छाया : ज्ञान सरिता
• एक दूसरे के पराक्रम से प्रभावित होकर परस्पर प्रेम करने लगे थे नल-दमयंती।
• नल का रूप धर स्वयंवर में आ गए थे देवता, अपनी सूझबूझ से दमयंती ने असली राजा को पहनाई जयमाला।
• अपने भाई से जुए में हारने के बाद दमयंती सहित नगर से बाहर निकल गए थे नल।
• कलियुग के वश में होने के कारण निर्जन वन में अपनी पत्नी को सोती छोड़कर चले गए थे नल।
• दमयंती के सतीत्व के प्रभाव से राजा नल के दुःखो का भी हुआ अन्त।
भारतीय प्राचीन कथाओं में नल-दमयंती के किस्से सदियों से कही और सुनी जाती रही है। इस कथा का सबसे पहला उल्लेख ‘महाभारत’ में है। जुए में राजपाट हार जाने के बाद युधिष्ठिर को यह कथा ऋषि बृहदश्व ने सुनाई थी। कथा में दिए गए विवरणों और प्रचलित मान्यताओं के अनुसार कई कोणों से रानी दमयंती का सम्बन्ध मध्यप्रदेश से निरूपित किया जा सकता है। मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में स्थित ऐतिहासिक नगर नरवर के बारे में मान्यता है कि इसकी स्थापना राजा नल ने की थी। इसके अलावा दमोह नगर के बारे में भी मान्यता है कि उसे रानी दमयंती ने बसाया था। दमोह का प्राचीन नाम दमकनपुर था जिसकी पुष्टि चौपड़पट्टी नामक गाँव में मिले एक शिलालेख से होती है। आज भी दमोह में दमयंती बाई का किला देखा जा सकता है, जिसे संग्रहालय में बदल दिया गया है। हालाँकि किले की संरचना मुगलकालीन लगती है। इसे रानी दमयंती बाई का किला कब से कहा जा रहा है, यह निश्चित नहीं है। इसके अलावा 1989 में स्थापित जिला संग्रहालय को भी रानी दमयंती जिला पुरातात्विक संग्रहालय का नाम दिया गया है।
दमोह जिला अधिवक्ता संघ की पुस्तक न्याय वाटिका सन 2000 में प्रकाशित हुई थी, जिसमें प्रकाशित एक लेख के अनुसार दमयंती का जन्म विदर्भ में हुआ था। उनके पिता थे राजा भीम। मूल कथा के अनुसार विदर्भराज भीम की राजधानी कुण्डिनपुर थी। अतीत में विदर्भ राज्य का विस्तार मध्यप्रदेश के नर्मदा तट तक फैला हुआ था। अतः दमोह के निकट स्थित कुण्डलपुर संभवतः तत्कालीन विदर्भ देश की राजधानी कुण्डिनपुर रहा हो। राजा भीम को अपने गुरु दमन ऋषि के प्रति इतनी आस्था कि उन्होंने अपने पुत्रों के नाम दम, दांत और दमन रखे थे और पुत्री का नाम दमयंती रखा था। दमयंती ने कई अवसरों पर राजा नल को बहुमूल्य सुझाव दिए जिसके कारण कई मुसीबतों से उन्हें छुटकारा मिला।
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नल दमयंती एक दूसरे के रूप, गुण और पराक्रम के बारे सुनकर ही परस्पर प्रेम करने लगे थे। सबसे पहली समस्या तो विवाह के लिए आयोजित स्वयंवर में ही उत्पन्न हो गई। राजा नल समेत देवराज इंद्र, वरुण, अग्नि, यम और कलियुग सहित सभी देवतागण इस स्वयंवर में अपना भाग्य आजमाने निकल पड़े। देवताओं को पता चला कि दमयंती तो मन ही मन नल का वरण करने का निश्चय कर चुकी है तो उन्होंने एक चाल चली। जब जयमाल लेकर दमयंती स्वयंवर में पहुंची तो उसने समान वेशभूषा वाले पांच-पांच नल राजाओं को विराजमान पाया। वह एक एक को देखते हुए आगे बढ़ने लगी लेकिन पहचान नहीं पा रही थी। फिर उसने कुछ संकेतों पर ध्यान देना शुरू किया – देवताओं के शरीर पर पसीना नहीं था, उनकी पलकें स्थिर थीं, उनके गले में पड़े फूलों के हार कुम्हलाये हुए नहीं थे, वे सिंहासन पर बैठे थे लेकिन पैर धरती को नहीं छू रहे थे और उनकी परछाई भी नहीं बन रही थी, जबकि एक नल रूपधारी के गले में पड़ी फूलों की माला कुम्हला चुकी थी, साथ ही उनमे सभी मानवीय लक्षण भी नज़र आ रहे थे। दमयंती ने अंततः जयमाल असली राजा नल को पहना दी और देवतागण देखते रह गए। इसके बाद राजा नल अपनी नवविवाहिता को लेकर राजधानी लौट आए और आनंदपूर्वक अपनी गृहस्थी और राजपाट दोनों संभालने लगे। कुछ समय बाद उन्हें एक पुत्री और एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिनके नाम रखे गए इन्द्रसेना और इन्द्रसेन।
इधर स्वयंवर के बाद जब सभी देवतागण लौट रहे थे तो रास्ते में कलियुग और द्वापर की भेंट हो गई। कलियुग ने कहा कि वे दमयंती के स्वयंवर में जा रहे हैं। यह सुनकर हँसते हुए इंद्र ने कहा –स्वयंवर समाप्त हो चुका, दमयंती ने राजा नल का वरण कर लिया है और हम सभी देवता देखते रह गए। यह सुनकर कलियुग को बड़ा क्रोध आया, उसने कहा –“ देवताओं को छोड़कर उसने मनुष्य का वरण किया, इससे बड़ा अपमान भला क्या हो सकता है! इसे तो दंड देना चाहिए। देवताओं ने कलियुग को समझाने की चेष्टा की लेकिन कलियुग का क्रोध शांत नहीं हुआ। वह राजा नल की राजधानी में जाकर अवसर की ताक रहने लगा। वह उनके शरीर में प्रवेश करना चाहता था लेकिन ऐसा तब तक संभव नहीं था जब तक राजा नल कोई अपवित्र आचरण न करें। एक दिन राजा नल लघुशंका के बाद बिना पैर धोये संध्या पूजा में बैठ गए। कलियुग को 12 वर्षो की प्रतीक्षा के बाद अवसर मिला और वह राजा नल के शरीर में प्रवेश कर गया। कलियुग ने राजा नल को सजा देने के लिए द्वापर से भी मदद मांगी थीं, इसलिए वह जुए के पांसों में जाकर बैठ गया । अब कलियुग ने नल के छोटे भाई पुष्कर को उकसाया कि तुम नल के साथ जुआ खेलो, हम तुम्हारी मदद करेंगे और तुम राजा बन जाओगे। पुष्कर भी प्रलोभन में आ गया और दोनों भाइयों को बीच जुए के पांसे चलने लगे। पांसों में विराजमान द्वापर के कारण राजा नल हारने लगे। महीनों तक बिसात बिछी रही। दमयंती यह सब देखकर चिंतित हो उठीं। आने वाले समय की कल्पना करते हुए उन्होंने अपने दोनों बच्चों को अपने विश्वस्तों के साथ कुण्डिनपुर (विदर्भ देश अपने पिता के पास) भेज दिया।
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इधर सब कुछ हार जाने के बाद पुष्कर ने दमयंती को दांव पर लगाने की बात कही तो राजा नल ने अपनी हार स्वीकार ली और साधारण वस्त्रों में पत्नी के साथ महल से निकल गए। भूखे – प्यासे भटकते हुए राजा नल ने एक दिन अपने आसपास कई पक्षियों को उड़ते हुए पाया, उनके पंख सोने के थे। नल ने सोचा अगर ये पंख मिल जाएँ तो कुछ धन की व्यवस्था हो जाए उन्होंने अपना वस्त्र एक पक्षी पर डाल दिया, लेकिन वह पक्षी वस्त्र लेकर उड़ गया। दुखी राजा नल ने उसी रात पत्नी की साड़ी का आधा हिस्सा काट पहले अपनी नग्नता को ढका फिर उसे सोता हुआ छोड़ अज्ञात स्थान की