रानी अवंती बाई जिनकी शहादत आज भी है एक राज

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रानी अवंती बाई जिनकी शहादत आज भी है एक राज

छाया: डिंडोरी डॉट को डॉट इन 

•  डॉ. शम्भुदयाल गुरु  

•   रानी दुर्गावती की वंशज थीं अवंति बाई

•   पति थे विक्षिप्त

•   क्रांति के लिए भेजती थी चिट्ठियां -मरो या चूड़ियाँ पहनो   

 •   सन सत्तावन की क्रांति में रामगढ़ बन गया था क्रांति का केंद्र

•   रानी की शहादत अथवा जीवित रहने का कहीं नहीं है उल्लेख

रामगढ़ की रानी अवंती बाई ने वीरांगना लक्ष्मीबाई की तरह विदेशी सत्ता के विरुद्ध बगावत का झण्डा उठाया और 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में आत्मोत्सर्ग किया। रामगढ़ वर्तमान डिण्डोरी जिले में एक छोटा सा गांव है। उस समय वह मंडला जिले का हिस्सा था, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि वह गाँव ही 1857 में रामगढ़ रियासत का मुख्यालय था। रामगढ़ ही वह स्थान है जो सन सत्तावन की क्रांति में संघर्ष के केन्द्र के रूप में उभरा। गढ़ा मंडला के शासक निजामशाह ने रामगढ़ राज्य गाजीसिंह को राजा की उपाधि के साथ प्रदान किया था। रामगढ़ के तत्कालीन राजा विक्रमाजीत थे। वीरांगना अवन्तिबाई उन्हीं की पत्नी थीं। विक्रम विक्षिप्त थे, अत: ब्रिटिश सरकार ने रामगढ़ को कोर्ट आफ वार्ड में लेकर प्रशासक नियुक्त कर दिया था।

यह स्थिति रानी अवन्तिबाई को नागवार थी। रानी योग्य और कुशल महिला थी। अपने पति राजा विक्रमाजीत की ओर से रियासत का शासन प्रबंध सम्हालने के लिए पूरी तरह सक्षम थी, लेकिन जब ब्रिटिश सरकार ने उनके इस अधिकार की अवहेलना की तो उनका क्रोधित होना स्वाभाविक था। मण्डला-डिंडोरी क्षेत्र सन 1818 में तीसरे अंग्रेज-मराठा युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार के कब्जे में आया था। सन् 1849 में मंडला जिला बना और फिर दो साल बाद, 1851 में रामगढ़ और सोहागपुर को मंडला जिले में मिला लिया गया। जिस समय 1857 में क्रांति शुरु हुई मंडला का डिप्टी कमिश्नर लेफ्टी. एच.एफ. वाडिंगटन जबलपुर में रहकर  मंडला का प्रशासन सम्हाल रहा था।

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रानी का आह्वान

जुलाई, 1857 के प्रारंभ में इस क्षेत्र में विद्रोह के चिन्ह साफ दिखाई देने लगे थे। मालगुजारों ने लगान देने से इंकार कर दिया। अनेक ने कहा कि अब ब्रिटिश राज खत्म हो जाना चाहिए। इस बीच रानी को वीरांगना दुर्गावती के वंशज राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को अंग्रेजों द्वारा तोप से उड़ाये जाने का हृदय -द्रावक समाचार मिला। इस अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध हथियार उठाने का अब रानी ने निश्चय कर लिया। उन्होंने जिले के मालगुजारों, जागीरदारों और ठाकुरों से तुरंत संपर्क स्थापित किया। उन्होंने उनके पास अपने हाथ से लिखा हुआ पत्र भेजा। उसमें लिखा था कि ‘देश के लिए मरो या चूडिय़ां पहनो। तुम्हें धर्म-ईमान की सौगंध है जो इस पत्र का पता बैरी को दो।’  रानी के आह्वान का लोगों पर व्यापक असर हुआ।

