• वेदप्रकाश नगायच
मध्यप्रदेश ऐसे कई प्राचीन बौद्ध विहार एवं स्तूप हैं जिनकी दीवारों पर जातक कथाएँ उकेरी हुई हैं। बौद्ध साहित्य में जातक कथाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। इनमें बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियां वर्णित हैं। इन चित्रों के कारण आज भी ये कथाएँ जनमानस की स्मृतियों में सुरक्षित हैं।
भरहुत (सतना)
रानी सुमना की कहानी-एक मुंडेर के सिरदल में ऊपर एवं नीचे का भाग भग्न है। ऊपर चार कदम्ब के फूल जिनमें दो भग्न हैं एवं उनकी पत्तियां दर्शित हैं। बांयी ओर कटहल का एक फल व पत्ती अंकित है। बीच में जातक कथा का दृश्य है- राजा सुसज्जित आसन पर बैठा है तथा दायें हाथ को ऊपर उठाकर सामने खड़ी नारी को अभयदान दे रहा है। राजा गले में माला, हार, कानों में कुंडल, हाथों में कंगन, सिर पर लट्टूदार पगड़ी धारण किए है। राजा का चेहरा भग्न होने से पूर्णत: स्पष्ट नहीं, परन्तु शेष बचे आधार पर दयाभाव प्रतीत होता है। राजा का बायां हाथ जंघा पर है। उनके सामने सर्पफण युक्त पगड़ी धारण किए हुए नारी भयभीत मुद्रा में दोनों हाथ ऊपर उठाए खड़ी है। नारी के केश कंधे पर लहरा रहे हैं। वह कुंडल, चौलड़ी हार, कड़े, कटिमेखला एवं अधोवस्त्र धारण किए है। नारी के बगल में रखी पिटारी में पंचफण युक्त सर्पराज शांत मुद्रा में नीचे को फण किए हुए अंकित हैं। नारी के पीछे सपेरा हाथ में नाग की पिटारी का ढक्कन लिए खड़ा है। सपेरा लट्टूदार पगड़ी, कुंडल एवं अधोवस्त्र धारण किए है। इसके ऊपरी भाग में सोपान आसन एवं नील कमल का अंकन है।
इस जातक कथा का अभिज्ञान ‘चम्पेय जातक’ से किया गया है। इस कथा को प्रथम बार भरहुत कला में पहचाना गया है। सज्जित आसन पर बनारस के राजा उग्रसेन बैठे हैं। उनके समीप आभूषणों से सुसज्जित नागरानी सुमना, सपेरा एवं सांप (नागराज चंपक) दर्शाए गए हैं। रानी सुमना परेशान हैं, परन्तु राजा उग्रसेन अपना दायां हाथ उठाकर उन्हें अभयदान दे रहे हैं। रानी सुमना नाग के रूप में अपने पति (जो भावी बुद्ध हैं) को सपेरे के शिकंजे से छुड़ाना चाहती है। इस दृश्य में नागराज अपनी पत्नि सुमना को देखकर लज्जित हो रहे हैं और सपेरे की टोकरी के नीचे खिसक रहे हैं। टोकरी का ढक्कन सपेरे के पास है। जातक कथा के अनुसार अंत में सांप राजा के द्वारा रानी को सौंप दिया जाता है।
इन्हें भी पढ़िये -
महाजनक जातक कथा– इस जातक में महाजनक और उसकी पत्नि सीवली की कथा है। महाजनक वैरागी होकर राजपाट छोड़कर चले गए। सीवली भी उनकी अनुवर्तिनी हुई जो राजा को उचित नहीं प्रतीत हुआ। भिक्षा मांगते हुए महाजनक एक इषुकारक (बाणकार) के घर पहुंचे। उसकी एकाग्रता से प्रभावित होकर उन्होंने यह शिक्षा ग्रहण की कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए एकाग्रता ही सारपूर्ण है। कथा के अंकन में इषुकारक बैठा हुआ बाण (शर) निर्माण में रत है, सामने राजा-रानी खड़े हैं और दो अन्य व्यक्ति अंकित हैं।
महाउम्मग जातक कथा– इस कथा में बोधिसत्व विदेह राज के परामर्शदाता हैं। उनकी सम्मानपूर्ण स्थिति से ईर्ष्याग्रस्त चार अन्य अमात्य राजा के रत्न चुराकर उनकी पत्नी अमरा को दे देते हैं। बोधिसत्व शंकावश भयभीत होकर भाग जाते हैं। किंतु अमरा यत्नपूर्वक चारों अमात्यों को टोकरी में बंद कर राजा के समक्ष उपस्थित करती है और राजा के रत्न वापस कर अमात्यों के षडयंत्रों को प्रकट करती है।
