• वेदप्रकाश नगायच
प्राचीन मूर्तिकला में स्त्री पात्रों का उनकी भंगिमाओं एवं मुद्राओं के आधार पर नामकरण किया जाता था। इन्हें गढ़ने में मध्यप्रदेश के मूर्तिकार सदैव अग्रणी रहे हैं। यही वजह है कि कई मूर्तियाँ राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर चुकी हैं।
यक्षिणी/शालभंजिका
विदिशा की शालभंजिका/यक्षिणी: यक्ष पूजा और यक्षों के कल्याणकारी एवं विनाशकारी रूपों का विस्तृत वर्णन प्राचीन साहित्य में मिलता है। यक्ष यदि महाकाय, महौजत और विकट आकृति के जीव थे तो यक्षणियाँ दिव्य सौन्दर्य की स्वामिनी थीं। इनकी एक मुद्रा शालभंजिका के नाम से प्रसिद्ध है। मध्यप्रदेश में कई इस मुद्रा की कई प्रतिमाएं पायी गयी हैं लेकिन विदिशा की शालभंजिका विश्व प्रसिद्ध है। भारतीय कला में प्रसिद्ध ग्यारसपुर (विदिशा) से प्राप्त शालभंजिका पीले बलुए पत्थर से निर्मित, चेहरे पर मुस्कान लिए द्विभंग मुद्रा में दर्शाया गई है। प्रतिमा की भावभंगिमा एवं हृदयस्पर्शी मुस्कान के आधार पर इसकी तुलना पश्चिमी कला मर्मज्ञों ने मोनालिसा से की है। यद्यपि इसकी मुस्कान मोनालिसा की तुलना में अत्यंत आकर्षक एवं रहस्यात्मक प्रशंसकों द्वारा मानी गई है। इस वृक्षिका देवी के बालों का फूलों सहित काढऩा एवं शरीर सौष्ठव मुद्रा श्रृंगार की भावना दर्शाते हैं। इस द्विभंग स्थानक भाव में पेड़ के नीचे डाली पकड़े हुए खड़ी प्रतिमा का कलाकार ने भव्यता से प्रदर्शित किया है। यद्यपि शालभंजिका के दोनों हाथ टूटे हुए हैं पर शेष अंग उसकी सम्पूर्णता एवं भाव को दर्शाते हैं। प्रतिमा में दर्शाए अलंकरणों में पुष्पकुंडल, एकावली, दोलड़ी हार जिसमें लघु हार हीरक मनकों युक्त जो तीन लडिय़ों से युक्त लाकेट सहित कमलकलिका लटकन अलंकरण को उसके उदर तक लटकते हुए तथा एक बड़ा हार जो उनके स्तनों के मध्य लटकता हुआ दर्शाया गया है। उस समय की वैभवता को अलंकृत करता हुआ लघु कढ़ाई युक्त कटिवस्त्र, कूल्हे एवं नितम्ब पर कसा हुआ पारदर्शी वस्त्र के रूप में दिखाया गया है। शरीर के लयात्मक भाव एवं चेहरे पर स्मित मुस्कान तथा सानुपातिक शरीर सौष्ठव आनन्द एवं प्रेम की अभिव्यक्ति को दर्शाता है। इस शालभंजिका को विद्वानों ने स्तम्भ शालभंजिका के रूप में माना है, जिसका वर्णन संस्कृत ग्रंथों यथा ”रघुवंश तथा राजशेखर द्वारा रचित ‘विद्धशालभंजिका’ में मिलता है। संस्कृत में ‘शालभंजिका’ को पाली में ‘शालभंजियाँ’ के समतुल्य रखा है एवं ‘शालभंजियाँ’ प्रारम्भ में उद्यान क्रीड़ा की परिचायक रही हैं। पाणिनी ने भी अपने ग्रंथ ‘अष्टाध्यायी’ में ‘शालभंजिका’ को पूर्व के लोगों द्वारा अनुकूल समय बिताने वाली तथा वात्स्यायन ने भी ‘शालभंजिका’ का वर्णन किया है। सर्वप्रथम इस प्रतिमा को जर्मनी में आयोजित प्रदर्शनी में भेजा गया था। 1986 के भारत महोत्सव में इसे पेरिस प्रदर्शनी में भेजा गया था। यह प्रतिमा 10वीं शती की प्रतिहार कालीन कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। वर्तमान में यह प्रतिमा गूजरी महल संग्रहालय, ग्वालियर में प्रदर्शित है।
