छाया : प्रतीकात्मक चित्र
• सारिका ठाकुर
• विवाह में अफगानिस्तान के शाह ने उपहार में दिए थे अस्सी घोड़े
• पिता के पक्ष में अंग्रेजों का का किया विरोध
• होलकर राज्य की सीमा में घुसी अंग्रेजों की सेना का किया सामना।
• उनके युद्ध कौशल और सैन्य प्रबंधन से अंग्रेजों के खेमे में मच गई थी हलचल।
• उस समय जब स्त्रियां शमशान घाट नहीं जाती थीं, अपने पिता का किया था अंतिम संस्कार।
• पति की मृत्यु के बाद सती होना नहीं किया स्वीकार, न ही श्वेत वस्त्र धारण किये।
भीमा बाई की संघर्ष गाथा समझने के लिए होलकर वंश की पृष्ठभूमि समझना आवश्यक है। इस वंश की स्थापना मल्हारराव होलकर (प्रथम) ने की थी। उनकी कीर्ति को उनकी पुत्रवधु अहिल्याबाई ने आगे बढ़ाया। तुकोजी राव होलकर, अहिल्या बाई के शासनकाल में उनके सेनापति थे। अहिल्याबाई के देहांत के बाद शासन की बाग़डोर उनके हाथ में आ गई लेकिन तीन वर्ष बाद ही उनका देहांत हो गया। उनके चार पुत्र थे-काशीराव, मल्हार राव, विठोजी राव एवं यशवंत राव।
बड़े पुत्र होने के कारण उत्तराधिकारी काशीराव होलकर ही थे, परन्तु विकलांग होने और अनैतिक आचरण में लिप्त रहने के कारण वे अलोकप्रिय थे। जनता शासक के रूप में मल्हार राव (द्वितीय) को पसंद करते थे, क्योंकि वे बुद्धिमान और शूरवीर थे। उन्हें छोटे भाई विठोजी राव और यशवंत राव का भी समर्थन प्राप्त था। जब काशीराव को पता चला कि उनकी सत्ता ख़तरे में है तो उन्होंने ग्वालियर के मराठा शासक दौलत राव सिंधिया से मदद मांगी जो होलकरों के बढ़ते प्रभाव से इर्ष्या रखते थे। 14 सितम्बर 1797 को दौलत राव ने मल्हार राव की हत्या कर दी, जिसके बाद काशीराव राजगद्दी पर बैठे। इस घटना के बाद यशवंत राव, नागपुर के राघोजी भोंसले द्वितीय की शरण में गए। यशवंत राव की पत्नी लाड़ा बाई ने उसी समय पुत्री भीमा बाई को जन्म दिया था, उन्हें पुणे में कैद कर लिया गया। दौलत राव सिंधिया के कहने पर भोंसले ने यशवंत राव को गिरफ़्तार कर लिया जहाँ से वे भाग निकले।
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इस बीच विठोजी राव भागकर कोल्हापुर चले गए थे। उन्होंने अपना दल गठन कर दक्षिण के राज्यों को लूटना शुरू कर दिया। सर्वाधिक क्षति उन्होंने पेशवा के अधीनस्थ प्रदेशों को पहुंचाई क्योंकि काशीराव को पेशवा का समर्थन प्राप्त था। यद्यपि, यशवंत राव भी अपने सैन्य अभियान में जुटे हुए थे, जनता के बीच यशवंतराव की लोकप्रियता बढ़ रही थी। धार के राजा ने भी उनकी मदद की और कसरावद के पास शेवेलियर डुड्रेस की सेना को हटाकर उन्होंने महेश्वर पर कब्ज़ा कर लिया। जनवरी 1799 को वे विधिवत होलकर साम्राज्य के शासक बने।
