छाया : विकिपेडिया
• 1817 में हुए अंग्रेज-मराठा युद्ध के पश्चात सक्रिय रूप से प्रशासन में आईं ।
• युद्ध में हार के बाद भी कृष्णाबाई की बदौलत ही बच पाया था होलकर साम्राज्य का अस्तित्व।
• मल्हार राव होलकर के निधन के बाद उनके छोटे पुत्र को उत्तराधिकारी के रूप में सर्वसम्मति से चयन कराने में रहीं सफल।
• दान पुण्य, धार्मिक और निर्माण कार्यों तथा असहायों की सहायता के लिए सदैव रहीं तत्पर।
इंदौर में कान्ह नदी के तट पर शिवाजीराव महाराज, तुकोजीराव महाराज (द्वितीय), यशवंतराव होलकर (द्वितीय) और मनोरमा राजे के साथ ही कृष्णा बाई की समाधि भी है। राजमाता कृष्णा बाई होलकर महाराजा यशवंत राव होल्कर प्रथम की उप पत्नी व मल्हार राव होल्कर द्वितीय की माता थीं। उनका दूसरा नाम केसरबाई था। महारानी तुलसाबाई,यशवंत राव की पहली पत्नी थीं, इसलिए कृष्णाबाई को अधिकृत तौर पर रानी नहीं कहा जाता था। लेकिन राजपूत और मराठा शैली में बनी इन छत्रियों को कृष्णाबाई के नाम से ही कृष्णपुरा की छत्री के तौर पर पहचाना जाता है।
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दरअसल कृष्णाबाई की बदौलत ही 1817 के होलकर-मराठा युद्ध में हार के बाद भी होलकर साम्राज्य का अस्तित्व बच पाया था। युद्ध के समय कुछ अंग्रेज अधिकारी इसे अपने राज्य में शामिल करना चाहते थे। वहीं कुछ होलकरों की जगह अपने किसी खास सरदार को गद्दी पर बैठाना चाहते थे। कृष्णाबाई ने प्रधानमंत्री तात्या जोग के साथ मिलकर ऐसी कूटनीति रची, जिसके कारण होलकर साम्राज्य को मिटाने का अंग्रेजों का सपना पूरा नहीं हो सका। उन्होंने अंग्रेजों के साथ जो संधि की उसे मंदसौर की संधि कहते हैं। इस संधि के बाद अंग्रेजों ने होलकरों से सेना रखने का अधिकार छीन लिया और उनके राज्य में एक रेसीडेंट भी नियुक्त कर दिया, लेकिन वे होलकर साम्राज्य को मिटा नहीं पाए। संधि के कुछ सालों बाद 1849 में मराठा सरदारों ने ही कृष्णाबाई की हत्या कर दी थी।
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कृष्णाबाई एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। उन्होंने लगभग पौने तीन सौ साल पहले अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर उन्होंने एक हनुमान मंदिर का निर्माण कराया था, जिसमें हनुमान जी, शनिदेव के ऊपर पैर रखकर खड़े हैंं। सन् 1832 ई०में उन्होंने श्रीकृष्ण का मंदिर बनवाया, जिसे गोपाल मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर की छत 20 मजबूत स्तंभों पर बनी है। कहा जाता है कि जब रियासत के खास लोगों ने भवन की मजबूती को लेकर आशंका जताई तो मल्हार राव (द्वितीय) और कृष्णा बाई ने छत पर हाथी नचा कर जाँच करने के आदेश दे दिए। निर्माणकर्ता ठेकेदार ने मजबूत बांस-बल्लियों से एक चौड़ी सीढ़ी बनाकर उसके माध्यम से हाथी को गोपाल मंदिर की छत पर घुमाया ही नहीं बल्कि नचाया भी। इसके बाद जन्माष्टमी पर मंदिर की विधिवत शुरुआत हुई। कुछ सालों पहले जब मंदिर परिसर में जीर्णोद्धार के लिए खुदाई हुई तो वहां बनी सुरंगें देखकर लोग आश्चर्यचकित रह गए। इन सुरंगों से कृष्णाबाई की दूरदृष्टि और व्यावहारिकता का पता चलता है। माना जाता है कि अंग्रेज़ों से युद्ध की सम्भावना के मद्दे नज़र इन सुरंगों का निर्माण किया गया था।
संदर्भ स्रोत : विभिन्न समाचार पत्र एवं ब्लॉग
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