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भरहुत की यक्षिणी: भरहुत के भग्न गोलाकार कमल फुल्ले में परागकणों के मध्य यक्षिणी का ऊर्ध्व भाग प्रदर्शित है जिसके विशाल नेत्र, सुसज्जित केश विन्यास, माथे पर ललाटिका, कानों में तिहरा कुंडल, गले में मोतियों की माला एवं पचलड़ा हार पहने हुए हैं। यक्षिणी का मुंह गोल, नाक अंशत: भग्न, चेहरे पर स्मित भाव, दायें हाथ में सनाल कमल लिए अंकित है। यह प्रतिमा वर्ष 1982 में इंग्लैंड में आयोजित ‘भारत महोत्सव’ प्रदर्शनी की शोभा बढ़ा चुकी है।
साँची की शालभंजिका/यक्षिणी: साँची के स्तूप क्रमांक-1 के तोरण द्वार के सम्मुख भाग में पूर्व की ओर ऊपरी एवं मध्य सिरदल के बीच शालभंजिका वृक्ष की शाखा दायें हाथ से पकड़े और बांया पैर वृक्ष के तने से टिकाए खड़ी है। बांया हाथ कटि पर है। निचले सिरदल के नीचे शालभंजिका के एक हाथ की कोहनी वृक्ष पर टिकी है। पश्चिमी ओर ऊपरी और मध्य सिरदल के बीच की शालभंजिका अपने दांये हाथ और पैर से वृक्ष को लपेटे हैं। इसके पैरों में बहुत से कंकण और केश लटकती हुई वेणियों में गुंथे हैं। पूर्वी तोरण द्वार में उत्तर की ओर निचले सिरदल के नीचे वाली यक्षी सबसे सुंदर है। उसका दायां पैर भूमि पर टिका है और बायां पैर बड़ी कलात्मकता से पंजे पर उठा है। दांया हाथ आम की दो डालियों के बीच डाले और बायें हाथ से डाल पकड़ते हुए झूलती हुई मुद्रा में वह खड़ी है। पैरों और हाथों में बहुत से कंकड़ हैं। गले में एकावली और कटि में मेखला है।
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स्खलित वसना-सुरसुन्दरी का उर्ध्वभाग द्विभंग मुद्रा में प्रदर्शित है। उसके भावविभोर अनुराग से पूर्ण- अर्धनिमीलित नेत्र, लज्जाशील मुख-मुद्रा, उन्नत उरोज तथा क्षीण कटि अत्यंत कमनीय हैं। मस्तक पर आकर्षक कुंतल केश विन्यास है जो पीछे की ओर जूड़े में बंधा है। वह चक्रकुंडल, एकावली, चन्द्रहार, मुक्ताजड़ित तीन लड़ों का स्तनसूत्र, कुचबंध, केयूर तथा कंकण पहने हुए है। अचानक किसी के आ जाने से वह दायें हाथ से स्खलित अधोवस्त्र का छोर पकड़े हुए है। 11 शती ई. की यह प्रतिमा वर्तमान में राज्य संग्रहालय भोपाल में प्रदर्शित है ।
