराती फिल्मों की अव्वल दर्जे की नायिका बन गई।” दरअसल अपने बैचमेट परेश मेहता के ज़रिये रीता जी की मुलाक़ात गुजराती सिनेमा की जानी-मानी हस्तियों – दिगंत ओझा और निरंजन मेहता से हुई जिन्होंने रीता जी को अपनी गुजराती फिल्म ‘लाखों फूलाणी’ में हिरोईन की भूमिका में साईन कर लिया। 1976 में रिलीज़ हुई ये फिल्म सुपरहिट हुई और रीता भादुड़ी गुजराती फिल्मों में व्यस्त होते-होते शिखर पर पहुंच गईं।

रीता जी के अनुसार गुजराती फिल्मों में उनकी ये व्यस्तता लगातार 8 सालों तक बनी रही। हालात यहां तक पहुंच गए कि उन्हें वडोदरा में ही बस जाना पड़ा। उस दौर में बनी ‘कुलवधू’, ‘दीकरी अने गाय दोरे आ त्यां जाय’, ‘काशीनो दीकरो’, ‘दियर भोजाई’, ‘अखंड चूड़लो’, ‘जाग्या त्यांथी सवार’, ‘गरवी नार गुजरातण’, ‘अलख निरंजन’, ‘जुगल जोड़ी’, ‘पीठी पीली ने रंग रातो’, ‘साचुं सुख सासरियामां’, ‘कंकुनी किंमत’, ‘माना आंसुं’, ‘मा मने सांभरे छे’ जैसी उनकी ज़्यादातर गुजराती फ़िल्में हिट रहीं। रीता भादुड़ी का कहना था, “तमाम व्यस्तताओं के बीच मेरे करियर ने अचानक ही एक नया मोड़ ले लिया। साल 1984 में निर्माता-निर्देशक राकेश चौधरी वडोदरा आकर मुझसे मिले। टी.वी. धारावाहिकों का दौर उस वक़्त अपने शुरुआती चरण में था। राकेश चौधरी ने मुझे दूरदर्शन धारावाहिक ‘बनते-बिगड़ते’ में एक अहम भूमिका दी, जिसके जरिए कारण मैं छोटे परदे पर आई और फिर इस क्षेत्र में भी व्यस्त होती चली गयी।”

रीता भादुड़ी ने ‘खानदान’, ‘मुजरिम हाज़िर’, ‘तारा’, ‘कुमकुम’, ‘संजीवनी’, ‘हद कर दी’, ‘एक महल हो सपनों का’, ‘भागोंवाली’, ‘एक नयी पहचान’ जैसे बेशुमार टी.वी. धारावाहिकों में काम किया और इस तरह वो हर घर में एक जाना-पहचाना चेहरा बन गयीं। निधन के समय भी उनका धारावाहिक ‘निमकी मुखिया’ ‘स्टार भारत’ चैनल पर प्रसारित हो रहा था, जिसमें वे दादी की भूमिका निभा रही थीं। टी.वी के साथ साथ वो ‘युद्धपथ’, ‘बेटा’, ‘आतंक ही आतंक’, ‘घरजमाई’, ‘रंग’, ‘कभी हां कभी ना’, ‘राजा’ और ‘विरासत’ जैसी फ़िल्में भी करती रहीं। उन्होंने आधा दर्जन ऐसी फ़िल्मों में भी काम किया, जो कभी परदे पर आ ही न सकीं 1995 में बनी फ़िल्म राजा में सर्वश्रेष्ठ सहयोगी भूमिका के लिए रीता जी को फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाज़ा गया था।

रीता जी की सबसे बड़ी बहन राका मुकर्जी थीं, जिनके पति बरून मुकर्जी एक जाने-माने कैमरामैन हैं। ‘चक्र’ और ‘गहराई’ से लेकर ‘बागबान’ और ‘बाबुल’ तक जैसी फ़िल्में बरुन जी के खाते में दर्ज हैं। रूमा जी से छोटे रणदेव भादुड़ी गुजराती फिल्मों के जानेमाने कैमरामैन हैं और वडोदरा में रहते हैं। राका मुकर्जी से छोटी रूमा सेनगुप्ता टाइम्स ऑफ़ इंडिया और उसकी सहयोगी पत्रिका में उपसंपादक रहीं 1971 में बनी फ़िल्म नन्ही कलियाँ में उन्होंने अभिनय भी किया था। इसके तीन दशक बाद वे धारावाहिक कहीं किसी रोज़ में नज़र आईं। 2010 में बनी फ़िल्म न घर के न घाट के में उन्होंने दादी की भूमिका अदा की थी। 12 जुलाई 1913 को उनका निधन हो गयाI रूमा जी के पति शंकर सेनगुप्ता एक विज्ञापन एजेंसी में अधिकारी थे जो अब कोलकाता में रहते हैं।

रीता जी आजीवन अविवाहित रहीं, वे बहुत ही जिंदादिल इंसान थीं। गुर्दों की कमज़ोरी के चलते हर दूसरे दिन उन्हें डायलिसिस के लिए जाना पड़ता था, लेकिन तब भी उनका हौसला कायम रहा और उन्होंने काम करना नहीं छोड़ा। वे कहा करती थीं कि ‘बुढ़ापे में होने वाली बीमारियों के डर से क्या काम करना छोड़ देंगे। मुझे काम करना पसंद है, हर वक्त अपनी सेहत के बारे में सोचना पसंद नहीं इसलिए भी मैं खुद को व्यस्त रखती हूं। मैं भाग्यशाली हूं कि मुझे इतनी अच्छी टीम मिली है जो हमेशा बेहतर काम करने के लिए प्रेरित करती है।’ लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था रीता जी एक शूटिंग के दौरान गिर गईं जिससे उनकी रीढ़ की हड्डी पर गहरी चोट लगी। दुर्भाग्यवश, उन्हें संक्रमण हो गया और एक और ऑपरेशन कराना पड़ा। वे बहुत तकलीफ़ में थीं क्योंकि डायलिसिस पर होने के कारण दर्दनिवारक दवाएं नहीं ले सकती थीं। अंतत: 17 जुलाई 2018 को वे अनंत यात्रा पर चली गईं।

लेखक हिन्दी सिनेमा के मशहूर इतिहासकार हैं। मूल आलेख उनके ब्लॉग ‘बीते हुए दिन’ से लिया गया है,
उसमें कुछ अंश अख़बारों और चैनलों की वेबसाइट्स से लेकर जोड़े गए हैं।

© मीडियाटिक

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