छाया : पुणे रोटरी ई क्लब के एफ़बी अकाउंट से
साहित्य विचार
• अलकनंदा साने
मध्य प्रदेश मूल रूप से हिंदी भाषी प्रदेश होने के बावजूद यहाँ मराठी भाषी बड़ी तादाद में हैं। उसका एक प्रमुख कारण यह है कि मध्य प्रदेश का एक बड़ा भूभाग लम्बे समय तक मराठा शासकों के अधीन रहा। 18 वीं शताब्दी में मराठा सरदार बाजीराव पेशवा प्रथम ने मुगलों की सेना से युद्ध कर मालवा और बुंदेलखंड का कुछ हिस्सा स्वतंत्र किया और शिंदे (सिंधिया), होलकर, पवार इन सरदारों में भूमि को क्षेत्रवार बाँट दिया। इन सरदारों और बाजीराव के साथ कुछ अन्य मराठी भाषी परिवार भी विभिन्न जिम्मेदारियों के अंतर्गत इस क्षेत्र में आये और धीरे-धीरे मराठी संस्कृति ने अपनी जड़ें जमा लीं। मराठी समाज स्वभावत: साहित्य, कला, संस्कृति का प्रेमी और संवर्द्धक होता है। इसी कारण महज दो-ढाई सौ साल में यहां पर संस्कृति खूब पनपी । महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा यद्यपि सावित्रीबाई फुले ने उठाया जो मराठी भाषी ही थीं, लेकिन उनके भी पहले मराठी भाषी परिवारों में स्त्री शिक्षा का प्रारंभ हो चुका था। यह एक महत्वपूर्ण कारण रहा जिसकी वजह से बीसवीं शताब्दी में साहित्य के क्षेत्र में कई स्त्री प्रतिभाएं सामने आईं । मध्य प्रदेश के गठन के बाद पुरानी राजधानी नागपुर से भी सैंकड़ों परिवार मध्यप्रदेश आए और मराठी साहित्य की कल- कल धारा में पूरे प्रदेश की महिलाओं ने न सिर्फ अवगाहन किया, बल्कि मराठी साहित्य की सेवा में अपना महत्वपूर्ण योगदान भी दिया ।
इन लेखिकाओं ने विभिन्न विधाओं में लिखा है, किंतु बड़ी संख्या कवयित्रियों की है। सामाजिक परिस्थिति व शैक्षणिक वातावरण तथा बदलाव को देखते हुए सारी लेखिकाओं को उनके जन्म के आधार पर दो भागों में बाँटा जा सकता है। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में जिनका जन्म हुआ ऐसी लेखिकायें नगण्य प्राय हैं, किंतु वे नींव का पत्थर कही जा सकती हैं। महाराष्ट्रीय परिवारों में शिक्षा का प्रचार प्रसार शुरुआती दौर में हो चुका था और स्वतंत्रता के पूर्व ही अनेक स्त्रियाँ आजीविका के लिए घर के बाहर कदम रख चुकी थीं। परिवार का समर्थन प्राप्त होने से उनमें से कुछ मुखर होकर अभिव्यक्त होने लगी और धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ने लगी। उपलब्ध जानकारी के अनुसार बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ की लेखिकाओं में जबलपुर की मनोरमा नावलेकर(1905 ), माणिक तामस्कर (1932) इंदौर की वनमाला भवालकर (1914), इंदिराबाई विपट (1917), लक्ष्मीबाई बोरगांवकर(1940),अन्नपूर्णाबाई गोखले,निर्मला बिडवई (सभी) आदि प्रमुख हैं। इनमें से वनमाला भवालकर काफी सक्रिय रहीं। इनके बाद की पीढ़ी में निर्मला बापट, तारा फडनीस, प्रतिभा कालेले (इंदौर), इंदिरा भागवत, शालिनी इंदौरकर, शीला खानविलकर (ग्वालियर), अनुराधा जामदार (भोपाल) शशिकला पोतेकर, निर्मला देशपांडे, प्रफुल्लता जाधव (देवास) आदि नाम प्रमुखता से सामने आते हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद सामाजिक दृश्य तेजी से बदला। लड़कियाँ पढ़ने जाने लगी, बाल विवाह कम हुए, घरों का वातावरण अधिक खुला और स्वच्छ हुआ। इन सब बातों का सर्वाधिक प्रभाव महिलाओं पर पड़ा और वे खुलकर लिखने लगी। कुछ स्त्रियाँ लेखन के पुराने मूल्यों और नियमों पर कायम रहीं। उन्होंने दबी छुपी प्रेम कविताएं