कुशल शासक नवाब सुल्तान जहाँ बेगम जो अपने सौतेले पिता के कारण माँ से हो गयी थीं दूर

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कुशल शासक नवाब सुल्तान जहाँ बेगम जो अपने सौतेले पिता के कारण माँ से हो गयी थीं दूर

छाया : रॉयल  कलेक्शन ट्रस्ट

• डॉ. शम्भुदयाल गुरु

  सुल्तान जहां बेगम

  अपनी माँ से बरसों रही थीं दूर

  इनके शासनकाल में राजस्व हो गया था दोगुना

  लड़कियों के लिए खोले गए थे कई स्कूल

  तब के मिन्टो हॉल का करवाया था निर्माण जो 1956 में बना विधानसभा भवन  

शाहजहां बेगम की मृत्यु के बाद उनकी बेटी सुल्तान जहां बेगम, 4 जुलाई, 1901 को गद्दीनशीन हुई। उसी समय उनके बड़े पुत्र, नसरूल्ला खान को उत्तराधिकारी घोषित किया गया। बेगम ने नसरूल्ला खान से एक समझौते पर हस्ताक्षर कराये। समझौता पत्र में अनेक शर्तों के साथ यह शर्त भी कि वे कभी दूसरी शादी नहीं करेंगे, ब्रिटिश सरकार से सीधा संपर्क नहीं करेंगे, माता-पिता की कभी कोई शिकायत नहीं करेंगे, कोई अभद्र और अवांछित कार्य नहीं करेंगे, बिना अनुमति भोपाल नहीं छोड़ेंगे तथा अपने भाईयों और राज्य के अधिकारियों का ख्याल रखेंगे।

सुल्तान जहां के साथ उनकी मां शाहजहां ने बहुत सख्ती बरती थी। वर्षो दोनों अलग रहीं और उनमें आपस में मुलाकात नहीं हुई। सुल्तान जहां का विश्वास था कि उनके सौतेले पिता सिद्दीक हसन के कारण मां विमुख हो गयी थी। उन्होंने सौतेले पिता के कारण मां से दूरी सही थी। शायद इसीलिए उन्होंने नसरुल्ला से जिस समझौते पर दस्तखत कराये उसमें दूसरी शादी पर पाबंदी तथा अपने भाईयों का ख्याल रखने की शर्त जोड़ी। नसरूल्ला खान ने दरबार के कार्यों में बेगम को भरपूर सहयोग दिया। दुर्भाग्य से राज-काज सम्हालने के कुछ माह बाद ही उनके पति अहमद अली खान का 4 जनवरी 1902 को निधन हो गया। पति उनकी जिन्दगी में हर मुश्किल घड़ी में हमेशा साथ खड़े रहे इसलिए उनका यकायक चला जाना एक बड़ा सदमा था। उसी दुख में उन्होंने मक्का मदीना की तीर्थ यात्रा की।

कुशल प्रशासिका

सुल्तान जहां एक योग्य और कुशल प्रशासक सिद्ध हुई। वे एक न्यायप्रिय, जागरूक और निष्ठावान महिला थीं। कुछ वर्षों में ही उन्होंने भोपाल के प्रशासन और जन जीवन पर अपनी योग्यता की छाप छोड़ी। सबसे पहले तो उन्होंने भोपाल की आर्थिक स्थिति को सुधारने का बीड़ा उठाया और उसमें वे सफल रहीं। उनकी निगाहें हर ओर लगी थी। कृषि, सिंचाई, न्याय पालिका, लोक निर्माण ,पुलिस, सेना सब क्षेत्रों में राज्य की सीमित आय को ध्यान में रखकर सुधार किये। उन्होंने जमीन का नया बन्दोबस्त किया। इसका सुखद परिणाम निकला। रियासत की राजस्व आय लगभग दोगुनी रु. 18 लाख से रु. 35.50 लाख हो गयी। राज्य में औद्योगिक और कृषि प्रदर्शिनी आयोजित की जाने लगी, जिनसे लोगों को  नयी-नयी तकनीक की जानकारी मिली। अब तक केवल अहमदाबाद के महल में ही बिजली की रोशनी की सुविधा थी, उन्हें आम लोगों को भी यह सुविधा मुहैया कराने की तत्परता थी। अत: मोती महल के पास तालाब के किनारे उन्होंने पावर हाउस स्थापित किया जिससे सारे शहर को बिजली मिलने लगी। कुदसिया बेगम ने पानी की पूर्ति के लिए एक संयत्र कायम किया था। तब आबादी काफी बढ़ गयी थी। इसलिए सुल्तान जहां ने अहमदाबाद और कर्बला में दो और पंपिग एंजिन स्थापित कराये।

सेना का पुनर्गठन और आधुनिकीकरण किया। 1924 से 1918 के प्रथम महायुद्ध में बेगम ने ब्रिटिश सरकार की सैनिक भेजकर सहायता की और नसरुल्ला खां को भी युद्ध में भेजा परंतु गंभीर रूप से बीमार होने के कारण उसे वापस लौटना पड़ा। उनकी सहायता की तत्कालीन वाइसराय लाड चेम्सफोर्ड ने प्रशंसा की।