सोहागपुर में विद्रोह

तीन अगस्त, 1857 को वाडिंगटन ने जबलपुर के कमिश्नर मेजर इर्सकिन को सूचित किया कि सोहागपुर के निवासी उत्तेजना में हैं और किसी भी समय विद्रोह भड़क सकता है। सोहागपुर के तहसीलदार ने उसे 29 जुलाई को खबर दी थी कि गुरूरसिंह सरबुरहकार (प्रशासक), जो रानी सुलोचना कुंवर का निकट रिश्तेदार है, कोठी निगवानी का तालुकेदार बलभद्रसिंह और जैतपुर का तालुकेदार मोहनसिंह सरकार के विरुद्ध हैं। यह भी कि गुरूरसिंह ने लगान देने से इंकार कर दिया है। उसने और बलभद्रसिंह ने मिलकर सरकारी चपरासी को सोहागपुर की सड़कों पर सरेआम पीटा और उनका विचार है कि भारत में ब्रिटिश सत्ता का शीघ्र ही लोप होने वाला है। डिप्टी कमिश्नर ने पांच सितंबर को फिर सूचित किया कि गुरूरसिंह और बलभद्र सिंह ने सोहागपुर में भारी उत्पात मचाया है। इसके परिणामस्वरूप राजस्व और न्यायिक सेवाओं से जुड़े कर्मचारियों को वहां से पलायन करके शहपुरा की ओर जाना पड़ा है। स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि सोहागपुर के तहसीलदार को भी भागना पड़ा।

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शहपुरा में क्रान्ति की लपटें

शहपुरा के हालात भी बिगड़ रहे थे। वहां का तहसीलदार घबराकर ऐसा भागा कि उसने न तो खजाने को सुरक्षित स्थान पर भेजा और न स्वयं अपने परिवार की कोई व्यवस्था की। पच्चीस सितंबर को शहपुरा  की तहसीली और थाने पर सशस्त्र समूह ने हमला किया और कचहरी तथा थाने में आग लगा दी। सरकारी कर्मचारी डरकर भाग खड़ हुए। इस हमले का नेतृत्व शहपुरा के ठाकुर विजय सिंह ने किया। डिप्टी कमिश्नर को समझते देर नहीं लगी कि मंडला का दो-तिहाई  क्षेत्र क्रांति की चपेट में है। अत: वह घबराहट में था। उसने सोहागपुर, रामगढ़ और शहपुरा के कर्मचारियों को मंडला नगर पहुंचने और शहपुरा का 5000 रुपये का खजाना भी मण्डला ले जाने की हिदायत दी। बगावत की घटनाओं  की सूचनाएं बराबर आती जा रही थीं। पांच अक्टूबर को खबर भेजी गयी कि 26 सितंबर को रामगढ़ में जो भी सरकारी कर्मचारी डटे रह गये थे वे भी पलायन करने को मजबूर हुए हैं और खजाने को रानी के भाई सीताराम, दीवान सुकई और बेटे हीरालाल ने अपने कब्जे में ले लिया है। वाडिंगटन ने इर्सकिन से निवेदन किया कि मण्डला का दो तिहाई क्षेत्र बगावत की गिरफ्त में है इसलिए उसे गार्ड के साथ जबलपुर से मण्डला जाने दिया जाए ताकि वह स्वयं स्थिति का सामना कर सके, परंतु इर्सकिन ने उसे जाने की अनुमति नहीं दी और वह मण्डला की बिगड़ती स्थिति का मूकदर्शक बना रहा।