लिखीं,चाँद,चाँदनी, नदी, पेड़ -पौधों पर और साथ ही पारिवारिक, सामाजिक प्रश्नों पर अपनी कलम चलाई। उसी दौरान स्त्री मुक्ति आंदोलन की लहर आई। इसका सर्वाधिक प्रभाव कविताओं पर दिखाई दिया और कुछ लेखिकाएं नये विचारों के साथ नयी कविताओं की ओर मुड़ गयीं। इन कविताओं का तेवर अलग दिखाई देता है और भाषा आक्रामक लगती है। कुल मिलाकर कवयित्रियों की संख्या ज्यादा होने पर भी महिलाओं ने लगभग सभी विषयों में, सभी विधाओं में हाथ आजमाया। कविता की बात करें तो प्रकृति वर्णन, सामाजिक परिस्थिति, हास्य व्यंग्य जनित कविताएँ छंद बद्ध, मुक्त छंद, गेय आदि स्वरूपों में लिखी गई। ग़ज़ल यद्यपि कम लिखी गई लेकिन उसमें भी कुछ नाम उभर कर आये। कथा, कविता के अलावा नाटक, निबंध, अनुवाद आदि विधाओं में भी एक से अधिक लेखिकाएं सामने आई हैं।
कविताएं चूँकि सर्वाधिक लिखी गईं , इसलिए सबसे पहले कवयित्रियों के बारे में चर्चा करना अधिक उपयुक्त रहेगा। ऊपर जिन वरिष्ठ एवं पुरानी कवयित्रियों का उल्लेख किया है,उनके बाद 70 के दशक में महिलाओं का न सिर्फ काव्य लेखन में, लेकिन कुल मिलाकर संपूर्ण साहित्य में दखल बढ़ गया। मध्यप्रदेश मुख्य रूप से हिंदी भाषी प्रांत होने के बावजूद, इंदौर,ग्वालियर, देवास, धार इन पूर्व मराठा रियासतों के अलावा, लगभग सभी जगह मराठी बनी रही और इस भाषा में लिखा भी गया। इंदौर में शोभा तेलंग का नाम ग़ज़ल के क्षेत्र में तेजी से उभर कर आया और लंबे समय तक वे एकमात्र ग़ज़लकार रहीं। मूल रूप से ग्वालियर की और बाद में इंदौर में बस गईं अलकनंदा साने को स्त्री विषयक गंभीर, अर्थपूर्ण तथा संतुलित मुक्त छंद कविताओं के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। उनके दोनों काव्य संग्रह भी खासे चर्चित रहे तथा महाराष्ट्र के मुंबई, पुणे सहित अनेक शहरों में वे लगातार आमंत्रित की जाती रहीं। बाद के वर्षों में अरुणा खरगोनकर भी काव्य जगत में जानी गईं। उन्होंने अनेक विषयों पर छंद बद्ध, मुक्त छंद कविताओं के साथ-साथ ग़ज़ल भी लिखीं। उन्हें गेय कविताओं के लिये भी जाना जाता है। शोभा तेलंग और अरुणा खरगोनकर के भी काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं और यह दोनों कवयित्रियाँ तथा अलकनंदा साने, लगभग 90 वर्ष से अधिक समय से आयोजित होने वाले अत्यंत प्रतिष्ठित अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में अनेक बार काव्य पाठ के लिए आमंत्रित हुई हैं।
महाराष्ट्र साहित्य सभा इंदौर की 100 वर्ष से अधिक पुरानी संस्था है, जो लगभग 10 वर्ष पूर्व तक बड़े स्तर पर वार्षिक शारदोत्सव के साथ ही पूरे सालभर सभा में साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित करती थी। उसका लाभ इंदौर के छोटे- बड़े सभी साहित्यकारों को मिला। इसी संदर्भ में अनेक कवयित्रियों के नाम दिए जा सकते हैं, जिन्होंने कुछ प्रसिद्धि भी पाई। इनमें अर्चना शेवड़े, सुषमा अवधूत,कल्पना शुद्धवैशाख , श्रीति राशिनकर, लीला मोरे धुलधोये आदि प्रमुख नामों के साथ ही सुशीला कुलकर्णी, इंदुमती बापट,मैना मराठे, सीमंतिनी सरदेसाई,रोहिणी खरे,रंजना मराठे, जया गाडगे, अपर्णा भागवत, अमला गोड़े, नेहा वाघ,माधवी करमलकर,मंगला तेलंग इत्यादि भी उनकी कविताओं के लिए जानी जाती हैं। ग्वालियर की कुंदा जोगलेकर, अपर्णा पाटील, ममता आपटे, क्षमा पाटणकर, शालिनी इंदौरकर,संगीता तेलंग, जबलपुर की भाग्यश्री पाटणकर, वर्षा भावे, भोपाल की उषा खरे, मंदा