बाजीराव पेशवा द्वितीय की आज्ञा से 1801 में विठोजी राव को गिरफ़्तार कर लिया गया। अप्रैल 1801 में उन्हीं की आज्ञा से विठोजी को हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया गया। इस घटना से यशवंत राव एवं बाजीराव द्वितीय के बीच शत्रुता चरम पर पहुँच गई। बदला लेने के इरादे से 25 अक्तूबर 1802 को यशवंत राव ने पुणे पर आक्रमण कर दिया। उसी समय उन्होंने अपनी पत्नी और बच्ची को मुक्त कराया था। इसी वर्ष उन्होंने पेशवा एवं सिंधिया (शिंदे) दोनों की संयुक्त सेना को पराजित कर दिया था। बाजीराव द्वितीय घबराहट में सिंहगढ़ की ओर चले गये और बाद में अंग्रेजों की शरण में आ गए। वह मराठा साम्राज्य के पतन का दौर था। सभी प्रमुख मराठा राजवंश आपस में लड़ रहे थे और गिद्ध की तरह घात लगाकर बैठे अंग्रेज़ों को भी मौका मिल गया।
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इन हालात में उम्मीद की एक किरण बनकर यशवंत राव (प्रथम) उभरे। युद्ध में अदम्य शौर्य का प्रदर्शन करने वाले यशवंत राव उदार, दयालु, कमजोरों के संरक्षक और गरीबों के हितैषी थे। उन्होंने अपनी पुत्री भीमा बाई को शास्त्र एवं शस्त्र दोनों ही प्रकार से प्रवीण बनाया। उनकी अपेक्षा के अनुरूप ही भीमा बाई के व्यक्तित्व में निर्भीकता एवं बुद्धिमत्ता का दोनों का समावेश रहा। वे अस्त्र-शस्त्र एवं घुड़सवारी आदि में निपुण थीं। उनकी बाल्यावस्था में ही एक बार उनके राज्य में नरभक्षी शेर का आतंक बढ़ गया। उसे पकड़ने के लिए योद्धाओं के एक दल का गठन किया गया। यह सूचना मिलते ही भीमा अपने पिता के पास उस दल में शामिल होने की अनुमति मांगने पहुँच गई जो उन्हें नहीं मिली। इसके बाद वे कई दिनों तक पिता से नाराज़ रही थीं।
सन 1809 में यशवंत राव के ही सेवादार और इंदौर के एक प्रमुख सरदार गोविन्दराव बुके के साथ उनका विवाह हुआ। आयोजन अत्यंत भव्य था जिसमें दूर-दूर के राजे-रजवाड़ों को आमंत्रित किया गया था। कोटा से राव जालिमसिंह, जयपुर से जगतसिंह, जोधपुर (मारवाड़) से राणा मानसिंह शिंदे सरकार की ओर सर्जेराव धाडग़ेख्, देवास के पवार राजे, नवाब भोपाल, नागपुर दरबार से भोंसले के वकील (प्रतिनिधि), दक्षिण से घोरपड़े, विंधुरकर, पटवर्धन (मिरज के शासक) और पुरंदरे आदि सरदार उपस्थित थे।अफगानिस्तान के शाह द्वारा अस्सी घोड़े भेंट स्वरूप भेजे गए, तो भोपाल नवाब ने हाथी भेंट किया गया था।
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अंग्रेजों के विरुद्ध मराठा रियासतों का एक संघ बना था जिसमें, पेशवा, भोंसले, सिंधिया, होलकर आदि राजघराने शामिल थे। आपसी संघर्ष के कारण द्वितीय मराठा-आंग्ल युद्ध में यशवंत राव अकेले पड़ गए, तथापि वे अंग्रेजों के विरुद्ध वे लड़ते रहे। इन्हीं प्रयासों के कारण उन्हें जनरल लॉर्ड बेलेजयी द्वारा अंतिम रूप से कठोर चेतावनी भरा पत्र प्राप्त हुआ, जिसका आशय यह था कि ‘अंग्रेजों के विरोध में अपना व्यवहार में (नीति में)’ यदि राजा यशवंत राव द्वारा सुधार नहीं किया गया तो अंग्रेज़ सेना होलकर राज्य को नेस्तनाबूद कर देगी।’ इस चेतावनी से यशवंत राव भयभीत नहीं हुए, साथ ही भीमाबाई ने भी पिता के पक्ष में अंग्रेजों का विरोध करने हेतु तैयारियां आरम्भ कर दी। भीमाबाई की तैयारियों व इरादों का सम्मान करते हुए यशवंतराव ने उन्हें आगे कदम बढ़ाने की अनुमति दे दी। उसी समय कॉटन टोड, रायन विक्स की प्रशिक्षित अंग्रेज सेना होलकर राज्य की सीमा में घुसी। भीमाबाई ने बहादुरी से अंग्रेजों की सेना का सामना किया। सैन्य प्रबंधन वे अत्यधिक कुशल थीं। अत: अंग्रेजों के खेमे में भी हलचल मच गई। उनके युद्ध कौशल और सैन्य प्रबंधन की क्षमता के उनके पिता भी प्रशंसक थे।
