• पूर्णिमा दुबे
• कुशल प्रशासिका थीं साधारण परिवार में जन्मी अहिल्याबाई
• 29 वर्ष की आयु में पति को खोने के बाद पुत्र, पुत्री, दामाद सभी का छूटा साथ
• बदल दिया इंदौर को एक गाँव से समृद्ध नगर में
• खुद सुनती थीं नगरवासियों के फ़रियाद
• पशु-पक्षियों तक का रखती थीं ध्यान
• हल में जुते बैलों को पानी पिलाने के लिए अलग से नियुक्त करती थीं कर्मचारी
मालवा साम्राज्य की रानी अहिल्याबाई होल्कर (rani ahilya bai holkar indore) जीवनपर्यंत अपने और अपनी रियासत के अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहीं। महिला सशक्तीकरण की बांतें जो आज के दौर में हम आप देख सुन रहे है, उसकी अलख उन्होंने अपने समय में जगा दी थी। स्वाभाविक है बहुत विरोध का सामना किया, पर अपने उद्देश्य को नहीं छोड़ा। पति और ससुर के निधन के बाद उन्होंने न केवल खुद को संभाला बल्कि राज्य के शासन को संभालते हुए प्रजा की देखभाल भी की। इस समय उन्होंने प्रजा की आवश्यकताओं को समझकर निर्णय लिए और लाभ हानि के तर्क को दूर ही रखा। उनकी इन्हीं विशिष्टिताओं के कारण प्रजाजन ‘देवी’ और ‘लोकमाता’ कहकर सम्मान देने लगे थे।
अहिल्याबाई होल्कर का जन्म 31 मई सन् 1725 में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के जामखेड के चौंड़ी नामक गांव में महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पिता मानकोजी शिंदे धनगर समुदाय के थे और गाँव के सरपंच थे। उनकी माता सुशीला बाई गृहणी थीं। उस समय लड़कियों की शिक्षा कोई महत्व नहीं रखता था, फिर भी मानकोजी शिंदे (manko ji shinde) ने घर पर ही उनके लिए पढ़ाई की व्यवस्था करवाई। उसी दौरान उनमें शास्त्र अध्ययन की रूचि भी जागृत हुई जिसका प्रभाव उनके सम्पूर्ण जीवन में देखा जा सकता है। वे धर्मपरायण और बुद्धिमती महिला थीं। वे बचपन से ही पाप या गलत कर्म करने से डरती थी और धर्मों में रेखांकित पुण्य कर्म करने में उन्हें प्रसन्नता होती थी ।
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उनका विवाह मराठा पेशवा बाजीराव के कमांडर मल्हारराव होल्कर के पुत्र खांडेराव होल्कर (khanderao holkar) से सन् 1735 में हुआ। उस समय उनकी उम्र केवल दस वर्ष थी। विवाह के बाद वे महेश्वर (maheshwar) आ गयीं। इस छोटी उम्र में भी वह बहुत व्यवहार कुशल थी। सास गौतमा बाई की देखरेख में घर के सभी सदस्यों की जिम्मेदारी बहुत जल्द ही संभाल ली थी। गृहस्थी के सभी कार्य इतनी चतुरता और सुघड़ता के साथ करतीं कि सभी सराहना करते। लेकिन पति का व्यवहार अच्छा नहीं था। बात बात पर गुस्सा, क्रूर व्यवहार और किसी भी बात की जिद पकड़ लेना उनका स्वभाव था। अहिल्याबाई ने बड़े धैर्य से उनकी सेवा की और इसी कारण पति का व्यवहार धीरे-धीरे सुधरता गया। खांडेराव राज्य के कार्य में भी रुचि लेने लगे। ससुर बेटे के बदलते व्यवहार से बेहद प्रसन्न हुए। वे जानते थे कि बेटे का व्यवहार बहू के प्रयासों के कारण ही बदल रहा है। वे चाहते थे कि उनका पुत्र युद्ध कौशल भी सीखे। ससुर की इच्छा को समझ कर अहिल्याबाई ने बड़ी कुशलता के साथ पति को युद्ध कौशल सीखने के लिए तैयार किया। समय के साथ परिपक्वता बढ़ी और वे ससुर के सहयोग से राजकाज के कार्य भी देखने लगीं। अपने मृदु स्वभाव के कारण वे राज्य में लोकप्रिय होने लगीं । महत्वपूर्ण मामले जो राज्य के प्रमुख मालेराव से संकोच के कारण नहीं बोल पाते, रानी संयमित और तार्किक विश्लेषण करके बताती तो पेचीदे मामले भी सरलता के साथ सुलझ जाते। उनकी तार्किक बुद्धि और समझ की सभी सराहना करते।