गंधे,सुषमा ठाकुर, नयना आरती कानिटकर, प्रतिभा गुर्जर, संध्या गद्रे, नीलिमा कोतवालीवाले, माधुरी खर्डेनवीस,अनुराधा सप्रे, उज्जैन की श्रीमती गंगाजलीवाले, डॉ. अपर्णा जोशी, माधुरी जोग, बुरहानपुर की अनुराधा मुजूमदार, मीना आठवले, पूर्णिमा हुंडीवाले, आरती कुलकर्णी, उज्जवला कपाड़िया, देवास की राधिका इंगले आदि उल्लेखनीय नाम हैं। इतना ही नहीं मध्य प्रदेश के छोटे से छोटे शहर से भी अनेक कवयित्रियाँ सामने आईं हैं जैसे धार से अलका जोशी, सनावद से क्रांति किरण, पन्ना से दीपलक्ष्मी मुले, खंडवा से निर्मला देव, हरदा से सुमन विपट, सागर से संध्या सर्वटे आदि। जो कोई भी लेखक है वह चाहे किसी भी विधा का लेखक, सामान्यतया कविता अवश्य लिखता है। वैसे भी कविता एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए अभिव्यक्ति का सरल माध्यम होती है।
मध्यप्रदेश में मराठी कवयित्रियों की इतनी बड़ी संख्या में होने का एक कारण यह भी हो सकता है कि लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित गणेशोत्सव, महाराष्ट्रीय समाज में जोर शोर के साथ, बड़े स्तर पर और गाँव/शहर के अनेक हिस्सों में पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। एक एक परिवार गणेशोत्सव के सभी कार्यक्रमों में सम्मिलित होता है। स्वाभाविक रूप से गणेशोत्सव में नाटक के साथ साथ दूसरे पायदान पर कवि सम्मेलन होते हैं। कवि सम्मेलन के माध्यम से लेखक को, प्रसिद्ध होने का एक मार्ग भी प्राप्त होता है। इसका कारण यह भी है कि हिंदी साहित्य जगत की तरह मराठी में, मंचीय कवि और साहित्यिक कवि जैसा कोई विभाजन नहीं है। उच्च स्तरीय एवं गंभीर साहित्यिक कवितायेँ मंच से सुनाईं जाती हैं और श्रोता तन्मय होकर उनका आस्वाद लेते हैं। इतना ही नहीं, विभिन्न अवसरों पर जैसे शरद पूर्णिमा, दीपावली, रामनवमी आदि पर भी कवि सम्मेलन होते हैं। मराठी में चुनिंदा कवियों को साथ लेकर,बाकायदा संहिता (स्क्रिप्ट) लिखकर, निश्चित समयावधि में प्रस्तुत होनेवाले कविताओं के कार्यक्रम भी होते हैं। मध्यप्रदेश में इस परम्परा का पालन करते हुए अलकनंदा साने, अर्चना शेवड़े आदि ने ऐसे कई कार्यक्रम सफलता पूर्वक प्रस्तुत किये हैं।
कथा जगत की बात करें तो सबसे पहले प्रख्यात कहानीकार मालती जोशी का नाम याद आता है। मालती जोशी ने जितनी ख्याति हिंदी में पाई है,उनका उतना ही दखल मराठी में भी है। इसी क्रम में रोहिणी कुलकर्णी का नाम लिया जाना आवश्यक है। रोहिणी कुलकर्णी उपन्यास भी लिखती हैं और उनके उपन्यास “भेट” पर मराठी के प्रसिद्द निर्देशक चंद्रकांत कुलकर्णी ने फिल्म बनाई तथा श्रेयस तलपदे अभिनीत इस फिल्म को फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। सुलभा पागे केकरे को इन दोनों वरिष्ठ लेखिकाओं के समकक्ष रखा जा सकता है। इनके अलावा गीता सप्रे एवं कल्पना शुद्धवैशाख के नाम प्रमुखता से सामने आते हैं। इन सभी कहानीकारों को राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई और इनके कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए। मजे की बात यह है कि मालती जोशी को छोड़ दें तो यह चारों ही लेखिकाएं इंदौर की हैं । भोपाल से लीला श्रीवास्तव भी अत्यंत प्रसिद्ध कहानीकार हैं। इनके अलावा इंदौर की ही आशा गोगटे, जयश्री कर्णिक, उषा खांडेकर, ग्वालियर की शकुंतला निगुड़कर, उमा कंपूवाले, मेघना पापरीकर, शुभांगी परांजपे, भोपाल की अलका रिसबुड, जबलपुर की नीरजा बोधनकर की कहानियाँ भी सराही गईं हैं। सुलभा पागे केकरे,कल्पना शुद्धवैशाख और लीला श्रीवास्तव के उपन्यास भी प्रकाशित हुए हैं।
