अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाली छापामार योद्धा रानी राजो

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अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाली छापामार योद्धा रानी राजो

छाया : पत्रिका डॉट कॉम

• डॉ. नारायण सिंह परमार

• शहीद पति की मौत का बदला लेने अंग्रेजों के खिलाफ बची-खुची बुंदेली सेना को किया एकत्रित। 

• छापामार हमलों से अंग्रेजों का जीना कर दिया था मुश्किल। 

• रात होते ही अंग्रेजों के कैम्प पर करती थी हमला। 

• रानी राजो के हमले के भय से रात भर सो नहीं पाते थे अंग्रेज सैनिक। 

• अंग्रेजों द्वारा किला घेर लेने पर दी थी प्राणों की बलि। 

• राजो रानी की मृत्यु के बाद ही बुन्देलखंड में अपने पैर जमा पाए थे अंग्रेज

भारतीय इतिहास में आजादी के प्रथम आंदोलन का दर्जा सन् 1857 की क्रांति को दिया जाता है। बुंदेलखंड और छतरपुर जिले में अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई इससे 15 साल पहले ही शुरू हो चुकी थी। इस बात के पर्याप्त ऐतिहासिक सबूत इस अंचल में मौजूद हैं। बुंदेलखंड का इतिहास समृद्ध है, लेकिन यहां इतिहास और साहित्य को लिपिबद्ध करने की अपेक्षा मौखिक परम्परा पर अधिक जोर देने से  इतिहास और साहित्य के साथ कभी भी न्याय नहीं हो पाया है। राजपूत काल में हम विभिन्न रासो ग्रंथों को इतिहास जानने के स्रोतों में शामिल करते हैं लेकिन जगनिक के आल्हाखंड और परमाल रासो को इतिहासकार इसलिए नकार देते हैं क्योंकि इस महागाथा के लोक प्रचलित हो जाने से इसमें इतिहास गौण हो गया है। इसी समस्या के चलते आजादी के आंदोलन में भी बुंदेलखंड के अमर शहीदों को वह स्थान नहीं मिल सका जिसके वे वास्तविक हकदार थे। ऐसा ही अन्याय जैतपुर के राजा पारीक्षित और रानी राजो के साथ भी हुआ है।