वेणुवादिनी- सुरसुंदरी द्विभंग मुद्रा में वेणु बजाते प्रदर्शित है। उसके सिर पर आकर्षक केश विन्यास है जो पीछे जूड़े में बंधा है। वह रत्नजडि़त मुकुट, चक्रकुंडल, स्तनसूत्र, भुजबंध, कंकण, कटिसूत्र, उत्तरीय तथा पैरों को समीप तक स्पर्श करता हुआ अधोवस्त्र पहने है। भावविभोर वेणुवादिनी दोनों हाथों से वेणु पकड़कर अधरों पर रखी हुई है। तेवर, जबलपुर से प्राप्त 12 शती ई. की यह प्रतिमा वर्तमान में रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर में प्रदर्शित है।
अलीक निद्रा– यह शिल्पकृति रूठे नायक एवं मानिनी नायिका के मौन अभिनय का शिल्पीय रूपांकन है। प्राकृत भाषा के कवि हाल द्वारा रचित ‘गाथा सप्तशती’ के एक गाथा में वर्णित दृश्य का शिल्पी द्वारा रूपांकन किया गया है। इस फलक पर दो दृश्य हैं। फलक के दांयी ओर प्रथम दृश्य में तीन स्त्रियाँ बैठी हुई हैं। नायिका प्रिय से मिलने को उत्कंठित है। उसके दोनों ओर एक-एक परिचारिका अनुनय करते दिखाई गयी हैं। तीनों वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित हैं। दोनों परिचारिकाएं नायिका को प्रिय के पास नियत समय पर पहुंचने के लिए अनुनय विनय कर रही हैं। फलक के दायें ओर इस दृश्य में पूर्व निर्धारित समय के अनुसार नायक उद्यान में अपनी प्रियतमा की प्रतीक्षा कर रहा है। नायिका के निश्चित समय पर न पहुंचने के कारण खिन्न नायक अपनी अप्रसन्नता को व्यक्त करने के लिए निद्रा में लेटे होने का अभिनय कर रहा है। नायिका विलम्ब से पहुंचने पर प्रियतम को सोता हुआ पाती है। किंतु नायक की मुद्रा से स्पष्ट है कि वह कपट निद्रा का अभिनय कर रहा है। इसकी पुष्टि करने के लिए नायिका चुपचाप नायक के सिरहाने बैठकर उसके कपोल पर चुंबन अंकित करती है जिससे उसके अंग-प्रत्यंग पुलकित हो जाते हैं और अलीक निद्रा स्पष्ट हो जाती है। नायिका उससे क्षमा मांगकर भविष्य में देर से न आने का विश्वास दिलाती है। इस शिल्प पट्ट की पीठिका पर 11वीं शती ई. की नागरी लिपि में ”गाथा ‘सप्तशती’ का श्लोक प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण है। 11वीं शती ई. की तेवर (जबलपुर) से प्राप्त यह प्रतिमा वर्तमान में रानी दुर्गावती संग्रहालय, जबलपुर में प्रदर्शित है।
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सद्यस्नाता– द्विभंग मुद्रा में अंकित सद्यस्नाता के पैरों के समीप दायीं ओर कोने पर कमल कलिका के साथ एक हंस भी बना है। सद्यस्नाता बायें हाथ से अपने अर्धनग्न शरीर पर स्नान के कारण गीले व चिपके वस्त्र का छोर पकड़े हुए है और दायें हाथ से लम्बी वेणी को पकड़े हुए उसका जल निचोड़ रही है। इसकी वेणी से टपकते हुए सुवासित जल-बिन्दुओं को पीने की लालसा से हंस ने अपनी ग्रीवा ऊपर की ओर मोड़ ली है। इनके स्तन भग्न हैं एवं आभूषणों में कंकण ही शिल्पांकित है। आलेखन की दृष्टि से कलाकृति उच्च स्तरीय है।