अंकित दृश्य में राजा सिंहासन पर आसीन है। उसके एक ओर चंवरधारिणी सेविका है और पीछे चार अमात्य हैं। बायीं ओर अमरा खड़ी है। उसके साथ सेविका भी है। दो टोकरियां खुली हैं और अमरा संकेत कर रही है। तीसरे को एक सेवक खोल रहा है और चौथी टोकरी लाई जा रही है। इन अमात्यों के मुंडित हुए (घुटे हुए) सिर उनके अपमान के सूचक हैं।
इन्हें भी पढ़िये -
साँची (रायसेन)
छद्दन्त जातक कथा- यह जातक तीन सिरदलों पर प्रदर्शित है- दक्षिणी तोरण के पिछले भाग के बीच की सिरदल पर, पश्चिमी तोरणद्वार के सम्मुख भाग में सबसे नीचे के सिर दल पर और उत्तरी तोरणद्वार के पृष्ठभाग की सबसे ऊपरी सिरदल पर। यह जातक के दक्षिणी तोरणद्वार पर अंकित बहुत स्पष्ट एवं आकर्षक है। इसमें छद्दंत हाथी को बार-बार दिखाया गया है। दो बार मध्यवर्ती बरगद के पेड़ के नीचे, एक बार कमलवन में विहार करते हुए बायें किनारे पर और अंत में दायें किनारे पर जहां वह अकेला खड़ा व्याघ के बाणों का शिकार बना।
इस जातक कथा में बताया गया है कि बोधिसत्व छह दांतों वाले (छद्दंत) हाथी थे तथा वे महासुभद्दा तथा चुल्लसुभद्दा नामक दो हथिनियों के साथ रहते थे। चुल्लसुभद्दा अपनी सौत से अधिक प्रेम करने का सोचकर पति से द्वेष करने लगी। उसने प्रत्येक बुद्धों की पूजा की और वर मांगा कि वह वाराणसी के राजा की रानी बने और राजा से कहकर शिकारी भेजकर बोधिसत्व को मरवा दे। इस वर को प्राप्त कर उसने प्राण त्याग दिए। दूसरे जन्म में वह वाराणसी के राजा की रानी बनी। बीमारी का बहाना कर उसने राजा से अनुरोध किया कि वह सोनुत्तर नामक अपने व्याघ्र द्वारा छद्दन्त के दांतों को मंगवाए। बाणों से घायल होने पर छद्दन्त ने उस पर दया कर उसे अपने दांत काटने में मदद की। रानी के सामने जब कटे हुए दांत लाए गए तो वह उन्हें देख पश्चाताप से मर गयी।
इन्हें भी पढ़िये -
साम जातक कथा– पश्चिमी तोरणद्वार के उत्तरी स्तम्भ के भीतरी भाग पर ऊपर के फलक में बोधिसत्व साम की पितृभक्ति का प्रदर्शन है। फलक में ऊपर सोम के माता-पिता अपनी कुटिया के बाहर बैठे हैं। नीचे नदी में सोम कलसा (घड़ा) भर रहा है और नीचे व्याघ्र वेश में राजा के बाण से बिंधा सोम पड़ा है। इसके पास ही शोकातुर राजा की प्रतिमा अंकित है। ऊपरी कोने पर मुकुटधारी इन्द्र अमृतकलश लिए खड़े हैं। उनके साथ ही राजा, साम एवं उनके माता-पिता भी उपस्थित हैं। दृश्य में ऐसा दर्शाया गया है कि इन्द्र ने साम को जीवित किया और उनके माता-पिता को नेत्र ज्योति दी है।
कथानक यह है कि साम के माता-पिता सांप के डंसने से अंधे हो गए थे। साम ने अपना जीवन उनकी सेवा सुश्रुषा में अर्पण कर दिया। एक दिन जब वह नदी के जल में कलसा (घड़ा) भर रहा था तो शिकार के लिए निकले वाराणसी के राजा ने धोखे से जानवर समझ विष भरे तीर से मार गिराया। माता-पिता की दु:ख व पीड़ा से देवराज इन्द्र का हृदय द्रवित हो गया एवं उन्होंने साम को जीवित कर दिया तथा उसके माता-पिता की नेत्र ज्योति वापस आ गई।
लेखक जाने माने पुरातत्वविद हैं।
© मीडियाटिक
Comments
Leave A reply
Your email address will not be published. Required fields are marked *