छाया : ज़ेहरा कागज़ी
• राकेश दीक्षित
• घुड़सवार होने के साथ भाला फेंकने और तलवारबाज़ी में भी थीं निपुण
• अंग्रेज़ों के खिलाफ मराठों के युद्ध में पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ीं
• काशी ‘विश्वनाथ मन्दिर’ का जीर्णोद्धार और इसी मन्दिर में ‘ज्ञानवापी मण्डप’ का निर्माण करवाया
आम तौर माना जाता है कि ग्वालियर की सिंधिया रियासत ब्रितानी हुक़ूमत की दोस्त और मददगार रही थी। 1857 की सिपाही बगावत के इतिहास में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को महान देशभक्त योद्धा होने का गौरव मिला तो उसके विपरीत ग्वालियर की सिंधिया राजशाही पर अंग्रेज़ों का पिठ्ठू होने का कलंक लगा। लेकिन कम ही लोगों को पता होगा कि सिंधिया ख़ानदान में भी एक ऐसी महिला शासक थी जिसने अंग्रेज़ों से लोहा लिया था। उनका नाम था बैज़ाबाई शिंदे ( सिंधिया ) जो दौलतराव शिंदे की तीसरी पत्नी थीं। वर्ष 1784 में कोल्हापुर के कागल में जन्मी बैज़ाबाई ने अपने पति की मृत्यु के बाद बतौर रीजेंसी ग्वालियर रियासत की बागडोर सम्हाली। 1833 में बैज़ाबाई के दत्तक पुत्र जनकोजी राव सिंधिया ने उनसे गद्दी छीन ली।
बैज़ाबाई के पिता सखाराम घाटे, भोंसले साम्राज्य के कुलीन देशमुख ख़ानदान के सदस्य और कोल्हापुर में जागीरदार थे। कोल्हापुर पर नागपुर की भोंसले रियासत का नियंत्रण था। बैज़ाबाई जब 14 वर्ष की थीं तभी 1798 में पूना में उनका दौलतराव सिंधिया से विवाह हुआ। वे शानदार घुड़सवार होने के साथ भाला फेंकने और तलवारबाज़ी में भी निपुण थीं। अंग्रेज़ों के खिलाफ मराठों के युद्ध में बैज़ाबाई अपने पति के साथ कंधे से कन्धा मिलकर मैदान में लड़ीं। अंग्रेजी सेना की अगुवाई आर्थर वेस्ले कर रहे थे जो बाद में वेलिंग्टन के ड्यूक बने। शासन और प्रशासन के कामकाज में भी महारानी पति का हाथ बंटाती थीं। अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर बैजाबाई ने कई रिश्तेदारों को सिंधिया रियासत में महत्वपूर्ण पद दिलाये। उनके पिता ग्वालियर के दीवान नियुक्त हुए।
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दूसरे अंग्रेज -मराठा युद्ध में सिंधिया की पराजय हुई और दौलतराव को ईस्ट इंडिया कंपनी से संधि के लिए विवश होना पड़ा। संधि की शर्त के मुताबिक बैज़ाबाई को दो लाख रुपये प्रतिवर्ष देना तय हुआ। लेकिन ,कहा जाता है कि उनके पति ने बैज़ाबाई की संपत्ति हथिया ली। अपने पिता की तरह बैज़ाबाई अंग्रेज़ों के साथ मेलजोल के ख़िलाफ़ थीं। इस वजह से उनकी दौलत राव से अनबन भी रही। वे चाहती थीं कि पिंडारियों के विरुद्ध ईस्ट इंडिया कंपनी के अभियान में सिंधिया अंग्रेज़ों के बजाय बाजीराव पेशवा द्वितीय का साथ दें। जब दौलतराव ने अंग्रेज़ों के सामने हथियार डाल दिए तो बैज़ाबाई ने पति पर कायर होने का आरोप लगाया और कुछ समय के लिए ग्वालियर से बाहर रहीं। वे अजमेर अंग्रेज़ों को दिए जाने के सिंधिया राजशाही के फैसले के भी सख़्त खिलाफ थीं।
वर्ष 1809 में बैज़ाबाई के पिता ने किसी तरह ग्वालियर रियासत में दोबारा पैठ बना लीं। रियासत के अनेक प्रभावशाली सूबेदार सखा राव को नापसंद करते थे। अंततः वे अपने ही दामाद दौलतराव के हाथों मारे गए। बैजाबाई योद्धा होने के अलावा साहूकार भी थीं। ईस्ट इंडिया कंपनी की साहूकारी के जरिये देसी रियासतों में प्रभाव बढ़ाने की साजिशों को बैज़ाबाई ने अपना बैंक स्थापित कर के मुकाबला किया। उन दिनों उज्जैन साहूकारी का बड़ा केंद्र था। बैज़ाबाई ने वहां नाथजी किशनदास और नाथजी भगवानदास नामक दो बैंक स्थापित किए और वहां के वित्तीय प्रबंधन पर पूरा नियंत्रण कर लिया।
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21 मार्च 1827 को दौलतराव का देहांत हो गया। मौत से पहले महाराज ने ग्वालियर के अंग्रेज रेज़िडेंट से कहा था कि महारानी ही उनकी उत्तराधिकारी बने। लेकिन राजशाही को सिंधिया ख़ानदान से ही पुरुष उत्तराधिकारी चुनने का दबाव बढ़ने लगा। बैज़ाबाई और उनके भाई हिंदुराव की तमाम कोशिशों के बाद भी ग्वालियर सिंधिया खानदान से इतर कोई उत्तराधिकारी स्वीकार करने को तैयार नहीं था। आखिरकार 17 जून 1827 को 11 -वर्षीय मुकुलराव को दत्तक पुत्र के रूप में अपनाने के लिए बैज़ाबाई मजबूर हो गईं। उत्तराधिकारी को जनकोजी राव नाम दिया गया। जनकोजी राव के वयस्क होने के बाद उनका दर्जा रीजेंट से घटाकर राजमाता का कर दिया गया। तब से माँ और दत्तक पुत्र के आपसी सम्बन्ध बिगड़ते चले गए। राजशाही में उनका वर्चस्व लगातार कम होता गया। वे उज्जैन, नासिक और अन्य स्थानों पर घूमती रहीं। हालाँकि पैसे की उनके पास तब भी कमी न थी।
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वर्ष 1843 में जनकोजी राव की मृत्यु के बाद बैज़ाबाई के हाथ ग्वालियर पर राज करने का एक मौका आया। वे अपनी नातिन का विवाह ग्वालियर के उत्तराधिकारी जयाजी राव से कराने में सफल हुईं। अनेक वर्ष उज्जैन में बिताने के बाद 1856 में वे ग्वालियर लौटीं। 1857 की बगावत के दौरान बैज़ाबाई ने अंग्रेज़ों से हाथ मिलकर सिंधिया खानदान को संभावित मार काट से सुरक्षित कर लिया। वर्ष 1863 में 79 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। बैज़ाबाई के समय में कुछ निर्माण कार्य भी हुए। काशी ‘विश्वनाथ मन्दिर’ का जीर्णोद्धार अहिल्याबाई ने करवाया, जबकि इसी मन्दिर में एक ‘ज्ञानवापी मण्डप’ का निर्माण बैज़ाबाई द्वारा करवाया गया। वाराणसी में गंगा किनारे ‘सिंधिया घाट’ का निर्माण उन्होंने 1830 ई. कराया था।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
© मीडियाटिक
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