​​​​​​​आकाशवाणी का वह जमाना

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​​​​​​​आकाशवाणी का वह जमाना

कमलेश पाठक

स्वतंत्रता के बाद अंग्रेज़ चले गए थे पर अंग्रेजी छोड़ गए थे। लगभग सौ सालों की पराधीनता से, अंग्रेज़ी, लोगों के दिलोदिमाग पर हावी हो गई थी। ऐसे संक्रमण काल में जब हमारी अपनी बोली और भाषाएं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहीं थी, आकाशवाणी ने कृष्ण की तरह सारथी बनकर हिंदी और सभी क्षेत्रीय भाषाओं के रथ को कुछ इस तरह हांका कि सब तरफ हमारी आत्मीय भाषाओं का बोलबाला हो गया।

सुदूर उत्तरपूर्व की पहाड़ियों पर बसे गाँव हों या तिरुअनंतपुरम के समुद्री तटों पर फैले कस्बे और नगर , कश्मीर की ठंडी घाटियों  में चिनारों के बीच बने घर हों या डल लेक के शिकारे , अलसुबह आकाशवाणी पर लता जी के मधुर कण्ठ से "ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियां" या साबरी ब्रदर्स की आवाज में " भर दे झोली मेरी या मोहम्मद दर से तेरे न जाऊंगा खाली " या डी वी पलुस्कर के स्वर में "जब जानकीनाथ सहाय करें तब कौन बिगार करै नर तोरो" या रूना लैला द्वारा गाया "आज मेरी पत रखियो झूलेलाल " जैसे भक्ति गीतों की स्वरलहरियां गूंजतीं तो मन और प्राण एक अलौकिक ऊर्जा से भर जाते।

दूधवाले भैया की साईकल पर  तो नुक्कड़ की चाय की टपरी पर, खेतों में हल चला रहे किसान के कंधे पर, चाय के बागानों में, गली में, कूचे में सब तरफ चाय की चुस्कियों के साथ आकशवाणी हमारे अंदर उतर रही थी। पढ़े लिखे अभिजात्य वर्ग को भी आकाशवाणी पल्लवित और पोषित कर रही थी। दिनकर के संस्कृति के चार अध्याय के अंश हों या निराला की शक्ति पूजा , मोहन राकेश का आधे अधूरे हो या प्रेमचंद की बूढ़ी काकी, तक्षी शिवशंकर पिल्लै का चेम्मीन' (मछुआरे) हो या पु.ल. देशपांडे की मराठी कविताएं और गिरीश कर्नाड के नाटक - सब कुछ रेडियो सुना रहा था।

दरअसल, आकाशवाणी ने हमें सस्ते साहित्य से सत्साहित्य को पढ़ने का सलीका और तमीज़ सिखाई। भाषा की शुद्धता और शुचिता के साथ कार्यक्रमों को प्रस्तुत किया जाना आकाशवाणी की प्राथमिकता थी। समय की पाबंदी और भाषा की शुद्धता के साथ किसी समझौते की कोई गुंजाइश ही नहीं थी आकाशवाणी में जहां एक ओर  आकाशवाणी दीन दुखियों के लिए मदर टेरेसा थी तो वहीं सीमा पर आहत सैनिकों के घावों पर फ्लोरेंस नाइटिंगेल की तरह मरहम लगा रही थी। महिलाओं को बड़ी-पापड़ और अचार बनाना सिखा रही थी तो युवाओं की रुचियों को परिष्कृत और परिमार्जित कर रही थी। दादी नानी की कहानियां, विक्रम और बेताल के किस्से , कैद में राजकुमारी और लल्ला लल्ला लोरियां भी आकाशवाणी पर थीं।

ऐन उसी दौरान जब हम आकाशवाणी के सम्मोहन में पूरी तरह सम्मोहित थे, हमारे अपने शहर छतरपुर में आकाशवाणी केंद्र से प्रसारण शुरू हुआ। साहित्य हमें विरासत में मिला था। पिता जी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे तो चाचा जी हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत तीन विषयों के मास्टर्स डिग्री होल्डर थे, बड़े भाई अंग्रेज़ी साहित्य के प्रोफेसर थे। पंडिताई पिताजी का पेशा था इसलिए घर में चारों वेद , 18 के 18 पुराण , भागवत, गीता, महाभारत जैसी किताबें और कल्याण जैसी पत्रिकाएं रहती थीं, वहीं शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, ईट्स कीटस, हेमिंग्वे, गोर्की और तोलस्तोय जैसे लेखकों की विश्व साहित्य की एक से बढ़कर एक किताबों से आलमारियां भरी रहती थीं, टैगोर, शरतचंद्र, बंकिमचंद्र का साहित्य भी घर में था ही।

