पद्मा पटरथ : जिनके घर में समाया था ‘लघु भारत’

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पद्मा पटरथ : जिनके घर में समाया था ‘लघु भारत’

छाया : डॉ. गीता शॉ पुष्प 

विशिष्ट महिला 

• डॉ. गीता शॉ पुष्प

पद्मा पटरथ, जी हां यह मेरी माँ का नाम है। उनका जन्म जबलपुर, मध्य प्रदेश में 7 मार्च 1923 को बंगाली (बनर्जी) परिवार में हुआ था। बचपन में मां-बाप की छत्र छाया से वंचित होने के कारण उनकी  नानी ने उनका  पालन-पोषण किया और शिक्षा दिलवाई। पद्मा जी स्कूल में पढ़ाने लगीं तथा कहानियां लिखने लगीं जो उस समय के पत्र-पत्रिकाओं में छपती थीं। जबलपुर संस्कारधानी है। पद्मा जी के कई परिचित साहित्यकार बंधु-बांधव, राखी बन्द भाई थे जैसे रामेश्वर गुरु, भवानी प्रसाद तिवारी, नर्मदा प्रसाद खरे, हरिशंकर परसाई, आदि। ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ की कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान उन्हें अपनी बेटी की तरह मानती थीं। माँ  बंगाली थीं पर उनका विवाह माधवन पटरथ (केरलीन) से हुआ। शादी में माता-पिता की जगह स्वयं सुभद्रा कुमारी चौहान ने पद्मा जी का कन्यादान किया था।

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हमारी मां, बंगाली थीं, पिताजी मलयाली। भिन्न भाषा-भाषी होते हुए भी उन्होंने खुद तो हिन्दी की सेवा की ही, हम दो बहनों और चार  भाइयों को भी हिन्दी सिखलाई।  मां ने एम.ए. हिन्दी, साहित्यरत्न और बी.एड. किया था। हमारे घर में धर्मयुग, सा. हिन्दुस्तान, सारिका, पराग, नन्दन, पालक, मध्यम, नई कहानी, माया, मनोरमा जैसी सभी हिन्दी पत्रिकाएं और कई हिन्दी अखबार आते थे। इस प्रकार हम हिन्दी साहित्यकार और उनकी रचनाओं से परिचित हुए। मां की कहानियां, लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपा करते थे। उनके कहानी संग्रह का नाम है- मील के पत्थर, जिसमें उनकी कुछ विशिष्ट कहानियां संकलित हैं। आईसेक्ट पब्लिकेशन भोपाल ने अठारह खंडों में ‘कथादेश’ प्रकाशित किया है। इसके खंड दो, प्रेमचंद कहानी-एक में पद्मा जी की कहानी ‘मील के पत्थर’ संकलित है। अखबारों के दीपावली विशेषांकों में मां की कहानियां जरूर छपती थीं। इसके अलावा रेडियो पर भी कहानियां एवं वार्ताएं प्रसारित होती थीं। जबलपुर में दिनांक 16 सितंबर 2007 को महिला समिति की हिन्दी दिवस पर पद्मा पटरथ को ‘उषा देवी मित्रा’ सम्मान (मरणोपरान्त) प्रदान किया गया। यह अहिन्दी भाषी महिला के लिए था जिन्होंने हिन्दी में साहित्य सृजन किया।

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माँ एक लेखिका होने के साथ-साथ समाज सेविका भी थीं। हर कदम पर हमारे पिताजी का सहयोग मां  को मिलता रहा। भारत सेवक समाज के शिविरों का संचालन करतीं। छोटे-छोटे गांवों में जाकर लोगों को स्वच्छता, स्वास्थ्य, सुपोषण संबंधी शिक्षा, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, भाषणों, विभिन्न प्रतियोगिताओं के माध्यम से दी जाती थी। सेवक समाज के सदस्य अपने हाथों से  कुएं से पानी खींचकर, साबुन लगाकर गांव के  बच्चों को नहलाते थे। उनके सिर में तेल लगाकर कंघी करते। साफ कपड़े पहनाते। हम भाई-बहन भी इसमें हिस्सा लेते थे। हमारी मां उन शिविरों में भी बराबर जातीं जहां मोतियाबिन्द का मुफ्त आपरेशन होता था। मां उन लागों की सेवा में जुट जातीं। उनके हाल-चाल पूछतीं। उन्हें अपने हाथों से खिचड़ी खिलातीं।