अंजना– मनमोहक द्विभंग मुद्रा में शिल्पांकित अंजना के बायें हाथ में दर्पण है और दांये हाथ में अंजना शलाका। वह अपने नेत्रों में अंजन लगा रही है। मुक्ताज़ाल से व्यवस्थित केशराशि और कलापूर्ण कटिबंध के अतिरिक्त अंजना के उन्नत उरोजों पर कुचबंध बंधा हुआ है। कंधों पर पड़े अलंकृत उत्तरीय एवं अधोवस्त्र के पहनने में स्वाभाविकता है। शिल्पी ने अंग सौष्ठव की अभिव्यक्ति भावभंगिमा के माध्यम से की है।
अभिसारिका– मनोहर एवं आकर्षक भावमुद्रा में शिल्पांकित अभिसारिका दायां पैर उठाकर चलने का उपक्रम कर रही है। लघुभाव वानर कामुक मुद्रा में उसके अधोवस्त्र का निचला छोर जो नीवीबंध से संबंधित है, अभिसारिका के पैरों के बीच पकड़कर खींच रहा है। नायिका भयभीत है और अपना दायां हाथ उठाकर वानर को भगाना चाहती है। अभिसारिका के वस्त्र ढीले हैं और अधखुली जंघा को नायिका बायें हाथ से सम्हाल रही है। उत्तरीय और अधोवस्त्र की सलवटों का अंकन सुरुचिपूर्ण है। नायिका के गले में एकावली है। नायिका के कर्णफूल और केशविन्यास कलात्मक हैं। अंग सौष्ठव रमणीय है।
पदमिनी- द्विभंग मुद्रा में खड़ी पद्मिनी के दायें हाथ में बड़े आकार का सनाल पद्म है जो संभवत: दीप रखने के लिए उपयुक्त रहा होगा। अलंकृत केशराशि से युक्त इस कलाकृति में कानों के कर्णफूल, गले की हारावली और उस पर लटकता हुआ तरल तथा कटि का कटिबंध एवं पैरों के पाद्जालक अत्यंत लुभावने हैं। अधोवस्त्र एवं उत्तरीय मनोहारी हैं। यह प्रतिमा शिल्पी के सौंदर्य दृष्टि की परिचायक है।
विधिचित्ता- विभंग मुद्रा में श्रृंगार करती विधिचित्ता के दायें हाथ में दर्पण है और बायें हाथ की उंगलियों से माथे पर पड़ी हुई अलकों को हटाकर तिलक लगाने का उपक्रम कर रही है। भाव भंगिमा और अंग सौष्ठव लास्यपूर्ण है। कंधों पर उत्तरीय एवं उरोज पर लटकती एकावली अलंकरण में सौम्यता के प्रतीक हैं। विधिचित्ता लम्बा पारदर्शी अधोवस्त्र और अलंकृत कटिसूत्र तथा नीवीबंध सादे और स्वाभाविक हैं।
परिचारिका- द्विभंग मुद्रा में शिल्पांकित परिचारिका के दायें हाथ में चंवर है, बायां हाथ गजहस्त मुद्रा में अंकित है। नितम्ब, उन्नत उरोज एवं गले की हारावली तथा कानों के कुंडल आकर्षक है। कमर में त्रिवली पहने है। सिर पर अलंकृत केशराशि कलश की आकृति के समान हैं।
उपरोक्त सद्यस्नाता, अंजना, अभिसारिका, पद्मिनी, विधिचित्ता एवं परिचारिका नामक प्रतिमाएं – परमार कला के प्रमुख केंद्र हिंगलाजगढ़ से प्राप्त हुईं एवं वर्तमान में केन्द्रीय संग्रहालय इंदौर में प्रदर्शित हैं।
चंदेल शासकों की कलाकृतियां अपने में अनूठे आयाम को न केवल मान्मथ अंकन वरन् जीवन के विविध क्षेत्रों में भी समाहित हैं। ऐसी कुछ कलाकृतियों का विवरण प्रस्तुत है-