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सन् 1757 प्लासी के युद्ध के साथ ही अंग्रेजों की साम्राज्य विस्तार की नीति का शिकार हमारा देश होता है। अंग्रेजों ने देशी राजा और रियासतों को अपने कब्जे में करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए। कहीं राजाओं को सीधे परास्त किया तो कहीं फूट डालकर राज्य हड़पने में सफल रहे।  प्राकृतिक रूप से समृद्ध बुंदेलखंड में अंग्रेज काफी समय बाद आए, इसका कारण यहां की प्राकृतिक विषमता भी है। सागौन, तेंदू, पलाश, बेल के घने जंंगल, पठारी भूमि, और पर्वतमालाओं से परिपूरित बुंदेलखंड पर आक्रमण करने के लिए अंग्रेजों को साहस जुटाना पड़ा। आखिरकार जून 1842 में अंग्रेजों ने पहली बार बुंदेलखंड पर हमला किया। अंग्रेजी सेना कर्नल स्लीमैन के नेतृत्व में राठ के निकट कैथा के मैदान में पहुंच चुकी थी। यहां से बुंदेलखंड की 36 रियासतों को अंग्रेजी फरमान जारी हुआ कि वे अंग्रेजों की अधीनस्थता स्वीकार कर लें। इसके बदले में उन्हें टैक्स वसूलने की रियायत दी जाएगी। वे राजा कहलाएंगे लेकिन अंग्रेजी पॉलीटिकल एजेंट की देखरेख में ही शासन करेंगे। जैसा कि कहा जाता है कि पानीदार यहां का पानी, आग यहां के पानी में..। अपनी आन-बान और शान पर सबकुछ न्योछावर करने वाले बुंदेला शासक इतनी आसानी से अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार करने वाले नहीं थे। उस समय बुंदेलखंड में चरखारी, पन्ना, बिजावर बड़े राज्य हुआ करते थे। जून माह में गंगा दशहरा के दिन चरखारी के किला में बुंदेलखंड के राजा इक_े हुए। कहने को तो यहां बुढ़वा मंगल पर्व मनाया जाना था लेकिन हकीकत यह थी कि कैथा के मैदान में डेरा जमा चुकी अंग्रेजी सेना से मुकाबला करने की रणनीति तय होना थी। बुंदेलखंड की 36 रियासतों के राजा यहां पहुंचे। यहां तय हुआ कि अंग्रेजों का सामाना सामूहिक रूप से किया जाए। आधुनिक सुविधाओं से लैस अंग्रेजों का मुकाबला देशी राजा परम्परागत युद्ध सामग्री से नहीं कर सकते थे। इस बात पर सभी राजा राजी हो गए कि आखिरकार कर्नल स्लीमैन की फौज का मुकाबला सामूहिक रूप से होगा। पर यह तय करना मुश्किल हो रहा था कि इस सामूहिक बुंदेली सेना का नेतृत्व कौन करेगा।  इस पर चरखारी नरेश ने पान की बीड़ा रखवाया और घोषणा की कि जो इस बीड़ा को उठाएगा वह बुंदेली सेना का नेतृत्व करेगा। इस पर सभा में सभी सन्न रह गए। इस सभा में जैतपुर (बेलाताल, जिला महोबा, उप्र) के राजा पारीक्षित भी मौजूद थे। वे मात्र 23 साल के थे। जब सभा में कोई पान का बीड़ा उठाने आगे नहीं आया तो राजा पारीक्षित ने उस बीड़ा को उठा लिया। राजा पारीक्षित के बीड़ा उठाते ही सबने यह तय किया कि राजा पारीक्षित के नेतृत्व में बुंदेली सेना अंग्रेजी फौज का सामना करेगी। सभी 36 रियासतों के आकार, आय और ताकत के अनुसार सैन्य बल लिया गया। तीन दिन बाद इस सेना ने कैथा के मैदान में डेरा जमाए अंग्रेजी फौज पर हमला बोल दिया। अचानक हुए हमले से अंग्रेजी फौज आरम्भ में लडख़ड़ाने लगी लेकिन अंग्रेजी सेना के तोपखाने के सामने बुंदेली सेना न टिक सकी और मैदान से पांव उखड़ गए। इस युद्ध में बड़ी संख्या में बुंदेला सैनिक खेत रहे । इस पर सेनानायक राजा पारीक्षित ने छापामार युद्ध करने का फैसला लिया। वे बुंदेली फौज लेकर बगौरा के जंगल में छिप गए। रात होते ही अंग्रेजी कैम्प पर उन्होंने हमला बोल दिया। इस तरह से अंग्रेजी सेना न तो बुंदेलखंड को फतह कर पा रही थी और न ही हार मान रही थी। यह छापामार युद्ध करीब छह माह तक चला। आखिरकार राजा पारीक्षित जोरन (अलीपुरा स्टेट, जिला छतरपुर, मप्र) की गढ़ी में रात विश्राम कर रहे थे इसी बीच किसी देशद्रोही ने अंग्रेजी सेना को उनकी मुखबिरी कर दी। अंग्रेज सेना से जोरन की गढ़ी में राजा पारीक्षित को कैद कर लिया। यहां एक बेहद छोटे कमरे में उन्हें बंधक बनाकर बारूद भर दी। अंग्रेजों ने बारूद के साथ राजा पारीक्षित को यहां जिन्दा जला दिया।

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रानी राजो ने किया डेढ़ साल तक छापामार युद्ध