शैक्षणिक सुधार

सुल्तान जहां व्यापक शैक्षणिक सुधारों के लिए प्रसिद्ध है, उन्होंने महिलाओं की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया और इस अर्थ में वे तत्कालीन भोपाली समाज और समय से आगे की सोच वाली शासक सिद्ध हुईं। तत्कालीन एडमिनिस्ट्रेटिव रिपोर्ट्स से यह बदलाव स्पष्ट नजर आता है। उनके प्रयास से विक्टोरिया कन्या शाला में लड़कियों की संख्या 1903 में 63 से अगले ही साल 180 हो गई। छात्राएं सब धर्मों तथा जातियों की थी। एक अंग्रेज  सुपरिन्टेन्ड की नियुक्ति की गई ताकि शिक्षा का स्तर सुधरे। बच्चों को गणित, कशीदाकारी, सीना पिरोना का कार्य सिखाया जाता था। उन्होंने सुल्तानिया गर्ल्स स्कूल, एलेक्जेंड्रिया नोबिल स्कूल (जो अब हमीदिया स्कूल कहलाता है), असीफिया ट्रेनिंग स्कूल आदि स्थापित किये।

विधवाओं और अनाथ महिलाओं के लिए उन्होंने फीमेल स्कूल खोला। इसके लिए सरकारी खर्च के साथ ही निजी अनुदान भी प्राप्त किया जाता था। इसका उद्देश्य काशीदाकारी, सिलाई, बुनाई और कुछ दस्तकारी सामान तैयार करने का प्रशिक्षण देने का था ताकि वे रिश्तेदारों या अन्य लोगों के रहमों करम पर निर्भर न रह कर स्वयं की आय पर स्वाभिमान से जीवन बिता सकें।

एक और उल्लेखनीय सुधार उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में किया। उन्होंने स्कूलों में गणित का शिक्षण अनिवार्य कर दिया। साथ ही स्कूलों को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध कर दिया और पंजाब यूनिवर्सिटी कोड भी उन पर लागू कर दिया। शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए एक शिक्षक ट्रेनिंग कालेज भी 1907 में शुरू किया गया। उन्होंने लेडी हार्डिन्ज शिशु गृह खोला जहां गरीब बच्चों की परवरिश की जाती थी।

महिलाओं के उत्थान के लिए बेगम ने भरसक कोशिश की। वे अखिल भारतीय मुस्लिम महिला सम्मेलन की 1914 में संस्थापक अध्यक्ष थी। उसमें महिलाओं को शिक्षित करने और विवाह की आयु बढ़ाने का समर्थन किया गया। फिर 1918 में भोपाल में अखिल भारतीय मुस्लिम महिला कांग्रेस का अधिवेशन आयोजित किया गया। वे आश्चर्य व्यक्त करती थीं कि भोपाल में एक भी ग्रेजुएट नहीं था। इसीलिए 1910 में उन्होंने हमीदुल्ला को अलीगढ़ विश्वविद्यालय में पढऩे भेजा। उम्रदराज होने पर पर्दा प्रथा के प्रति उनमें उदारता बढ़ गयी। इसके लिए उन्होंने महिला सम्मेलन में जोर दिया। साथ ही 1928 में सुल्तान जहां ने पर्दे से बाहर आने का साहसिक कदम उठाया। भोपाल में महिला मुक्ति की कोशिश का यह पहला, लेकिन मजबूत कदम था। उन्होंने 1903 में भोपाल में म्यूनिसिपेल्टी बनायी।

भवन निर्माता

उनके शासन काल में अनेक प्रसिद्ध इमारतों का निर्माण किया गया। 1909 में लार्ड तथा लेडी मिन्टो भोपाल आये। उसी समय मिन्टो हाल के लिए शिलान्यास संपन्न हुआ। यह भव्य और शानदार इमारत है। नया मध्यप्रदेश बनने के बाद 1956 में मध्यप्रदेश विधानसभा भवन कहलाने लगा। अब विधानसभा का नया भवन है। इसके सिवाय न्यायालय भवन, पब्लिक लायब्रेरी, सिविल क्लब और अनेक सरकारी इमारतों का निर्माण हुआ।

गद्दी त्याग

सुल्तान जहां बेगम के धैर्य की परीक्षा अभी बाकी थी। सन् 1924 में दोनों बड़े  बेटे नसरुल्ला खान और ओबैदुल्ला खान का निधन हो गया। बेगम गहरे सदमे में थी। वे बुजुर्ग भी थी और जवान बेटों की विदाई ने झकझोर कर रख दिया था। रिवाज के हिसाब से नसरुल्लाह खान के बड़े पुत्र ने उत्तराधिकार पाने की कोशिश की। लेकिन बेगम का सबसे छोटे और एकमात्र जीवित पुत्र हमीदउल्लाह खान पर विशेष स्नेह था। वे पढ़े लिखे और योग्य भी थे। बेगम ने गद्दी छोड़ने का फैसला कर लिया। ब्रिटिश सरकार से उन्होंने हमीद उल्ला खान को गद्दी नशीन करने के लिए सहमति प्राप्त कर ली।

दि. 9 जून 1926 को सदर मंजिल में गद्दी नशीनी का दरबार भरा और भोपाल रियासत की बागडोर नवाब हमीदउल्ला को सौंप दी गयी। इस प्रकार एक शताब्दी तक भोपाल में महिलाओं का शासन रहने के बाद बागडोर एक पुरुष सदस्य के हाथों में आ गया।

लेखक जाने माने इतिहासकार हैं।

© मीडियाटिक

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