भीमाबाई के विवाह के दो वर्ष बाद ही यशवंत राव प्रथम का देहांत हो गया। उनके पुत्र मल्हारराव द्वितीय अल्पवयस्क थे, इसलिए भीमाबाई ने स्वयं अपने पिता का अंतिम संस्कार किया। उस समय हिन्दू परिवार की स्त्रियां अंतिम संस्कार में शामिल होने शमशान घाट तक नहीं जाती थीं। ऐसे में उनका यह कदम अत्यंत क्रांतिकारी माना गया। मल्हार राव तृतीय, यशवंत राव की दूसरी पत्नी कृष्णाबाई (केसरबाई) के पुत्र थे जिन्हें चार वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठाया गया। हालांकि कृष्णाबाई को कभी पत्नी का दर्जा कभी नहीं प्राप्त हुआ। यशवंत राव की मृत्यु के कुछ ही माह बाद भीमाबाई के पति का भी देहांत हो गया। उनकी आयु उस समय मात्र बीस वर्ष थी। उस समय समाज में सती प्रथा अपने उत्कर्ष पर था, लेकिन भीमाबाई ने न तो सती होना स्वीकार किया न श्वेत वस्त्र धारण किये। वे पितृ गृह लौट आईं,जहां मल्हार राव तृतीय उनका बहुत सम्मान करते थे।
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मल्हार राव तृतीय के अल्प वयस्क होने के कारण यशवंत राव होलकर की पहली पत्नी तुलसा बाई उनकी संरक्षिका बनीं एवं राज्य का प्रशासन भार कुशलता पूर्वक संभाल लिया। यह बात उनके विरोधियों को पसंद नहीं आई और षड़यंत्र रचते हुए विश्वासी धरम कुंवर एवं बलराम सेठ ने पिंडारियों एवं पठानों की मदद से बालक मल्हार राव एवं तुलसाबाई को बंदी बनाने का निश्चय किया। इस योजना की भनक लगते ही तुलसा बाई ने दोनों को प्राण दंड दे दिया और उनके स्थान पर तांतिया जोग की नियुक्ति की। यह देखकर पिंडारी गफ़ूर खां ने अंग्रेज़ों से संधि कर ली। उल्लेखनीय है कि कई सैन्य अभियानों में स्वयं यशवंत राव पिंडारियों से सहायता ले चुके थे, इसलिए सामरिक गतिविधियों में पिंडारियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी।
तीसरा आंग्ल -मराठा युद्ध(1817): विशाल मराठा साम्राज्य के पेशवा यद्यपि अंग्रेज़ों का प्रभुत्व स्वीकार कर चुके थे, अन्य शासक भी अंग्रेज़ों के साथ संधि कर चुके थे लेकिन आंतरिक रूप से वे सभी इस अधीनता की स्थिति से बाहर निकलना चाहते थे। युद्ध की पृष्ठभूमि पूर्व निर्धारित थी, जिसका केंद्र बना पुणे। यहीं से आरंभ हुआ प्रसिद्ध तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध। यह भी मान्यता है कि संभवत: होलकर सेना दक्षिण में जाकर मराठों की मदद करना चाहती थी। होलकरों के अधीन मालवा में क्षिप्रा किनारे बसा हुआ गांव महिदपुर एक छावनी था।