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सन् 1745 में वह बेटे मालेराव (male rao) और तीन वर्ष पश्चात् सन् 1748 में बेटी मुक्ताबाई की मां बनीं। जिम्मेदारियां बढ़ गयीं परन्तु वे कुशलता के साथ परिवार और राजकाज के बीच सटीक संतुलन बनाकर कार्य करती रहीं। अब तक जीवन शांत और संयमित था, तभी उन पर बड़ी विपदा आई। एक युद्ध में उनके पति खांडेराव होल्कर वीरगति को प्राप्त हुए। वैधव्य का दुःख उनके लिए असहनीय था, वे पति के साथ सती होकर जीवन खत्म कर देना चाहती थीं। ससुर के समझाने और परिवार तथा प्रजा की देखरेख के दायित्व को निभाने के लिए वे ऐसा नहीं कर पायीं। उन्होंने अपना जीवन धर्मकर्म और प्रजा हित में अर्पित कर दिया लेकिन उनके हिस्से में आसान जीवन नहीं था। कुछ समय बाद उनके ससुर का भी निधन हो गया। वे अब तक अपने ससुर के मार्गदर्शन में ही राजकाज देख रही थीं, जिनके गुजर जाने के बाद जिम्मेदारियों का पहाड़ उनके कंधों पर आ गया। अपने पुत्र मालेराव को गद्दी पर बिठाकर वे शासन व्यवस्था देखने लगीं, लेकिन बुरे समय का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ था। अहिल्याबाई के पुत्र मालेराव का व्यवहार बहुत खराब था। गलत संगत में रहने के कारण वह अनुशासनहीन और क्रूर स्वभाव का हो गया था। उसके अत्याचार से अहिल्याबाई और प्रजा दोनों ही परेशान थी। अहिल्याबाई ने बहुत कोशिश की उसका व्यवहार सुधारने की पर वे सफल न हो सकी।
एक दिन वह अपने सिपाहियों के साथ कहीं जा रहा था। रास्ते में अचानक उसके रथ के आगे एक छोटा सा बछड़ा आ गया। मालेराव का रथ उस बछड़े को कुचलता हुआ आगे निकल गया और बछड़ा वहीं मर गया। कुछ समय बाद अहिल्याबाई उसी क्षेत्र से निकलीं और उनकी नजर गाय और मृत बछड़े पर पड़ी। उन्होंने वहीं रुककर पूरी बात समझी। महल पहुंचकर उन्होंने सभी दरबारियों को बुलाया और उनसे पूछा कि किसी बच्चे की हत्या की सजा क्या होना चाहिए? सभी ने एक स्वर में कहा-‘मृत्युदंड। एक शासिका के तौर पर अहिल्याबाई न्याय के प्रति समर्पित थीं। उनके लिए उनके पुत्र और प्रजा में कोई अंतर नहीं था। उन्होंने तुरन्त मालेराव को बुलाकर रथ से कुचल देने की सजा सुनायी, ठीक वैसे ही जैसे उसने बछड़े को कुचला था। सभी दरबारी आश्चर्यचकित रह गए। अहिल्याबाई ने आदेश को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए कहा पर कोई भी रथ चलाने के लिए तैयार नहीं हुआ। मजबूरन वे खुद रथ पर सवार हुई मालेराव को सजा देने के लिए। स्थान वही तय किया गया जहां बछड़े की मृत्यु हुई थी। रानी के रथ का पहिया मालेराव के शरीर पर पड़ने ही वाला था कि अचानक वही गाय सामने आकर आड़ी खड़ी हो गयी। रानी और उनके सैनिकों ने गाय को वहां से हटाने की बहुत कोशिश की पर वह टस से मस नहीं हुई । ऐसा माना गया कि गाय नहीं चाहती कि बेटा मां से दूर हो। आखिर रानी ने गाय की भावना को समझकर मालेराव को माफ कर दिया। जिस स्थान पर गाय आड़ी खड़ी हुयी थी, उस स्थान को आज भी आड़ा बाजार के नाम से जाना जाता है। रानी ने अपने जीवन में उस गाय को अपने पास रखकर बहुत सेवा की।