बगावत का विस्तार

अंतत: 52वीं भारतीय पैदल सेना के 10 विश्वस्थ सैनिकों और कुछ पुलिसवालों के साथ वाडिंगटन 22 अक्टूबर को जबलपुर से रवाना होकर 25 अक्टूबर को मण्डला पहुंचा। इस बीच क्रांतिकारियों ने जबलपुर- मण्डला सड़क  पर नारायणगंज थाने पर कब्जा कर लिया और दोनों जिलों के बीच आवागमन संपर्क को काट दिया। रामगढ़ की ओर से आये लोगों ने घुघरी गांव को लूट लिया परंतु कुछ समय बाद ही सरकार ने उस पर फिर से कब्जा कर लिया, लेकिन स्थिति ने फिर पलटा खाया। खुमानसिंह मोकास, शहपुरा के विजयसिंह और रामगढ़ के  क्रांतिकारियों ने मिलकर घुघरी पर पुन: अधिकार कर लिया। इसके कारण छह नवंबर को तहसीलदार और अन्य लोगों को वहां से खदेड़ दिया गया। क्रांतिकारी मंडला नगर के निकट एकत्र होकर हमले की तैयारी में थे, परंतु उन्होंने हमला नहीं किया। वे मण्डला के आसपास के गांवों में लूटपाट  करते रहे। फिर नारायणगंज थाना भी सरकार के हाथ से चला गया।

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मण्डला पर कब्जा

23 नवंबर को क्रांतिकारी बड़ी संख्या में मण्डला के पास एकत्र हो गये। उन्होंने मण्डला शहर को चारों ओर से घेर लिया। वाडिंगटन ने पुलिस दल उनके विरुद्ध भेजा। डिप्टी कमिश्नर की गोला-बारूद भी समाप्त प्राय: थी।  क्रांतिकारियों ने जबलपुर जाने का रास्ता काट दिया। ऐसी भी सूचना मिली कि नर्मदा के दक्षिण में जाकर वे सिवनी जाने का मार्ग भी काटने की योजना बनाए हैं। स्थिति भयावह देखकर वाडिंगटन ने सिवनी  चला जाना ही बेहतर समझा। इर्र्सकिन ने भी उसे ऐसा ही करने की सलाह दी। अत: 26 नवंबर को वाडिंगटन मण्डला से सिवनी भाग गया। इस प्रकर नवंबर 1857 के अंत तक मण्डला जिला, जिसमें वर्तमान डिण्डोरी जिले का क्षेत्र भी शामिल है, क्रांतिकारियों के झण्डे के नीचे आ गया। करीब डेढ़ माह के बाद वाडिंगटन मण्डला वापस आया। वह 31 दिसंबर को सिवनी से रवाना हुआ।  उसके साथ लेफ्टी, बर्टन की कमान में नागपुर की फौजी टुकड़ी थी। चार जनवरी, 1858 को उसने नारायणगंज में पुलिस चौकी एक बार फिर स्थापित कर ली। उन्होंने आशाजीत नामक क्रांतिकारी  को पकडक़र फांसी पर लटका दिया। जबलपुर-मण्डला सड़क जोड़ने के लिए विद्रोही खुमान सिंह के मुख्यालय मोकास पर कब्जा करना जरूरी समझा गया। सात जनवरी को वाडिंगटन बर्टन ने मिलकर मोकास पर अधिकार कर लिया, जिससे मण्डला से जबलपुर जाने का रास्ता खुल गया। नर्मदा के किनारे जमा क्रांतिकारियों का सफाया करते हुए उन्होंने 15 जनवरी को मण्डला में प्रवेश किया।

रामगढ़ पर आक्रमण

फिर 28 मार्च को नागपुर पैदल सेना लेफ्टी. कॉकबर्न की कमान में मण्डला पहुंची और अगले ही दिन 325 सैनिकों, पुलिसमैन और बंदूकचियों की मिली-जुली शक्ति के साथ बर्टन और कॉकबर्न की कमान में ब्रिटिश फौज ने रामगढ़ की ओर कूच किया।  पहले उन्होंने घुघरी पर आक्रमण किया और वहां से क्रांतिकारियों को खदेड़ दिया। दो अप्रैल 1858 को लेफ्टी. बर्टन ने दो ओर से रामगढ़ पर आक्रमण किया। घबराकर क्रांतिकारियों ने रामगढ़ खाली कर दिया। डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन ने फौरन राजा के निवास को अपने कब्जे में ले लिया। वह इतनी मजबूत इमारत थी कि यदि उसकी प्रतिरक्षा की जाती तो विरोधी सेना द्वारा उसको कब्जे में लेना लगभग असंभव होता।