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अपने आत्मीयता भरे मधुर व्यवहार के कारण वे लोकप्रिय थीं। युवा साहित्यकार, पत्रकार सब उन्हें ‘दीदी’ कहते थे। उनमें इतनी सरलता थी कि हमने देखा है, युवा लेखक पत्रकार जैसे कैलाश नारद आदि को वे किचिन के दरवाजे पर ही कुर्सी देकर बिठा देतीं और खाना बनाते हुए साहित्यिक, सामाजिक विषयों पर चर्चा चलती रहती। आगन्तुक को उनके किचिन से ही गरमागरम चाय-पकौड़े भी मिल जाते। इतना अपनाअपन क्या ड्राइंग रूम के सोफे पर मिल पाता। हमें याद है कि सुप्रसिद्ध बंगला लेखक विमल मित्र जी ने भी एक दिन हमारे घर आकर दाल-भात खाया था।

एक बार एक केरलीय बाला टांकमणि का प्रभाकर माचवे को हिन्दी में लिखा पत्र ‘धर्मयुग’ में छपकर चर्चा का विषय बन गया था। इसी टांकमणि से मां की पत्र-मित्रता हो गई थी। जब हम दादी के घर केरल गए तो मां ने जिद पकड़ ली कि सुदूर छोटे से गांव में रहने वाली टांकमणि से मिलना है। तब हम सपरिवार छोटी सी डोंगी में बैठकर नदी पार करके टांकमणि के घर गए  थे। वहां उसकी कुटिया में दक्षिण भारतीय भोजन किया था। उसके पड़ोस में रहने वाले चाचा के घर में बड़ा सा हाथी बंधा देखकर हम रोमांचित हो गए थे।

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पद्मा पटरथ आधुनिक विचारों वाली प्रगतिशील महिला थीं। इनके घर को  ‘लघु भारत’ की संज्ञा दी जाती है क्योंकि ये बंगाली थीं, पति मलयाली। अपने छोटे भाई की शादी मराठी लड़की से करवाई। अपने लिए बंगाली, राजस्थानी, गुजराती बहुएं लाईं। छोटा दामाद भी गुजराती। बड़ी बेटी गीता यानी मेरा विवाह सुप्रसिद्ध कथाकार रॉबिन  शॉ पुष्प (ईसाई) से हुआ तो जाति-पात के बंधनों को तोड़ने की श्रंखला में एक और कड़ी जुड़ गई।

जीवन का दुखद पक्ष यह रहा कि बयालीस वर्ष की आयु में वे कैंसर जैसे भयंकर रोग से ग्रसित हो गईं। दस वर्षों तक लगातार वे इस रोग से लड़ती रहीं। केरल से उनकी दोस्त टांकमणि ने एक छोटी सी बाइबिल भेजकर  उन्हें  लिखा था कि दीदी इसे हमेशा अपने पास रखना। बल मिलेगा।  मां ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी। बिस्तर पर लेटकर ही कैंसर के बारे में लेख लिखकर वे दूसरों को इस रोग के प्रति जागरूक करतीं और दूसरों को भी हिम्मत देती रहीं। अन्त में 17 जनवरी 1978 को कैंसर से लड़ते-लड़ते उनका देहान्त हो गया।

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 उन की अंतिम इच्छानुसार उनके मरणोपरान्त उनके पास बाइबिल रखकर बंगाली पंडित द्वारा मंत्रोच्चार किया गया फिर नर्मदा तट पर उनका दाह-संस्कार हुआ। उनकी इच्छा थी कि उनका श्राद्ध आडम्बर रहित हो, अतएव उनकी कामना के अनुसार तेरहवीं के दिन ब्राह्मणों को भोजन न करवाकर अनाथालय के बच्चों को घर पर लाकर भोजन कराया गया। वह सच में महान आत्मा थीं जिन्होंने मृत्यु के बाद भी समाज की घिसी-पिटी परिपाटियों को तोड़कर प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत किया। वास्तव में एक शिक्षिका, एक पत्नी, एक मां, एक लेखिका और एक समाज सेविका के रूप में बेजोड़ व्यक्तित्व की धनी थीं मेरी माँ पद्मा पटरथ।

लेखिका स्व. पद्मा पटरथ की सुपुत्री हैं और स्वयं एक सुप्रसिद्ध लेखिका हैं ।

© मीडियाटिक

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