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• धार क्षेत्र की क्रांति की रहीं सूत्रधार
• पति के देहांत के बाद संभाला राज भार
• धार क्षेत्र के लोगों को जीवन पर्यंत देती रही क्रांति की प्रेरणा
• अपनी सेना में अरब, अफगान और मकरानियों को किया नियुक्त
• निडर होकर करती रहीं अंग्रेजों का विरोध
• स्वतंत्र विचारधरा की थी समर्थक
अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध क्रान्ति का झण्डा बुलन्द करने में भारत की वीरांगनाएं भी पीछे नहीं रही हैं। रानी द्रोपदी बाई भी एक ऐसी ही धार क्षेत्र में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने वाली क्रान्तिकारी आत्मा थी। उसने अपने बलिदानों से नारी जाति का मुख उज्ज्वल कर दिया है। वह जन-क्रान्ति की जीती-जागती मिशाल थी, एक चिन्गारी थी।
मध्य भारत में धार नामक एक छोटी-सी रियासत थी, जिसका क्षेत्रफल लगभग ढाई हजार वर्ग मील था। उस छोटे से राज्य की राजधानी का नाम भी धार था। दिनांक 22 मई 1857 को अचानक धार के राजा की हैजे से मृत्यु हो गई। राजा साहब ने अपने निधन की पूर्व संध्या पर अपने छोटे भ्राता आनंद राव को गोद ले लिया। उस समय आनंद राव की उम्र केवल तेरह वर्ष थी और वह किशोरावस्था में था। उसके अवयस्क होने के कारण राज-काज को भली-भांति सुचारु रूप से चलाने के लिए दिवंगत राजा धार की पत्नी व बड़ी रानी द्रोपदी बाई ने अपने को अल्प वयस्क राजा का प्रतिसंरक्षक घोषित कर दिया।
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दिनांक 28 सितम्बर सन 1857 को अंग्रेजी हुकूमत ने आनंद राव को धार का राजा स्वीकार कर लिया। लेकिन आगे चलकर लार्ड डलहौजी ने भारतीय राजा-नवाबों को किसी के गोद लेने के अधिकार से वंचित करने का ऐलान कर दिया। परिणाम स्वरूप राजा और ताल्लुकेदार अंग्रेजों की इस नीति से असंतुष्ट होने लगे और उन्होंने क्रुद्ध अंग्रेजों के विरुद्ध होने वाली बगावत में भाग लिया। यद्यपि धार राज्य में स्थिति बिल्कुल विपरीत थी, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने अल्प वयस्क आनन्द राव बाला साहब को राजा स्वीकार कर लिया था, परन्तु फिर भी रानी द्रोपदी बाई ने धार में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की प्रेरणा दी। रानी द्रोपदी बाई के राज्य-संरक्षण के कार्य-भार को संभालते ही समस्त प्रदेश में क्रान्ति की प्रचण्ड लपटें व्याप्त हो गईं। चारों ओर अंग्रेजी विदेशी शासन की भर्त्सना होने लगी और अंग्रेज़ों के प्रति जनमानस में कटुता की भावना उत्पन्न हो गई। लोग अंग्रेजों के कट्टर दुश्मन बन गए।
रानी द्रोपदीबाई ने रामचन्द्र बापू जी को अपना दीवान नियुक्त किया। अधिकारियों को यह विश्वास था कि धार का राज-दरबार उनका सहयोगी सिद्ध होगा। परन्तु उनको आशा के विपरीत धार की राजमाता रानी द्रोपदीबाई तथा दीवान रामचन्द्र बापूजी ने उनके विरुद्ध विद्रोह का झण्डा फहरा दिया। राज्य-भार व सत्ता संभालते ही उन्होंने अपनी सेना में अरब, अफगान और मकरानियों को नियुक्त करना आरम्भ कर दिया। अंग्रेज़ शासक देशी राज्यों में वेतनभोगी सैनिकों की नियुक्ति के विरुद्ध थे, परन्तु रानी द्रोपदीबाई ने उनकी इच्छा अथवा अनिच्छा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
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उधर रानी द्रोपदीबाई के भाई भीमराव भोंसले भी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध थे। नव नियुक्त हुए धार के सैनिकों को इन्दौर में विद्रोह होने की सूचना प्राप्त हुई। उसी समय धार के सैनिकों ने अमझेरा राज्य के सैनिकों के साथ मिलकर सरदारपुर पर आक्रमण कर दिया। ये लोग वहां से लूट का सामान साथ लेकर आए, जिनमें तीन तोपें भी थीं। इन लोगों के धार लौटने पर रानी द्रोपदीबाई के भाई भीमराव भोंसले ने उनका हार्दिक स्वागत किया। ये लोग लूट के माल के साथ जो तीन तोपें लाए थे, उन्हें रानी द्रोपदीबाई ने धार के राजमहल में रखवा दिया।