राजा पारीक्षित को जोरन गढ़ी में जिन्दा जलाए जाने की खबर जैसे ही उनकी रियासत जैतपुर पहुंची तो उनकी रानी राजो ने पति की मौत का बदला लेने का प्रण किया। छतरपुर जिले के टटम जागीरदार बहादुर सिंह की बेटी रानी राजो ने बची-खुची बुंदेली सेना को एकत्रित किया। वे अपने शहीद पति की राह पर चल पड़ीं। रानी राजो ने भी अंग्रेजों पर छापामार हमला शुरू किए। रानी राजो रात होते ही अपने वीर सैनिकों के साथ अंग्रेजों के कैम्प पर हमला बोल देती थी। वे उनके टेन्ट में आग लगाकर जंगल में गायब हो जाती थीं। तत्कालीन इतिहासकार और सहित्यकार लिखते हैं कि रानी राजो के इस छापामार युद्ध के कारण अंग्रेजों की रात की नींद और दिन का चैन छिन गया था। रानी राजो के हमले के भय से अंग्रेज सैनिक रात भर नहीं सोते थे। यह सिलसिला करीब डेढ़ साल तक चला। हमारा इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारतीय कभी भी दुश्मन की बहादुरी से नहीं बल्कि अपने स्वजातीय भाइयों की गद्दारी के कारण ही परास्त होते आए हैं। ऐसा ही रानी राजो के साथ हुआ। वे जब राजगढ़ (चंद्रनगर, जिला छतरपुर ,मप्र) के किला में रात्रि विश्राम कर रहीं थी तभी किसी ने अंग्रेजों की इस बात की सूचना दे दी। घने जंगलों के बीच(वर्तमान पन्ना टाइगर रिजर्व) पहाड़ी पर बने इस दुर्ग को अंग्रेजों ने घेर लिया। चारों तरफ से दुर्ग घेरने के बाद अंग्रेज अफसर रानी राजो को जिन्दा पकडऩे के लिए दुर्ग की ओर आगे बढ़े। जब रानी राजो ने देखा कि वे अब सुरक्षित नहीं हैं तो उन्होंने प्राणों की बलि दे दी। कुछ बुंदेली इतिहासकार यह भी लिखते हैं कि अंग्रेजों द्वारा की गई फायरिंग में रानी राजो की मौत हो गई, लेकिन यह तय है कि रानी राजो का निधन राजगढ़ के किला में हुआ। अंग्रेज उन्हें जिन्दा नहीं पकड़ पाए। राजा पारीक्षित की मौत के डेढ़ साल तक चले इस आजादी के आंदोलन पर यहां अल्प विराम लग गया। अंग्रेजों ने बुंदेलखंड में अपने पैर जमा लिए।

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लोक देवत्व प्राप्त कर चुके हैं राजा पारीक्षित और रानी राजो

आजादी की बलिवेदी पर अपने प्राण न्योछावर करने वाले जैतपुर के राजा पारीक्षित और रानी राजो आधुनिकता के इस चकाचौंध भरे युग में भी लोक देवत्व प्राप्त कर चुके हैं। मैं वर्ष 2007 में  जब जोरन गांव राजा पारीक्षित की समाधि देखने गया तो यहां पर बड़ी संख्या में नारियल के खोल पड़े हुए थे। जोरन यादव बाहुल्य गांव है। यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती के साथ ही पशुपालन है। जर्जर हो चुकी जोरन गढ़ी में एक छोटे से कमरे में एक चबूतरानुमा समाधि पर जब मैंने नारियल के खोल देखे तो स्थानीय लोगों से इस संबंध में जानकारी ली। यहां के लोगों ने बताया कि यह राजा पारीक्षित का चबूतरा है। गांव के लोगोंं के जब जानवर अगर गुम हो जाते हैं तो वे यहां आकर मन्नत मांगते हैं उनके खोए हुए जानवर मिल जाते हैं। जानवर मिलने पर यहां नारियल, पान और बतासे का प्रसाद चढ़ाते हैं। राजगढ़ का किला दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में एक होटल ग्रुप को लीज पर दे दिया गया था। इस ग्रुप द्वारा यहां पर स्थानीय लोगों का आना-जाना प्रतिबंधित कर दिया है। करीब 20 साल से इस किला में तोडफ़ोड़ की जा रही है। यहां अब स्थानीय लोग तो नहीं पहुंच पाते हैं लेकिन दशहरा पर चंद्रनगर, पाटन, राजगढ़, भियांताल सहित अन्य गांव के लोग किला के बाहर राजा पारीक्षित के नाम से नारियल जरूर चढ़ाने जाते हैं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

© मीडियाटिक

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Comments

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