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इस घटना के बाद भी मालेराव के स्वभाव में विशेष परिवर्तन नहीं आया। एक बार अचानक उसका स्वास्थ्य खराब हुआ। सघन इलाज के बाद भी उसे नहीं बचाया जा सका। राज्याभिषेक के मात्र 9 महीने के बाद ही 22 वर्ष की आयु में मालेराव की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई। अहिल्याबाई ने एक स्त्री होकर जिस निपुणता के साथ राज्य को संभाला था वो राज्य के विरोधियों को बिलकुल पसंद नहीं आता था। विरोधियों ने अफवाह फैला दी कि अहिल्याबाई ने ही अपने पुत्र की हत्या करवायी है। इस आरोप का यद्यपि कोई आधार नहीं मिला लेकिन अहिल्याबाई को बहुत मानसिक चोट पहुँची। उस कालखंड में कई ऐसी घटनाएं हुईं जिसने अहिल्याबाई को तोड़कर कर रख दिया। पुत्रवधु पति के साथ सती हो गयीं। उसी समय चक्र में दोहित्र नत्थू और दामाद फणसे भी अल्पायु में चल बसे। पुत्री मुक्ताबाई भी पति के साथ सती हो गयीं । अहिल्याबाई जड़वत अपने परिवार को काल कवलित होते देख रही थीं। अब राज्य में कोई पुरुष शासक नहीं रहा । पड़ोसी राज्य के शासक कब्जा करने के लिए घात लगाकर बैठे थे। असीम मानसिक वेदना की स्थिति में भी वे राज्य की सुरक्षा के लिए खुद गद्दी पर बैठीं। सेनापति तुकोजीराव ने उनका पूरा सहयोग किया। उनके निधन के बाद उन्होंने ही शासन संभाला।
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अहिल्याबाई ने मालेराव की मृत्यु के बाद पेशवा सरकार के अनुरोध पर राज्य कार्य में हाथ बंटाने के लिए मात्र कुछ दिनों के लिए गंगाधर राव (gangadhar rao) को मंत्री बनाना स्वीकार किया। गंगाधर राव बड़ा ही स्वार्थी और कुटिल स्वभाव का मनुष्य था। ससुर मल्हारराव के साथ राज्यकार्य संभालते समय अहिल्याबाई ने उसकी बगुला भक्ति के गुण को परख लिया था। गंगाधर उनसे पूरा राज्य छीन लेना चाहता था। उसने अहिल्याबाई को ईश्वर पूजन में जीवन व्यतीत करने की सलाह दी । लेकिन अहिल्याबाई के गुणों की जानकारी उसे नहीं थी। उन्होंने पूरी विनम्रता के साथ पेशवा सरकार से कहा कि वह अपने पति और ससुर के राज्य को संभाल सकती हैं। समय बीतने पर यह साबित भी हुआ कि एक बिखरे हुए राज्य को जिस कुशलता के साथ उन्होंने संभाला वह किसी सामान्य शासक के लिए भी संभव न था।
कहते हैं कि गंगाधर राव जब अपने मंसूबों पर सफल न हो सका तो उसने रानी को बदनाम करने के लिए पुत्र हत्या का आरोप लगाकर उन्हें बदनाम करने की कोशिश की थी।
निर्माण कार्य में योगदान
अहिल्याबाई ने अपने साम्राज्य महेश्वर और इंदौर में बहुत से मंदिरों का निर्माण करवाया। होल्कर राज्य की संपत्ति की देखरेख का बोझ जनता पर नहीं पड़े इसके लिए खासगी ट्रस्ट बनाया। ट्रस्ट के खाते में 16 करोड़ रुपये जमा हो गए तो इसी राशि से उन्होंने पूरे देश में लगभग 65 मंदिर व अनेक धर्मशालाओं के निर्माण कार्य करवाये।