ओर चल पड़े। वे दमयंती की दुर्दशा के लिए स्वयं को दोषी मान रहे थे। भूख-प्यास से बेहाल अनेक कष्टों को झेलती हुई दमयंती की हालत ऐसी हो गयी कि सड़क पर खेलते हुए बच्चे उसे पागल समझकर पत्थर मारने लगे। वह चेदि नरेश सुबाहु की राजधानी थी। राजमहल की खिड़की पर बैठी राजमाता ने उसे देखा तो अपने पास बुला लिया। उसकी कहानी सुनी और पति को ढूँढने का आश्वासन दिया लेकिन दमयंती ने उन्हें अपना वास्तविक परिचय नहीं बताया।
इधर राजा नल पत्नी को छोड़कर वन की तरफ बढ़ गए जहाँ भीषण आग लगी थी। तभी एक तेज आवाज़ आई –“राजा नल मुझे बचाओ! नल उस आग में घुस गए। वहाँ नागराज कर्कोटक कुंडली बांधे हुए पड़े हुए थे जिसे राजा नल ने उठा लिया। कर्कोटक ने कहा तुम अभी मुझे धरती पर मत डालना, कुछ पग धरती पर गिनती करते हुए चले। नल पग गिनते हुए चलने लगे और जैसे ही उन्होंने दस कहा, कर्कोटक उन्हें डस लिया। दरअसल कर्कोटक तभी किसी को डसता जब कोई दस अर्थात डस कहता। सर्प के डसते ही राजा नल का चेहरा बदल गया और वे कुरूप हो गए। कर्कोटक ने कहा –आपको कोई पहचान न सके इसलिए मैंने डसा है, आपके शरीर में कलियुग का वास है, मेरे जहर से उसे बहुत तकलीफ होगी और वह आपको मुक्त कर देगा। अब आप अपना नाम बदल कर बाहुक रख लें और जुए में प्रवीण अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण की नगरी में जाएं। आप उन्हें घोड़ों को साधने वाली विद्या सिखाना और वह आपको जुए का गुर सिखा देंगे। “राजा नल वहाँ से अयोध्या पहुंचे और स्वयं का परिचय घोड़े साधने में कुशल साईस, रसोइये और सलाहकार के रूप में देते हुए अपने लिए नौकरी की मांग की जो उन्हें सहज ही मिल गई।
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तीसरी तरफ दमयंती के पिता विदर्भ राज भीम को इस समस्त घटनाओं की जानकारी हुई तो बेटी-दामाद को ढूंढने अपने कई लोगों को भेज दिया। उन्हीं में से किसी ने दमयंती को चेदि नरेश के महल में देख लिया और विदर्भ राज ने उसे अपने महल में बुला लिया । यह भी उद्घाटित हुआ कि जिस राजमाता ने दमयंती को संरक्षण दिया था वे उसकी सगी मौसी थीं। दमयंती के मिल जाने के बाद नल की खोज शुरू हुई। दमयंती ने अनुचरों से कहा कि अलग अलग राज्यों में जाकर मेरी दशा का वर्णन करना और यदि कोई उत्तर मिले तो मुझे सूचित करना। एक दिन पर्णाद नामक ब्राह्मण ने सूचना दी कि अयोध्या में राजा ऋतुपर्ण के घोड़ों को साधने वाले एक व्यक्ति ने प्रतिक्रिया कहा कि त्यागने वाला पुरुष विपत्ति में पड़ने के कारण दुखी और हताश था। सत्य है पत्नी को वन में इस प्रकार छोड़ना अनुचित है लेकिन वह चिंतित और दुर्दशाग्रस्त था। इसलिए उस पर क्रोध नहीं करना चाहिए। परन्तु वह व्यक्ति बड़ा ही कुरूप है। वह तो राजा नल नहीं हो सकता।