हम तीनों बहनों पर घर के किसी काम की जिम्मेवारी नहीं थी। हमारे दो ही काम थे - खेलना और पढ़ना। कभी भूले-भटके मां किसी काम में लगा दें और पिताजी की नज़र पड़ जाए तो वे तुरंत कहते - छोड़ो बाई ( बेटी को बुंदेलखंड में बाई बुलाते हैं ) ये क्या कर रही हो, मां कर लेंगी ये काम। तुम जाओ पढ़ाई करो या खेलो। पर खेलने के लिए कुछ खास नहीं होता था। मेरी मां कभी-कभी चंदा पौआ (लूडो का ग्रामीण स्वरूप ) खेलती थीं और मैं और मेरी छोटी बहन चपेटा (छोटे छोटे चिकने पत्थरों को हाथों से उछालना और हवा में ही वापस ओक लेना) खेलते थे। सावन के महीने में लड़कियों और नवविवाहिताओं का प्रमुख खेल था ये।

बड़ी बहन को ये दोनों खेल बहुत निम्नस्तरीय लगते थे और वे कविता लिखती थीं। उनकी पहली कविता का शीर्षक था सुख और दुख, जो  होशियारपुर पंजाब से निकलने वाली पत्रिका विश्वज्योति में छपी थी और उसी के साथ वाले पृष्ठ पर डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का भारतीय दर्शन पर लेख छपा था। बड़ी बहन उस समय दसवीं या ग्यारहवीं कक्षा में रही होंगी। उन्हें तब कुछ खास समझ तो थी नहीं क्योंकि उनकी उम्र उतनी नहीं थी, पर पिताजी बहुत खुश हुए थे कि उनकी बेटी की कविता राष्ट्रपति के लेख के साथ प्रकाशित हुई है।

इस तरह किताबों को उठाते धरते, किताबी सुगंध में सांस लेते-लेते अनजाने ही हमारी रुचियों में साहित्य रच बस  रहा था। बड़ी बहन का कविता लिखना जारी था। उन्होंने इकोनॉमिक्स से पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया था और कभी कभार छोटी-मोटी साहित्यिक गोष्ठियों में वे कविताएं भी सुनाया करती थीं। छतरपुर में आकाशवाणी का बड़ा केंद्र खुला था, पूरे बुंदेलखंड क्षेत्र को कवर करने के लिए। इसलिए आकाशवाणी को कुछ ऐसे ही साहित्य, संस्कृति और ज्ञान विज्ञान में रुचि रखने वाले युवाओं की तलाश थी जो इस क्षेत्र विशेष के लिए कार्यक्रम बना सकें और रेडियो पर बोलकर उन्हें प्रस्तुत भी कर सकें।

बड़ी बहन का नाम किसने सुझाया - ये तो पता नहीं, लेकिन ऐसे ही एक दिन उन्हें आकाशवाणी से बुलावा आया। कार्यक्रम अधिकारी ने उन्हें डायरेक्टर से मिलवाया और काफी लंबी बातचीत के बाद उनका स्वर परीक्षण हुआ और उन्हें 15 रुपए रोज पर आकाशवाणी छतरपुर में अस्थायी तौर पर रख लिया गया। एक दो साल इसी तरह काम करते हुए जब उद्घोषक के लिए रिक्तियां निकलीं तो बड़ी बहन का स्थायी पद पर चयन हो गया। लेकिन उनकी पोस्टिंग आकाशवाणी रीवा में हुई। उन्होंने अकेले ही जाकर प्रभार ले लिया । नए शहर में रहने के लिए घर और बाकी सब व्यवस्थाएं अकेले ही करना थोड़ा मुश्किल तो था पर उन्होंने खुद से सारे इंतजामात किए और थोड़े दिनों में उन्हें सरकारी आवास भी मिल गया।