कविता और कहानी के अलावा भी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखिकायें सक्रिय रही हैं।अनेक लेखिकाओं ने उपन्यास, नाटक, लघु नाटक लिखे, एकांकियाँ लिखीं , ललित निबंध लिखे, अनुवाद किये और लगभग सभी जगह सफलता भी पाई। जब हम विविध साहित्य प्रकारों की बात करते हैं तो हास्य कविता को एक अलग ऊंचाई पर ले जाने वाली सुषमा अवधूत, इंदौर का नाम सामने आता है। सुषमा अवधूत की कवितायेँ सुनकर बरबस हँसी आ जाती है। हास्य के नाम पर उथली रचनाएँ प्रस्तुत करने के इस दौर में ये कवितायेँ सुकून देती हैं। इसी तरह से नाट्य लेखन में वनमाला भवालकर, वैशाली पिंगले, सुजाता देशपांडे इंदौर, यशस्विनी कवठेकर भोपाल, वृन्दा काले उज्जैन विशेष रुप से जानी जाती हैं । मध्यप्रदेश में मराठी में ललित लेखन भी प्रचुर मात्रा में हुआ और इसमें लेखिकाओं ने भी सहभागिता दर्ज की वनमाला भवालकर, वसुधा ढवलीकर, लीला धूलधोये मोरे, लतिका खानवलकर (सभी इंदौर), डॉ. अपर्णा जोशी (उज्जैन), सारिका ठोसर (जबलपुर) आदि ने विभिन्न विषयों पर ललित लेखन किया और इस लुप्त प्राय हो रही विधा को जीवित रखने के लिये अनथक प्रयास किये। लतिका खानवलकर की लगभग 10 पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं।
आधुनिक तकनीक का प्रभाव अभिव्यक्ति के तरीकों पर भी दिखाई देता है। संगणक युग की शुरुआत के बाद सामाजिक माध्यमों यथा ब्लॉग, फेसबुक, व्हाट्स ऐप आदि पर भी सभी भाषाओं के साहित्यकार सक्रिय हुए और मराठी भी इससे अछूती नहीं रही। इन माध्यमों में ब्लॉगर सर्वाधिक विश्वसनीय माने गये। नियमित साहित्यिक ब्लॉग लिखनेवाली लेखिकाओं में अलकनंदा साने और जबलपुर की प्रगति दाभोलकर प्रमुखता से दिखाई देती हैं।
किसी भी भाषा के साहित्य की बात करते हैं, तो अनुवाद को छोड़ा नहीं जा सकता। अनुवाद एक तरह से परकाया प्रवेश होता है और किसी भी भाषा का साहित्य, किसी अन्य भाषा में ले जाना ना सिर्फ जरूरी होता है बल्कि स्वयं लिखने से अधिक कठिन भी होता है, लेकिन अनेक लेखिकाओं ने इसका निर्वाह सफलतापूर्वक किया है। डॉक्टर विजया भुसारी ने सेवानिवृत्ति के बाद इस कठिन व्रत को थामा और उनकी कई अनुवादित पुस्तकें मराठी में प्रकाशित हुईं । सतीश दुबे जैसे चर्चित और सफल हिंदी लेखक की लघु कथाओं को उन्होंने मराठी में अनुवादित किया। यह कार्य दुरुह इसलिए भी था कि मराठी में लघु कथा प्रचलित नहीं है। विजया भुसारी के अलावा आशा वडनेरे ने भी बाद में लघु कथाओं का मराठी में अनुवाद किया। इंदौर की श्रीति राशिनकर ने भी सतीश दुबे की कुछ लघुकथाओं का और रविंद्र पहलवान की चुनिंदा कविताओं का मराठी में अनुवाद कर उन्हें पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है। कविताओं का हिंदी से विपुल अनुवाद अलकनंदा साने ने किया और उनके अनुवाद को वृहद स्तर पर सराहा गया। अलकनंदा साने के अनुवाद के बारे में मराठी के वरिष्ठ कवि अरुण म्हात्रे कहते हैं कि उनके अनुवाद, अनुवाद नहीं बल्कि मूल कविता की तरह आनंद देते हैं।
