रेखा चित्र : विश्वास सोनी
• डॉ. शम्भुदयाल गुरु
• रानी के शासनकाल में प्रजा स्वर्ण मुद्राओं और हाथियों के रूप में भरती थी लगान
• हमले के समय उनके पास थे मुट्ठी भर सिपाही
• हाथी पर बैठकर करती थीं युद्ध
• बिना तोप नरही की घाटियों में शत्रुओं को होना पड़ा था पराजित
• आँखों और गले में धंस गए थे तीर
• महावत के मना करने पर खुद ही भोंक ली कटार
• यह शौर्य देखकर अकबर भी हुआ था हैरान
भारतीय इतिहास में समय-समय पर ऐसी वीरांगनाएं अवतरित होती रही हैं जो समय की शिला पर अपनी अमिट स्मृति अंकित कर गयी हैं। ऐसी ही महान विभूतियों में थी गढ़ा-मंडला की रानी दुर्गावती जिसने स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हंसते-हंसते प्राणों की आहूति दी थी। उनके आत्मोत्सर्ग की गौरवगाथा श्रद्धा और प्रेम से गोंडवाने में गायी जाती है। चार सौ वर्ष पूर्व अपना लहू देकर देश की आजादी की रक्षा का प्रयत्न करके दुर्गावती ने उस महान परंपरा को आगे बढ़ाया जिसे निभाने के लिए इससे पूर्व चित्तौड़ की रानी पदमिनी ने जौहर किया था और बाद में अहमदनगर की बेटी चांद बीबी और झांसी की रानी ने तलवार संभाली और अंततोगत्वा प्राण न्यौछावर किये। लगभग सन 1540 में दुर्गावती का विवाह गढ़ा-मंडला के गोंड शासक संग्रामशाह के पुत्र दलपतिशाह से हो गया। दलपतिशाह का कुछ वर्षों के भीतर निधन हो गया। उसकी मृत्यु के समय दुर्गावती ने एकमात्र पुत्र, वीर नारायण की संरक्षिका के रूप में राज्य का सारा कार्यभार अपने हाथों में ले लिया।
इन्हें भी पढ़िये -
रानी रूपमती जिसने की थी रागिनी भूप कल्याण की रचना
समृद्धिशाली गढ़ा
अगले 16 वर्ष तक जिस कार्यकुशलता और साहस से रानी ने सिंगोरगढ़ के किले से जो गढ़ा (जबलपुर) से 30 मील (48 कि.मी.) दूर जबलपुर-दमोह मार्ग के निकट ही दमोह जिले में अवस्थित है, शासन-चलाया। मुस्लिम इतिहासकारों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। आइन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने अंकित किया है कि दुर्गावती के शासन काल में गोंडवाना इतना अधिक समृद्धिशाली था कि प्रजा लगान की अदायगी स्वर्ण मुद्राओं और हाथियों में करती थी। मण्डला में रानी का हाथीखाना था, जहां 1400 हाथी रखे जाते थे। दुर्गावती के शौर्य की प्रशंसा करते हुए अबुल फजल ने लिखा है, ‘दुर्गावती बंदूक और तीर का अचूक निशाना साधती थीं- उनका नियम था कि यदि शेर के प्रकट होने की खबर उनके कान तक पहुंचे तो जब तक उसे अपनी गोली का निशाना न बना लें, वे पानी भी नहीं पीती थीं। शांति की सभाओं में और युद्ध के मैदान में जहां भी हो, उनकी विजय की गाथाएं संपूर्ण भारत में प्रचलित हैं।’
इन्हें भी पढ़िये -
एक गूजर बाला, शादी के बाद जो मशहूर हुई मृगनयनी के नाम से
बाज बहादुर पराजित
माण्डू का नवाब बाज बहादुर जब संपूर्ण मालवा पर अधिकार जमा चुका तो शक्ति के मद में चूर होकर गोंडवाने पर आधिपत्य जमाने का प्रयत्न किया। परंतु, बाज बहादुर न केवल दुर्गावती से पराजित हुआ वरन उसे अपने प्राणों की रक्षा भी करनी पड़ी। अकबर संपूर्ण भारत का सम्राट बनने के स्वप्न पहले से संजोए बैठा था। उसने आसफ खां को गढ़ा राज्य पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। आसफ खां सन् 1564 के मध्य में 10,000 घुड़सवार, प्रशिक्षित और सुगठित पदाति सेना और सशक्त तोपखाने के साथ गढ़ा की ओर चल पड़ा। दमोह में आकर उसने पड़ाव डाला। रानी को आक्रमण की कोई आशंका नहीं थी। अत: उनके अधिकांश सैनिक छुट्टी पर थे या आंतरिक क्षेत्रों में गये हुए थे। वास्तव में उस समय रानी के पास कुल 500 सैनिक थे। मुगलों की अतुल शक्ति देखकर रानी के प्रधानमंत्री, आधार ने परामर्श दिया कि तत्काल युद्ध न किया जाये। पीछे हटकर शक्ति संग्रह करके बाद में मोर्चा सम्हाला जाये। परन्तु रानी की रगों में राजपूतों का खून था, जो मरना जानते थे, पीछे लौटना नहीं। लगभग 2000 सैनिक एकत्र करके रानी ने आसफ खां को चुनौती दी। पहली मुठभेड़ सिंगौरगढ़ के किले के बाहर के मैदान में हुई। उस स्थान पर अब एक गांव उपस्थित है। नाम है सिंगरामपुर (संग्रामपुर)। गौंड सेना की कमान रानी के हाथ में थी। वे हाथी पर सवार होकर स्वयं युद्ध के मैदान में आ डटीं। परंतु आसफ खां की बहुसंख्यक और श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्र से सज्जित सेना से थोड़ी-सी गोंड फौज मुकाबला करती तो आखिर कितनी? रानी को पीछे हटना पड़़ा।