उनका कहना था कि "अगर आप पूरी ईमानदारी और शिद्दत से कुछ करने की ठान लें तो रुकावटें अपने आप रास्ता छोड़ देतीं हैं" ये कहावत पूरी तरह सच है। मैंने केमिस्ट्री से एमएससी. की थी और एम.फिल के लिए बड़ी बहन ने मुझे भी रीवा बुला लिया। छतरपुर का महाराजा कॉलेज जहां से हम लोगों ने पढ़ाई की थी रीवा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। एमफिल में एडमिशन होते होते मुझे गर्ल्स डिग्री कॉलेज रीवा में केमिस्ट्री के व्याख्याता की नौकरी भी मिल गई थी। सुबह 6.30 बजे साइकिल से शहर के एक छोर पर यूनिवर्सिटी जाती और 10.30 बजे साइकिल से ही दूसरे छोर पर स्थित कॉलेज जाती। उम्र थी 22 साल और रेडियो का जादू मेरे ही नहीं, उस समय के युवाओं के सिर चढ़कर बोल रहा था। जिंदगी बड़ी मजेदार और रोमांचक लग रही थी। पिताजी को बहुत गर्व महसूस होता था। ये 80 के दशक के शुरुआती दिन थे। जब लड़कियों को आनन फानन में ब्याह कर ससुराल भेज दिया जाता था तब उनकी दोनों बेटियां अपने बलबूते पर, अपने घर से दूर दूसरे शहर में सम्मानपूर्वक रह रही थीं। 

एक दिन बड़ी बहन को झाड़ू लगाते समय एक अखबार के चौथाई  टुकड़े पर पूरा विज्ञापन - "आकाशवाणी में प्रसारण अधिशासी की आवश्यकता है" मिला और तुरत फुरत उन्होंने मुझसे आवेदन करवा दिया। इलाहाबाद स्टाफ सिलेक्शन कमीशन में 5 बोर्ड मेंबर्स ने मेरा इंटरव्यू लिया। लगभग 2 महीने बाद मुझे अपॉइंटमेंट लेटर के साथ सिलेक्शन की सूचना मिली तब जाकर हमने जाना कि ये पद बिहार के दूसरे छोर पर स्थित दरभंगा आकाशवाणी के लिए था। अपने प्रदेश में महाविद्यालय के व्याख्याता की नौकरी छोड़कर जलते हुए बिहार के किसी शहर में युवावस्था की दहलीज पर खड़ी लड़की को भेजना किसी भी मां-बाप के लिए थोड़ा मुश्किल निर्णय था, पर मेरे पिता के सामने अच्छा- बुरा समझा देने के बाद बच्चों की इच्छा और उनके निर्णय सर्वोपरि थे। बड़ी जद्दोजहद के बाद अंत में कॉलेज की नौकरी से इस्तीफा देकर मैंने दरभंगा आकाशवाणी में आमद दे दी। इस तरह हम दोनों बहनें देश के सर्वश्रेष्ठ सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थान का हिस्सा बन गए।

रेडियो की नौकरी जितनी मनोरंजक थी, उतनी ही अलग तरह की और चुनौतीपूर्ण भी थी। कहते हैं कमान से निकला तीर और जुबान से निकले शब्द वापस नहीं आते, और रेडियो बोले हुए शब्दों का ही कारोबार था। एक पतली  रस्सी पर चलने जैसा खतरनाक। संतुलन बिगड़ा नहीं कि गए खाई में। बहरहाल, दरभंगा से ग्वालियर, वहां से छतरपुर, पुनः छतरपुर से मुंबई, मुंबई  से नासिक होते हुए एक बार फिर मुंबई पहुंचे। मुंबई स्थित आकाशवाणी के सभी कार्यालयों में काम किया और 38 बरस की नौकरी में इस निष्कर्ष पर पहुंची की दुनिया में 99.99% लोग बहुत अच्छे होते हैं। स्त्रियों, लड़कियों, महिलाओं के लिए आकाशवाणी में काम करना पूर्णतः सुरक्षित और स्वस्थ माहौल में काम करना है।