लक्ष्मण मंदिर खजुराहो के दक्षिणी कोने की भित्ति पर अनेकानेक कृतियाँ सुरसुंदरी नायिकाओं की प्रस्तुत की गई हैं। दक्षिणी कोने में नीचे की ओर एक गणिका का बड़ा सजीव चित्रण है जो कि गाना गा रही है। मध्य में शिव हैं एवं उसके दायीं ओर की नायिका को दर्पण में मुख देखकर मांग में सिंदूर भरते हुए दर्शाया गया है। इसके ऊपर की पंक्ति में दायीं ओर नायिका को कंदुक-क्रीड़ा करते हुए प्रस्तुत किया गया है। नायिका की मांसल देहयष्टि का चित्रण मनोहारी है, जो शिल्पी की सौन्दर्य दृष्टि का परिचायक है।
लक्ष्मण मंदिर की उत्तर-पश्चिमी भित्ति पर पश्चिमी कोने पर स्नान करते हुए अपनी पीठ को स्पर्श करने का प्रयास करते हुए नायिका अतुलनीय है। इसी के दायीं ओर शिव प्रतिमा के पश्चात एक नायक एवं नायिका ताड़ की सुरा का पान करते हुए उकेरा गया है। दोनों के भावों से लगता है कि दोनों मदमस्त हैं। इन्हीं के पार्श्व में ताड़ का वह वृक्ष दिखलाया गया है जिससे प्राप्त सुरा का वह पान कर रहे हैं। उत्तरी-पश्चिमी किनारे पर नीचे की पंक्ति में दीवार की पुताई करते हुए नायिका एवं ऊपर की पंक्ति में काम विह्वल नायिका उल्लेखनीय है।
यहां की कुछ उल्लेखनीय प्रतिमाओं में एक युगल को अंकित किया गया है जो एक हाथ से नायिका को आलिंगन में लिए हुए है एवं दूसरे हाथ में ली एक छड़ी से बंदर को भगा रहा है। नायिका बंदर से डरकर नायक से चिपक (लिपट) गई है एवं नायक उसे आश्वस्त कर रहा है। नीचे की इसी पंक्ति में बायीं ओर नायक-नायिका को मदिरापान कर नृत्य करते हुए दर्शाया गया है।
पार्श्वनाथ मंदिर की बाह्य भित्ति पर दर्पण देखकर मांग में सिन्दूर का आलेखन करती हुई रूपगर्विता तथा दर्पण में देख कर नयन आंजती हुई सुनयना नायिका एवं वहीं चुम्बन से बालक पर ममता उड़ेलती हुई जननी का चित्रण बहुत स्वाभाविक, अति सुंदर एवं अविस्मरणीय है।
नृत्यांगना- पवाया (ग्वालियर) से प्राप्त 5वीं शती ई. का विष्णु मंदिर का खंडित सिरदल (lintal) में सामने की ओर बायीं तरफ नृत्य एवं संगीत सभा का दृश्य उकेरा गया है। इसमें विभिन्न वाद्य यंत्र बजाती महिला वादक दिखाई गयी हैं। बीच में एक नर्तकी संगीत की स्वरलहरियों पर मनमोहक नृत्य कर रही है। वाद्ययंत्रों में सप्ततंत्री वीणा, बांसुरी एवं ढपली आदि शामिल हैं। दायीं ओर यज्ञ का दृश्य है। इसे आगे राजा बलि विष्णु के वामन अवतार को तीन पग धरती का दान दे रहे हैं। राजा बलि के दान मिलने पर विष्णु अपने असली रूप में आकर पहला पग उठाते हैं, जो आकाश तक पहुंच जाता है। यह वामन अवतार का त्रिविक्रम रूप है। ऊपरी भाग में छोटे-छोटे वर्गाकार खानों में आठ नृत्यांगनाएं नृत्य की अलग अलग मुद्रा में हैं। दूसरी तरफ समुद्र मंथन का दृश्य एवं स्कन्द की मूर्तियां अंकित हैं।
लेखक जाने माने पुरातत्वविद हैं।
© मीडियाटिक
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