20 दिसंबर 1817 में अंग्रेज़ों ने योजनाबद्ध तरीके से मालवा (महिदपुर) पर आक्रमण किया। युद्ध में अंग्रेज़ फ़ौज का नेतृत्व कर्नल मालकम कमांडर टॉमस, हिसलॉप कर रहे थे। होलकर की सेना में गद्दी पर आरूढ़ मल्हारराव हाथी पर बैठकर निरीक्षण कर रहे थे जबकि भीमाबाई अपने सैनिकों के साथ अंग्रेज़ों की सेना का सफाया कर रही थीं। इस युद्ध में तुलसाबाई भी अत्यधिक सक्रिय थीं। सेना की कमान भीमाबाई के हाथ में थी, उन्होंने नगर-नगर घूमकर जन समर्थन जुटाया जिसके परिणामस्वरुप अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए एक विशाल सेना उन्होंने खड़ी कर दी। परन्तु उनकी सेना में गोरों के कुछ हिमायती भी थे। पन्नालाल नामक एक व्यक्ति अंग्रेज़ों को गोला बारूद मुहैया करवा रहा था। उस पर राजद्रोह का आरोप सिद्ध होते ही भीमाबाई ने उसे मृत्युदण्ड दे दिया।
महिदपुर युद्ध में ही तुलसा बाई और मल्हार राव होलकर अपने ही विद्रोही सैनिकों से घिर गए। तुलसा बाई के प्रयास से मल्हार राव भाग निकलने में कामयाब हो गए परन्तु तुलसा बाई की वहीं हत्या कर दी गई। इधर भीमा बाई अपने सैनिकों के साथ अंग्रेजों के छक्के छुड़ा रही थीं, उनके युद्ध कौशल को देख प्रतिद्वंदी जनरल हंट भी उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सका। लेकिन तभी गफ़ूर खां कई सैनिकों को लेकर अलग हो गया। भीमाबाई को विजय के निकट पहुंचकर पलायन करना पड़ा। मजबूरन, उन्होंने एक ग्रामीण के घर शरण ली।
तुलसा बाई की हत्या के बाद कृष्णाबाई (मल्हार राव की माता) अपने पुत्र और राज्य दोनों के लिए चिंतित हो गई। उन्होंने संधि के लिए प्रयास किया और उनकी सलाह से मल्हार राव ने उस संधि पर हस्ताक्षर कर दिए जिसे प्रसिद्ध मंदसौर संधि के नाम से जाना जाता है। 6 जनवरी 1818 को हुए इस संधि में होलकर वंश ने अपने साम्राज्य का अधिकांश हिस्सा खो दिया। उन्हें मध्यभारत एजेंसी के रूप में ब्रिटिश राज में शामिल कर लिया गया।
भीमाबाई को जब इस संधि की सूचना मिली वे भड़क उठीं और उस संधि को अस्वीकार कर दिया। उस समय भी उनकी सेना में तीन हज़ार लोग थे। उन्होंने छापामार युद्ध का निश्चय किया और लगातार अंग्रेज़ों की नाक में दम करती रहीं। इस दौरान अंग्रेजों के कई ठिकाने ध्वस्त हुए, उनके खजाने लुटे और कई सैनिक मारे गए। अंग्रेज़ों ने दोबारा उनकी सेना में घुसपैठ करना शुरू कर दिया। वे सैनिकों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर अपनी तरफ़ करने लगे, परिणामस्वरूप कई सैनिक उनसे मिल गए। मैल्कम ने भीमाबाई को गिरफ़्तार करने के लिए अपनी सेना भेज दी। दुर्भाग्यवश उनके एक भी सैनिक ने विरोध नहीं किया और अंततः उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्हें रामपुरा किले में कैद कर लिया गया, जहाँ 28 नवंबर 1858 में उनकी मृत्यु हो गई।
सहयोग: डॉ. प्रभा श्रीनिवासन
सन्दर्भ स्रोत : विकिपीडिया एवं कुछ न्यूज़ वेबसाइट
© मीडियाटिक
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