पूरे भारत में कन्याकुमारी से हिमालय तक और द्वारिका से लेकर पुरी तक अनेकानेक मंदिर, घाट, तालाब, बावड़ियां, पानी की टंकियां, दान संस्थाएं, धर्मशालाएं, कुएं, भोजनालय आदि खुलवाए। सभी धर्मशालाएं उन्होंने मुख्य तीर्थस्थान जैसे गुजरात के द्वारका, काशी विश्वनाथ, वाराणसी का गंगाघाट, उज्जैन, नासिक, विष्णुपद मंदिर और बैजनाथ के आसपास बनवायी। वृंदावन में एक अन्न क्षेत्र और 57 सीढ़ियों की बावड़ी बनवायी। केदारनाथ, बद्रीनाथ, अमरकंटक, अयोध्या, गंगोत्री पुष्कर, मथुरा, रामेश्वर तथा हरिद्वार में भी धर्मशालाएं बनवायीं।
अन्य उपलब्धियां
• उज्जैन में 9 मंदिर और 13 घाटों का निर्माण करवाया।
• काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी- भगवान शिव के प्राचीन मंदिर के वर्तमान स्वरुप का निर्माण सन् 1780 में करवाया।
• बाहरी आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त गुजरात के सोमनाथ मंदिर का उन्होंने पेशवा के साथ मिलकर फिर से निर्माण करवाया बनवाया।
• विष्णुपद मंदिर गया, बिहार: विश्व में यही एक ऐसा मंदिर है जहां भगवान विष्णु के चरण चिन्ह की पूजा की जाती है। इसे धर्मशिला के नाम से भी जाना जाता है। फाल्गु नदी के तट पर बने इस मंदिर का पुनर्निर्माण 1787 में करवाया।
• एलोरा के गणेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।
• बनारस में मणिकर्णिका घाट सन्1777 से 1785 के बीच बनवाया।
• काशी का प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर, महेश्वर के प्रसिद्ध मंदिर व घाट उनकी स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। सड़कें बनवाई और कई सड़कों की मरम्मत भी करवाई।
• अहिल्याबाई ने राज्य में भोजन और पानी की व्यवस्था करवाई जिससे कोई भी बिना भोजन के ना सोये। मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति करवाई जिससे शास्त्रों के बारे में मनन चिंतन हों, प्रवचन हों और प्रजा को धर्म और शास्त्रों में दिखाये रास्ते पर चलने के लिए दिशा मिल सकें।
• अहिल्याबाई का राज्य को संभालने का प्रशासनिक कौशल बहुत खास था। वो हर दिन अपनी प्रजा से बात करती थी। वो एक तीक्ष्ण सोच रखने वाली बुद्धिमान शासिका थी। राज्य का खजाना बहुत सोच समझकर और बहुत जरुरी होने पर ही खर्च करती। वह अनावश्यक न चर्चा करती थी और ना ही खर्चा।
• जमीन के विवाद को निपटाने के लिए खसरा व्यवस्था लागू की। जमीन पर लंबाई में 7 फलदार पेड़ और चौड़ाई में 12 फलदार पेड़ लगवाकर जमीन का विभाजन करवाय। इस तरह विवाद भी निपटाया और पर्यावरण का भी ध्यान रखा।