इन्हें भी पढ़िये -
महाकवि केशवदास ने लोहार की बेटी पुनिया को दिया था रायप्रवीण का नाम
नरही का युद्ध
दुर्गावती पीछे हटती गयीं। गढ़ा से 19 कि.मी. दूर नरही ग्राम के पास, विन्ध्याचल की पहाडिय़ों के बीच, एक उपयुक्त स्थान रानी ने चुन लिया। केवल एक संकरी सी घाटी से होकर गांव तक पहुंचा जा सकता था। वहां मोर्चा सम्हाले हुए दुर्गावती दुश्मन का इंतजार करने लगीं। आसफ खां गोंड सेना का पीछा करता हुआ गढ़ा पहुंचा। रफ्तार से आगे बढऩे के कारण तोपखाना उसके साथ नहीं आ सका। गढ़ा से आसफ खां मुगल सेना के घाटी में आते ही रानी ने आक्रमण कर दिया। घमासान युद्ध हुआ, जिसमें मुगलों के 300 से अधिक सैनिक मारे गये। गोंड रणबाकुरों की तलवार के आगे वे टिक नहीं सके और शेष जान बचाकर भागे। रानी की यह प्रारंभिक विजय आश्चर्यजनक है क्योंकि उसके एक सैनिक के मुकाबले आसफ खां के पास दस सैनिक थे। रानी ने अपनी सेना के उच्चाधिकारियों को एकत्र किया और रात्रि को ही आक्रमण करके दुश्मन का काम तमाम कर देने का परामर्श दिया। उसने समझाया कि दूसरे दिन आसफ खां का तोपखाना आ जावेगा, जिसके विरूद्ध गोंडों का खड़ा रहना असंभव होगा। रानी के साथियों ने उसके इस बुद्धिमतापूर्ण परामर्श को क्यों ठुकरा दिया इस संबंध में इतिहास मौन है।
इन्हें भी पढ़िये -
एक गाँव को समृद्ध नगर इंदौर में बदल देने वाली रानी अहिल्याबाई
रानी के पास एक भी तोप नहीं थी। फिर भी दुर्गावती ने साहस नहीं छोड़ा। अपने प्रसिद्ध जंगी हाथी, शर्मन पर सवार होकर वह पुन: मैदान में जा डटी। सुबह से लेकर अपरान्ह तीन बजे तक, घमासान युद्ध में रानी ने अपनी सेना का नेतृत्व किया। सैनिकों के भिड़ जाने पर बाणों और बंदूकों से चल रहा युद्ध भालों और तलवारों के युद्ध में परिणित हो गया। राजा वीरनारायण जो अब 21 साल का था, बहादुरी से लड़ा। तीन बार उसने मुगल सेना को पीछे खदेड़ दिया परन्तु दुर्भाग्य से वह बुरी तरह घायल हो गया। इसलिए रानी ने उसे सुरक्षित स्थान भेज दिया। राजकुमार के हटा लिए जाने से रानी की छोटी सी सेना हतोत्साहित हो गयी।
इन्हें भी पढ़िये -
दास्ताँ भोपाल की अंतिम गोंड रानी कमलापति की
रानी का बलिदान
अब रानी के पास केवल 300 सैनिक शेष थे। लेकिन वह इससे विचलित नहीं हुई और द्विगुणित उत्साह से दुश्मन का मुकाबला करती रहीं। इसी बीच रानी को आंख में और गले में एक के बाद दूसरा तीर लगा। उन्होंने दोनों तीर अपने हाथों से निकाल लिए। परंतु आंख के पास लगे तीर का अग्रभाग घाव में धंसा रह गया, जिससे वह मूर्छित हो गयीं। मैदान मुगलों के हाथ था। परतंत्र जीवन से आजादी की मौत रानी को प्यारी थी। मुगल सेना के हाथ में पड़कर बेइज्जत होने से बचने के लिये रानी ने महावत से कहा कि वह अपनी तेज कटार से उन्हें मार डाले। किन्तु महावत ने ऐसा न करके हाथी को सुरक्षित स्थान पर ले जाने का प्रयास किया। अपमान से मृत्यु को श्रेष्ठ मानकर उन्होंने अपना हृदय कटार से बींघ लिया। इस प्रकार रानी दुर्गावती का अंत भी उतना ही महान और उत्सर्गपूर्ण रहा, जितना कि उनका जीवन अर्थपूर्ण था। दुर्गावती का स्थान इतिहास में जान आफ आर्क और रानी लक्ष्मीबाई के साथ जीवित रहेगा। कर्नल स्लीमेन ने ठीक ही लिखा है कि ‘इतिहास के पृष्ठों में तथा कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करने वाले लोगों की स्मृति में रानी सदा अमर रहेंगी’। जहां रानी परलोक सिधारी, उस स्थान पर एक समाधि बना टी गई थी। आज भी वह जबलपुर से 18 कि.मी., दूर, बारहा ग्राम में विद्यमान है। सन् 1564 से आज तक श्रद्धालु यात्री, संगमरमरी सफेद कंकड़ चुन-चुन कर रानी की समाधि पर चढ़ाते रहे हैं। रानी दुर्गावती के बलिदान की शताब्दी के समारोह के अवसर पर समाधि के पास में एक स्मृति स्तंभ निर्मित किया गया है। उसका अनावरण मप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. द्वारका प्रसाद मिश्र ने 24 जून 1964 को किया था।
लेखक जाने माने इतिहासकार हैं।
© मीडियाटिक
Comments
Leave A reply
Your email address will not be published. Required fields are marked *