दिनांक 31 अगस्त 1857 को धार के दुर्ग पर क्रांतिकारी सेनानियों का अधिकार हो गया। कहा जाता है कि किले पर आधिपत्य स्थापित करने मेें क्रांतिकारी सेनानियों को रानी द्रोपदी बाई एवं राज दरबार का समर्थन प्राप्त था। अंग्रेज सेना के कर्नल ड्यूरंड ने राजमाता द्रोपदीबाई एवं राज्य दरबार के अन्य सदस्यों को कड़ी चेतावनी देते हुए एक रोष पत्र भेजा था, जिसमें यह लिखा था कि भविष्य में जो भी कठोर कदम उठाया जाएगा, उसके लिए वे लोग स्वयं उत्तरदायी होंगे। परन्तु इस कड़े पत्र का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था।
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द्रोपदीबाई एवं राज दरबार द्वारा विद्रोह को प्रेरित किए जाने के कारण ब्रिटिश सेना के कर्नल ड्यूरंड अत्यधिक चिंतित होने लगे, उनके पास हैदराबाद, नागपुर, सूरत, उज्जैन तथा ग्वालियर जैसे दूरवर्ती स्थानों से खबरें आ रही थीं कि दशहरा पर्व गुजर जाने के पश्चात समस्त मालवा क्षेत्र में क्रांति की अग्नि प्रज्वलित हो जाएगी। हैदराबाद तथा नागपुर से कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों के मालवा जा पहुंचने की संभावना थी। क्रांतिवीर नाना साहब उसी क्षेत्र में भ्रमण कर रहे थे और स्थिति किसी भी क्षण विस्फोटक व भयावह हो सकती थी। उन्होंने 12 अक्टूबर सन् 1857 को अपनी कुछ सेना मंदसौर की ओर रवाना कर दी तथा शेष सेना के साथ दिनांक 19 अक्टूबर सन् 1857 को धार की ओर कूच कर दिया था।
जुलाई 1857 से अक्टूबर 1857 तक धार के दुर्ग पर क्रांतिकारियों का अधिकार कायम रहा। दिनांक 2 सितम्बर सन् 1857 को राजमाता द्रोपदी बाई और क्रांतिकारियों के मध्य एक समझौता हो गया। क्रांतिकारी नेता गुलखान, बादशाह खान, सादत खान एवं रानी द्रोपदीबाई के राजदरबार में उपस्थित हुए थे और अब वे बहुत शक्तिशाली और प्रभावशाली हो गए थे। धार का किला अब भी क्रांतिकारियों के ही अधिकार में था। वे प्राय: अंग्रेजों की डाक लूट लेते थे। यहां तक कि उन्होंने अंग्रेजों के कई डाक बंगले भी जलाकर राख कर दिए थे और इस स्थिति में अंग्रेज अधिकारियों का जीवन असुरक्षित व कठिन हो गया था।
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ब्रिटिश सेना दिनांक 22 अक्टूबर सन् 1857 को धार पहुंच गई। उधर क्रांतिकारियों को अपनी सफलता पर पूरा-पूरा भरोसा था और उनका आत्म विश्वास काफी बढ़ा हुआ था। ब्रिटिश सेना ने धार के किले को चारों ओर से घेर लिया, जो कि शहर से बिल्कुल बाहर स्थित था। यह किला मैदान से 30 फीट की ऊंचाई पर बना हुआ था और इसका निर्माण लाल पत्थर से किया गया था। यह काफी विशाल दुर्ग था।
उक्त किले के चारों ओर 14 गोल तथा दो चौकोर बुर्ज बने हुए थे। अंग्रेज सेनाधिकारी को यह यकीन था कि क्रांतिकारी शीघ्र ही उसके सामने आत्म समर्पण कर देंगे। किन्तु अरब और मकरानी सेनानियों में अगाध विश्वास और वीरता के साथ अंग्रेज़ी सेना का सामना किया।
अंग्रेज़ सेना द्वारा किले का घेरा व दिनांक 24 अक्टूबर से लेकर दिनांक 30 अक्टूबर 1857 तक बराबर चलता रहा। क्रान्तिकारियों ने किले के दक्षिण की ओर पहाड़ी पर तीन पीतल की तोपें लगा रखी थीं। इधर ब्रिटिश सेना बराबर गोलाबारी कर रही थी। क्रान्तिकारी सेनानियों ने रानी द्रोपदी बाई व राज दरबार के नाम पर बाहरी राज्यों से संघर्ष में सहायता प्राप्त करने का भी प्रयास किया। अन्त में किले की दीवार में दरार पड़ गई। यह दरार चौड़ी होती चली गई और फिर ब्रिटिश सेना धार के दुर्ग के भीतर प्रवेश कर गई। ऐसे संकट के समय में क्रान्तिकारी सैनिक गुप्त रास्ते से बचकर निकल गए। धार के दुर्ग की दीवारों पर गोलियों के चिन्ह तथा क्रान्तिकारियों द्वारा प्रयोग में लाया गया गुप्त रास्ता आज भी देख सकते हैं।
ब्रिटिश सेना के कर्नल ड्यूरंड ने अपना अधिकार जमाने के उपरांत धार के उक्त दुर्ग को बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। अंग्रेजों ने धार राज्य को अपने आधिपत्य में ले लिया। दीवान रामचंद्र बापूजी तथा अन्य क्रान्तिकारी नेताओं को गिरफ्तार कर मंडलेश्वर कारागृह में डाल दिया। मास फरवरी सन् 1858 में धार राज्य को जब्त करने की पुष्टि की गई। सन् 1860 में आनंद राव बालासाहब के वयस्क होने पर धार का राज्य पुन: उन्हें सौंप दिया गया। लेकिन इतिहास के पृष्ठों में रानी द्रोपदीबाई आज भी नक्षत्र की भांति प्रकाशमान हैं।
साभार: भारतीय स्वातंत्र्य समर के बलिदानी वीर
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