रानी की शहादत

इस बीच क्रांतिकारियों ने  अनेक स्थानों से सहायता प्राप्त करने में सफलता पायी।  सात दिनों के बाद रामगढ़ कस्बे के सामने खुलकर युद्ध हुआ, जिसमें क्रांतिकारियों की पराजय हो गयी। रानी अपने सैनिकों के साथ जंगल में चली गयीं और वहां से अंग्रेज शिविरों पर आक्रमण करती रहीं, परंतु इनमें से एक आक्रमण घातक सिद्ध हुआ। पुराने मण्डला गजेटियर में लिखा है, वाडिंगटन ने अपनी सेना के साथ उनका पीछा किया। रानी ने पकड़े जाने से आत्मोत्सर्ग बेहतर विकल्प समझकर अपने एक साथी से तलवार लेकर अपने शरीर में घोंप ली। अपनी मृत्यु-शैया पर लोगों को विद्रोह के लिए उन्होंने प्रेरित किया था, अत: वे लोग आरोप-मुक्त हैं। अत:  मुनादी पीटकर रियाया को क्षमादान करने की घोषणा की गयी। पं. द्वारका प्रसाद मिश्र और श्री व्ही.एस. कृष्णन द्वारा संपादित  ‘मध्यप्रदेश में स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास  में भी रानी की शहादत की पुष्टि करते हुए यह भी जोड़ा गया है कि ‘जब वहां अंग्रेज पहुंचे तब वह मरणासन्न थीं।  सिविल सर्जन ने उसे जीवित रखने का बहुत अधिक प्रयास किया, किन्तु उसकी आत्मा को बन्दी न रखा जा सकता था। विजेताओं के हाथ केवल उसका निर्जीव शरीर आया। अपनी प्रसिद्ध पूर्वजा, रानी दुर्गावती के समान उसने रणक्षेत्र में अंतिम क्षण तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए वीरगति प्राप्त की।’

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सन् 1857-58 की घटनाओं के संबंध में मण्डला के मूल दस्तावेजों में उपलब्ध जानकारी ने शोधकर्ताओं को उलझन में डाल दिया है। वाडिंगटन द्वारा इर्सकिन को जुलाई और अगस्त 1858 में भेजे गये पन्नों से जानकारी मिलती है कि रानी जीवित थीं, उन्होंने याचिकाएं भेजीं थीं और वे स्वयं उपस्थित होना चाहती थीं।  फिर ऐसा क्या हुआ जो वे सामने नहीं आयीं? पुराने मण्डला गजेटियर के  सिवाय और कोई दस्तावेजी साक्ष्य अब तक उपलब्ध नहीं हुआ है। प्रश्न यह उठता है कि वह सही न होता तो अंग्रेजों के समय के गजेटियर में शामिल कैसे होता? लेकिन मूल दस्तावेज इस तथ्य को एक नया मोड़ देते प्रतीत होते हैं। निश्चय ही इस बारे में और भी गहन शोध जरूरी है। 24 अप्रैल, 1858 को शहपुरा भी अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। शहपुरा के वीर नेता ठाकुर विजय सिंह, रामगढ़ का राजा और अन्य क्रांतिकारियों  ने रीवा में शरण ले ली। केवल सोहागपुर पर कब्जा होना शेष रहा। उसका किला छोटा परंतु बहुत मजबूत था और बिना तोपों के उसे अधिकार में करना संभव नहीं था। अनुमान था कि किले में 300 क्रांतिकारी मौजूद हैं। इर्सकिन के आदेश पर रायपुर से तीसरी अनियमित पैदल सेना केप्टन बेरन वॉन मेयर्न की कमान में बर्टन की मदद के लिए सोहागपुर पहुंची। रीवा के राजा ने तोपखाना भेजा।अत: सोहागपुर भी अंग्रेजों के हत्थे चढ़ गया। रामगढ़ रियासत जब्त कर ली गयी और सोहागपुर का इलाका रीवा के राजा को उसकी सहायता के लिए इनाम में दे दिया गया।

लेखक जाने माने इतिहासकार हैं।

© मीडियाटिक

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