उनकी कार्य शैली अद्भुत थी। आज के कार्य दूसरे दिन के लिए नहीं रखती थीं। भले ही देर रात तक जागकर कार्य निपटाना पड़े। अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ विनम्र व्यवहार रखतीं। अच्छा कार्य किये जाने पर उनका उत्साह बढ़ाने के लिए पुरस्कृत करती और पदोन्नति भी देती। अमीर-गरीब सबके लिए न्याय व्यवस्था समान थी। हां जब किसी मामले में अंतिम निर्णय सुनाती तो सच के प्रतीक के रुप में अपने माथे पर सोने का शिवलिंग धारण करती थीं। अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए वह जुटी रहती थी। राज्य को लगान वसूली के लिए तीन हिस्से में बांट दिया था। खेती और वाणिज्य व्यापार के क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए बहुत प्रयास किया। सूती वस्त्रों और मशहूर महेश्वर साड़ियों के व्यापार को बहुत बढ़ावा दिया। आज भी पूरे भारत में महेश्वर बुनकरों के द्वारा तैयार की गयी साड़ियों की बहुत मांग है। वे सांस्कृतिक समरसता की पक्षधर थीं। उन्होंने महेश्वर में अनेक मुसलमानों को बसाया और मस्जिदों के निर्माण के लिए धन भी दिया।
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सांस्कृतिक कृत्यों को भी उन्होंने उदार संरक्षण दिया। साहित्यिक क्षेत्र में कविवर मोरोपंत, खुशालीराम, अनंत फंदी उनके दरबार के अनमोल रत्न थे। अनंत फंदी एक महान गायक थे जो लावनियां गाने में निपुण थे। राज्य की सुरक्षा उनके सबसे महत्वपूर्ण कार्यों का हिस्सा होती थी। सेनापति महावीर तुकोजीराव होल्कर प्रथम के नेतृत्व में अनुशासित सेना थी। सेना के प्रबंधन कार्य वो स्वयं परखती थीं। उन्होंने 500 महिलाओं की एक सैन्य टुकड़ी का गठन किया था जिसकी सेनापति स्वयं थी। सेना में ज्वाला नामक विशाल तोप भी थी।
अहिल्याबाई ने जब तक संभव हुआ युद्ध की परिस्थितियों को टाला ताकि अनावश्यक जन हानि ना हो। इससे यह बिलकुल नहीं माना जाना चाहिये कि वे भीरु महिला थीं। उन्होंने कई युद्ध किये- सन् 1766-67 में राघोवा से, सन् 1771 में रामपुरा-मानपुरा के चन्द्रावत राजपूतों से मंदसौर का युद्ध, सन् 1773 में महादजी सिंधिया के सेनापति व उनकी सेना के साथ युद्ध करने पड़े। इन सभी युद्धों की खास बात यह रही कि वे सभी में विजयी रहीं। निडरता, साहस, युद्ध कौशल, नेतृत्व क्षमता ने उन्हें सफलता दिलवायी।
एक महिला होने के नाते उन्होंने विधवा महिलाओं को अपने पति की संपत्ति को हासिल करने और बेटे को गोद लेने में मदद की। दरअसल अहिल्याबाई के मराठा प्रांत का शासन संभालने से पहले यह कानून था कि अगर कोई महिला विधवा हो जाए और उसका कोई पुत्र ना हो तो उसकी पूरी संपत्ति सरकारी खजाने या राजकोष में जमा कर दी जाएगी। लेकिन अहिल्याबाई ने इस कानून को बदलकर विधवा महिला को पति की संपत्ति रखने का हकदार बनाया। इस निर्णय से विधवा महिलाओं की स्थिति मजबूत हुई। उन्होंने होल्कर साम्राज्य की प्रजा का एक पुत्र की भांति लालन पालन किया तथा उन्हें सदैव अपना असीम स्नेह दिया। इस कारण प्रजा के हदय में उनका स्थान एक महारानी की बजाय लोक माता का बन गया।
महारानी अहिल्याबाई 13 अगस्त सन् 1795 को नर्मदा तट पर स्थित महेश्वर के किले में भारतीय इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवाकर सदा के लिए सो गई। उनकी मृत्यु के बाद राज्य के सेनापति तुकोजीराव ने राज्य का शासन भार संभाला।
संदर्भ स्रोत : देवीश्री अहिल्याबाई – लेखक: गोविन्दराम केशवराम जोशी-1916, दैनिक पत्र स्वदेश बहुरंग 17 मई 2015 तथा विकीपीडिया
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