विदिशा के नगर सेठ की बेटी थीं सम्राट अशोक की पहली पत्नी देवी 

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विदिशा के नगर सेठ की बेटी थीं सम्राट अशोक की पहली पत्नी देवी 

रेखा चित्र : विश्वास सोनी

• डॉ. शम्भुदयाल गुरु

देवी के दोनों बच्चों (महेंद्र और संघमित्रा) ने दुनिया भर में किया बौधधर्म का प्रचार, राजसी खून न होने के कारण नहीं बन सकीं सम्राट अशोक की पटरानी, पाटलिपुत्र कभी नहीं गईं, श्रीलंका भेज दिए जाने के बाद बच्चों से कभी नहीं मिलीं, साँची में बनवाया शाल बौद्ध विहार  

विदिशा (उस समय वेदिसगिरी) के नगर सेठ की पुत्री ‘देवी’ सम्राट अशोक की पहली पत्नी थीं. इन्हें शाक्य कुमारी और शाक्यानी भी कहा जाता है. एक कथा के अनुसार राजा प्रसेनजीत के पुत्र विद्दुभ ( विडूडभ)   ने जब अपने  ननिहाल के लोगों को तंग करना शुरू कर दिया तो  शाक्य उसके भय से अपना वतन छोड़कर वेदिसा  चले गये थे।  इस देवी के पिता भी उन्हीं शाक्यों में से एक थे, इसलिए देवी को बुद्ध कुल से सम्बंधित माना जाता है. इतिहास में विदिशा और सांची से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

पिता बिन्दुसार के शासन काल में, अशोक को अवन्ति प्रान्त याने मालवा का  गवर्नर बनाकर भेजा गया। उस समय उनकी आयु मात्र 18 वर्ष थी। अवन्ति राजधानी उज्जयिनी (उज्जैन) थी। पाटलिपुत्र से उज्जमिनी के महापथ पर विदिशा अवस्थित था। स्वाभाविक ही अशोक ने कुछ समय रास्ते में विदिशा में विश्राम किया। विदिशा में उन्होंने नगर सेठ की पुत्री देवी से विवाह कर लिया और उसे अपने साथ उज्जयिनी ले गये। अशोक उज्जयिनी से  11 वर्ष की लंबी अवधि तक अवन्ति प्रान्तु का शासन सम्हालते  रहे। उज्जयिनी में अशोक और देवी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम महेन्द्र रखा गया। इसके दो वर्ष पश्चात एक पुत्री ने जन्म लिया, जिसका नाम संघमित्रा रखा गया।

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बिन्दुसार की मृत्यु का समाचार पाकर अशोक तत्काल पाटलिपुत्र के लिए रवाना हो गये। देवी उनके साथ पाटलिपुत्र नहीं गयीं। वे अपने मायके विदिशा चलीं गयी। अशोक ने 273 से 136 ईसा पूर्व में शासन किया। वे भारत के महानतम और विश्व के महान शासकों में थे। अशोक, महेन्द्र और संघमित्रा को अपने साथ ले गये। संघमित्रा का विवाह अग्निब्रह्मा नामक ब्राह्मण से हुआ, जिसका नाम सुमन रखा गया। कलिंग के युद्ध में हुए  भीषण जन-संहार से अशोक का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने युद्ध को तिलांजलि दे दी और बौद्ध धर्म के अनुयायी हो गये।  इधर महारानी देवी ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। उन्होंने सांची में एक विशाल विहार का निर्माण कराया और वहीं निवास करने लगीं।

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अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए एशिया के विभिन्न देशों में बौद्ध भिक्षुओं को भेजा था। महेन्द्र और संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अशोक ने श्रीलंका भेजा था। वास्तव में महेन्द्र को श्रीलंका जाने वाले धर्माचायों के मण्डल का प्रमुख नियुक्त किया गया था। परंतु श्रीलंका प्रस्थान करने से पहले वह अपनी माता देवी शुभाद्रंगी से आशीर्वाद प्राप्त करने विदिशा आया था। देवी अपने पुत्र तथा पुत्री को चैत्यगिरि ले गयी । चैत्यगिरि सांची की वह पहाड़ी ही है जिस पर स्तूप आज भी विद्यमान है। उन्होंने इनको अपने द्वारा निर्मित विहार में ठहराया। महेन्द्र ने अनेक दिनों तक चैत्यगिरि में निवास किया। तत्पश्चात उसने श्रीलंका के लिए प्रस्थान किया। जाते समय महेन्द्र अपने साथ सांची से वट वृक्ष की एक शाखा लेता गया और उसे वहां जाकर रोपा। विश्वास किया जाता है कि रोपे हुए पौधे से विकसित वट वृक्ष आज भी श्रीलंका में देखा जा सकता है। तब श्रीलंका का नाम सिंहल था।

लेखक जाने माने इतिहासकार हैं।

© मीडियाटिक

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