इसके बाद दमयंती ने अपनी माता से कहा कि जिस प्रकार सुदेव ने मुझे यहाँ तक पहुंचाया है वैसे ही वह अयोध्या जाए और मेरे पति को लाने का प्रयास करे। लेकिन यह बात आप पिताजी से न कहें। पुनः दमयंती ने सुदेव से बुलाकर कहा कि आप अयोध्या जाकर राजा ऋतुपर्ण से कहें कि राजा नल जीवित हैं अथवा नहीं कोई नहीं जानता, इसलिए दमयंती का दूसरा स्वयंवर हो रहा है जिसमें सभी बड़े-बड़े राजा और महाराजा आ रहे हैं। सुदेव ने जैसे ही राजा ऋतुपर्ण को यह समाचार दिया, ऋतुपर्ण ने अस्तबल के प्रभारी बाहुक (नल) को रथ हांकने के लिए नियुक्त किया और स्वयंवर की जानकारी देते हुए एक ही दिन में वहां तक पहुंचाने के लिए कहा। यह सुनकर नल जड़ हो गए। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि उनकी पत्नी फिर से स्वयंवर रचा रही है। सत्यता जानने के लिए वे वहां जाने को राजी हो गए। रास्ते में ऋतुपर्ण ने बाहुक को द्यूत विद्या सिखा दी और बदले में बाहुक से अश्व विद्या सिखाने का वचन ले लिया। द्यूत विद्या सीखते ही बाहुक(नल) के शरीर से कलियुग कर्कोटक सर्प के जहर को उगलते हुए बाहर आ गए।
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लेकिन अभी भी उनका रूप नहीं बदला था। शाम तक वे दोनों विदर्भ देश पहुंच गए, ऋतुपर्ण के विश्राम की व्यवस्था महल में हुई जबकि बाहुक को अस्तबल में जगह मिली। दमयंती रथ की चाल और उसकी घरघराहट से समझ चुकी थीं कि उसे हांकने वाले राजा नल ही हैं। उन्होंने अपनी दासी केशिनी को बुलाकर कहा कि अस्तबल में जाकर पता लगाओ कि वह कुरूप पुरुष कौन है। दासी ने बाहुक से पूछा तो अपना परिचय एक रसोइये और घोड़े साधने वाले के रूप में दिया। फिर उसने नल के बारे में पूछा तो बाहुक ने उत्तर दिया कि वे वेश बदलकर रह रहे हैं और उन्हें सिर्फ उनकी पत्नी पहचान सकती है। यह सुनकर केशिनी लौट आई लेकिन बाहुक की चतुराई और कुछ दिव्य लक्षणों के बारे में बताया। यह सुनकर इस बार दमयंती ने अपने बच्चों को केशिनी के साथ भेज दिया। बाहुक (नल) अपने बच्चों को देखकर विकल हो गया, आँखों से आंसू बहने लगे लेकिन फिर स्वयं को नियंत्रित करते हुए कहा कि मेरे बच्चे भी इसी उम्र के होंगे इसलिए मैं भावुक हो उठा था।
इस प्रतिक्रिया को देखकर दमयंती ने अंत में बाहुक को रनिवास में बुलवाया और प्रश्न किया – बाहुक! एक धर्माचारी राजा निर्जन वन में अपनी पत्नी को सोती छोड़कर चले गए थे। क्या तुम उन्हें जानते हो? इतना सुनते ही बाहुक के धैर्य का बाँध टूट गया और वह फूट फूटकर रो पड़ा। उसने कहा – मैंने जानबूझकर यह अपराध नहीं किये, न जानबूझकर अपने राज्य का नाश किया। मैं कलियुग के वश में था, जो अब मुझे छोड़कर जा चुका है। यह तो बताओ तुम कैसे दूसरे विवाह के लिए राजी हो गई। यह सुनकर दमयंती ने आश्वस्त करते हुए कहा कि यह जुगत उसे ही सामने लाने के लिए की गई थी। अब तक नल अपने वास्तविक स्वरूप में आ चुके थे। दमयंती ने उन्हें बच्चों से भी मिलवाया। वास्तविकता जान ऋतुपर्ण सहर्ष वापस लौट गए। नल वापस अपने नगर लौटे, भाई को जुए के लिए आमंत्रित किया और इस बार उन्ही की जीत हुई। खोया हुआ राजपाट सब वापस मिल गया। उन्होंने सेना भेजकर अपनी दमयंती और बच्चों को अपने पास बुला लिया।
सन्दर्भ स्रोत – दक्षिणकोसल टुडे पर प्रकाशित कलिंगा विश्वविद्यालय, रायपुर के शोधार्थी विजय कुमार शर्मा के शोधपत्र पर आधारित
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