दरभंगा से लेकर मुंबई तक सभी लोग , मेरे अधीन काम करने वाले और मुझसे बड़े अधिकारी सभी बहुत जहीन, मददगार और सही सलाह देने वाले थे। हां, आकाशवाणी का काम अपने आप में बहुत नाजुक और संवेदनशील था। 1982 में मैंने ज्वाइन किया था और 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। मैं आकाशवाणी छतरपुर में थी। इंदिरा गांधी की मृत्यु की अधिकारिक उद्घोषणा के वक्त मैं ड्यूटी पर थी। राष्ट्रीय शोक घोषित हो चुका था, सारे अधिकारी कर्मचारी पूरी रात ऑफिस में थे। सारे रूटीन प्रसारण बंद करके केवल शोक संगीत और भजन बजाए जा रहे थे। उस वक्त देश में माहौल जितना खराब था, हम सब के लिए प्रसारण के हिसाब से उतना ही नाजुक समय था। शायद आठवें दिन सुबह-सुबह ड्यूटी रूम का फोन बजा। उस तरफ हमारे डायरेक्टर थे श्री राजेंद्र प्रसाद अत्यंत गुस्से में, तब रेडियो पर कबीरदास का भजन बज रहा था "तेरो जनम अकारथ गयो"। उन्होंने कहा- ये क्या बजा रही हैं आप, उस महिला का, इंदिरा गांधी का जनम अकारथ गया है ! इसको तुरंत फेड आउट करवाएं और शोक समय में भी क्या बजाया जा रहा है, इसका पूरा ध्यान रखें।

एक और घटना आकाशवाणी छतरपुर की ही है। बुंदेलखंड उन दिनों डाकुओं का गढ़ था, चंबल में भी दस्युओं ने आतंक फैला रखा था। मेरा गांव मेरा देश, चंबल की कसम जैसी डाकू प्रधान फिल्में बन रहीं थीं और उनके गाने बहुत लोकप्रिय थे। एक दिन मेरी ड्यूटी में फरमाइशी फिल्मी गीतों के दौरान रात 10.30 बजे फोन आया अत्यंत सम्मानजनक ढंग से उन्होंने कहा "मैं दाऊ जू बोल रहा हूं, बिन्नू ज़रा एक गाना सुनवा दें, 'मार दिया जाए कि छोड़ दिया जाए', एक सेकंड के लिए मेरी सांस ऊपर के ऊपर रह गई क्योंकि दाऊ जू का मतलब था बुंदेलखंड के सबसे बड़े और खतरनाक डाकू मूरत सिंह। लेकिन तुरंत मैंने लाइब्रेरी खोलकर वो गाना बजवाया। कहने का तात्पर्य ये है कि रेडियो की नौकरी महिलाओं के लिए थोड़ी मुश्किलों से भरी तो थी पर किसी तरह के दुर्व्यवहार जैसी कोई समस्या नहीं थी। महिलाओं लड़कियों को पूरी सुरक्षा और सम्मान के साथ काम करने की व्यवस्था थी। चाहे सुबह 4 बजे ड्यूटी पर जाना हो या रात 12 या 1 बजे घर वापस आना कभी भी किसी तरह की असुरक्षा अनुभव नहीं की मैंने।

मुंबई में तो दूरियां ज्यादा होने के कारण और शिफ्ट में कई लोग होने के कारण रात को दो बजे भी ऑफिस की गाड़ी ने मुझे घर छोड़ा पर मजाल है कि  किसी सहकर्मी ने या किसी कर्मचारी ने कभी कोई हल्का मज़ाक भी किया हो। बस मुश्किल होती थी तो प्रसारण की चुनौतियों को झेलने में। पूरे समय सतर्क रहना पड़ता था। एक दफा सुबह-सुबह ही डॉ थिरुवरूर भक्तवत्सलम के मृदंगम वादन का प्रसारण था आकाशवाणी मुम्बई से। उद्घोषिका नई थीं, उन्होंने डॉ साहब के पहले नाम की उद्घोषणा में ग़लती कर दी। डॉ. साहब ने अपने नाम की गलत उद्घोषणा सुनते ही हमारे डायरेक्टर श्री गायकवाड़ को फोन कर दिया। गायकवाड़ जी का निवास कार्यालय के ऊपर ही था। वे हवाई चप्पलें पहने हुए ही नीचे आ गए और उन्होंने जो फटकार लगाई, उसे मैं ज़िन्दगी भर नहीं भूल सकती। उसी समय क्षमा याचना के साथ उनके नाम की पुनः उद्घोषणा की गई। उसके बाद किसी भी नाम - चाहे वह कितना भी कठिन हो, का उच्चारण मुझसे कभी ग़लत नहीं हुआ।

घटनाएं तो अनगिनत हैं पर मेरी ज़िन्दगी का सबसे सही निर्णय था आकाशवाणी में नौकरी करना। और मैं क्या, किसी भी महिला से पूछ लीजिये रेडियो में नौकरी करके हमें कितनी खुशी, संतोष और आश्वस्ति मिली, जिसका बयान शब्दों में करना मुश्किल है।

लेखिका आकाशवाणी की सेवानिवृत्त कार्यक्रम अधिकारी हैं।

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