महाराष्ट्र से सैंकड़ों मील दूर रहकर भी न सिर्फ विपुल बल्कि स्तरीय लेखन करने वाली ये सारी लेखिकाएँ अभिनन्दन की पात्र हैं। इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर, उज्जैन जैसे कुछ स्थान छोड़ दें तो अन्य कहीं भी मराठी सीखना तो दूर, मात्र पढ़ने के लिए मराठी में कोई सामग्री यथा समाचार पत्र, पत्रिकाएँ मिलना भी दुर्लभ ही रहा, किन्तु मातृभाषा के लिये ललक कायम रही। जिन्हें मराठी लिखना नहीं आती थी, लेकिन मन में भाव मराठी में ही उपजते थे,उन्होंने अपनी टूटी फूटी मराठी में लिखी रचनाओं को किसी जानकार को दिखाया और गलतियाँ ठीक की। ऐसी लेखिकाओं को बेशक मराठी का व्याकरण नहीं आता, परन्तु भाषा के स्तर में कोई कमी दिखाई नहीं देती। मध्यप्रदेश की इन लेखिकाओं के लेखन में हिंदी तथा स्थानीय भाषा और परिवेश के अवश्यमेव प्रभाव के बावजूद, पूरी ईमानदारी के साथ किया गया प्रयास, स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त कर चुकी अनेक लेखिकाओं का एक पीड़ा का स्वर भी समय-समय पर उभरकर आता है। यह पीड़ा पुरुष लेखकों की भी है कि जो साहित्यकार महाराष्ट्र से बाहर रहते हैं, उन्हें भौगोलिक आधार पर अलग कर दिया जाता है। मराठी में एक विचित्र परंपरा चली आ रही है, जो अन्य किसी भाषा में दिखाई नहीं देती। महाराष्ट्र के बाहर जो साहित्यकार रहते हैं उन्हें बृहन्महाराष्ट्रीय कहा जाता है। वास्तव में जो जिस भाषा में लिखता है, वह उस भाषा का लेखक कहा जाता है। मराठी में महाराष्ट्र का रहवासी मराठी साहित्यकार और महाराष्ट्र के बाहर रहने वाला बृहन्महाराष्ट्रीय साहित्यकार कहलाता है। इन लेखकों या साहित्यकारों को मराठी साहित्य के इतिहास में भी सम्मिलित नहीं किया जाता है। अभी तक महाराष्ट्र के बाहर के सिर्फ दो ही साहित्यकार मराठी साहित्य के इतिहास में सम्मिलित किए गए हैं, शंकर रामाणी और भा. रा. तांबे। शंकर रामाणी क्योंकि एक तरह से महाराष्ट्र की ही सीमा में रहते थे इसलिए और भा रा तांबे के गीतों को लता मंगेशकर ने स्वर दिया इसलिए संभवत: उन्हें मराठी साहित्य के इतिहास में जगह दी गई। अस्तु। यह इस लेख का विषय नहीं है, किन्तु प्रसंग वश कहना आवश्यक अनुभव हुआ। एक संकट और भी अनुभव होता है कि लगभग आधी शताब्दी से भी अधिक वर्षों तक जिन लेखकों ने मराठी की सेवा कर उसे एक विशिष्ट दर्जा प्रदान किया, अब वह शायद उन्हीं तक सिमट कर रह जाएगा। यह संकट इसलिए दिखाई देता है कि अगली पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम में पढ़ी है और उसका परिवेश हिंदी का है। उनके माता-पिता भी मराठी पढ़ते नहीं है और बहुत से घरों में अब मराठी बोली भी नहीं जा रही है। इसी वजह से युवा पीढ़ी में मराठी लेखन की उत्सुकता दिखाई नहीं देती और यही मराठी के लिए, मराठी साहित्य के लिए मध्यप्रदेश में संकट का कारण दिखाई देता है।
बावजूद इसके जो स्त्रियाँ पारिवारिक, सामाजिक और कार्यस्थल की जिम्मेदारियों का सफलतापूर्वक निर्वाह करते हुए मराठी में लिख रही हैं, उनका लेखन यथावत जारी है। आसपास हिन्दी और अंग्रेजी का वातावरण होने से कभी कोई शब्द मराठी में याद नहीं आता है, तो अपने संसाधनों के द्वारा सही शब्द प्राप्त करने की भी चुनौती उनके समक्ष होती है और वे उसे स्वीकार कर आगे बढ़ती हैं। कुछ कम प्रसिद्ध लेखिकाओं की भी पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं, हो रही हैं । इस सबके बीच कहीं न कहीं नयी सम्भावनों का बीज अवश्य होगा, कहीं न कहीं कोई लौ जरूर आलोकित होगी ।
लेखिका हिन्दी और मराठी की सुविख्यात साहित्यकार हैं ।
© मीडियाटिक
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