शीला खन्ना: कानूनी मुद्दों  पर बेबाक राय रखने वाली सख्त न्यायाधीश 

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शीला खन्ना: कानूनी मुद्दों  पर बेबाक राय रखने वाली सख्त न्यायाधीश 

 
विधि विशेषज्ञ
 
• सारिका ठाकुर
 
अपने कार्यकाल में कठोर, अनुशासनप्रिय और दृढ़ न्यायाधीश के रूप में ख्यात सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति शीला खन्ना अपने निजी जीवन में सुलझी हुई और मिलनसार महिला हैं। वे आज भी विभिन्न कानूनी और सामाजिक मुद्दों पर स्पष्ट और बेलाग राय रखती हैं। शीला जी का जन्म अक्टूबर 1946 में भोपाल में हुआ। उनके पिता श्री एस.आर. खन्ना व्यवसायी थे और माँ श्रीमती निर्मल खन्ना गृहिणी। दोनों शिक्षा का महत्त्व जानते थे और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए समर्पित रहे। घर में अनुशासन और स्नेह के संतुलित अनुपात वाला माहौल था, जिसके कारण शीला जी सहित सभी छह भाई-बहनों ने उच्च शिक्षा हासिल करते हुए अपने-अपने क्षेत्र में मुकाम बनाया। उनकी बड़ी बहन बैंक मैनेजर थीं, जिनका देहांत हो चुका है। उनसे छोटी बहन महिला पॉलीटेक्नीक कॉलेज, भोपाल से सेवानिवृत्त हुईं, तीसरी बहन डॉक्टर बनीं। चौथी स्वयं शीला जी न्यायिक क्षेत्र से सेवा निवृत्त हुईं।  उनके छोटे भाई सीबीआई में थे और उनसे छोटी बहन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एक्सीलेंस फॉर हायर एजुकेशन के निदेशक थीं। सबसे छोटी बहन ने कुशल एवं सजग गृहणी का जीवन चुना।
 
शीला जी की स्कूली शिक्षा सुल्तानिया कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय से हुई और महारानी लक्ष्मी बाई महाविद्यालय से स्नातक की उपाधि 1963 में हासिल की। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान वे वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं। उस दौरान वे एनसीसी की सीनियर अंडर ऑफिसर भी रहीं और उन्हें गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली में आयोजित परेड में भी हिस्सा लेने का अवसर मिला था। इसके अलावा वे छात्र संघ की सचिव भी थीं। स्नातक करने के बाद उन्होंने ‘लॉ’ पढ़ना चाहा जो पूरी तरह उनका अपना फ़ैसला था। माता-पिता ने किसी भी संतान के किसी भी क्षेत्र को चुनने पर  कभी कोई आपत्ति नहीं की। शीला जी ने एलएलबी की पढ़ाई हमीदिया आर्ट्स एंड कॉमर्स कॉलेज से वर्ष 1968 में की। उनकी कक्षाएं शाम को लगती थीं। वहां वे छात्र संघ की अध्यक्ष भी बनीं। इसके बाद उन्होंने एक साल वरिष्ठ अधिवक्ता श्री शालिग्राम श्रीवास्तव के अधीन वकालत की। 1970 में लोक सेवा आयोग द्वारा सिविल जज के लिए आयोजित परीक्षा में वे चयनित हुईं।  
 
1970 से 2003 के बीच शीला जी व्यवहार न्यायाधीश, अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, जिला न्यायाधीश जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहते हुए जबलपुर, इंदौर, ग्वालियर, भोपाल, रतलाम, उज्जैन, रीवा और नरसिंहपुर में पदस्थ रहीं। इन पदों पर रहते हुए अनेक महत्वपूर्ण प्रतिनियुक्तियों पर भी रहीं, जैसे पंजीयक - गैस राहत, विधि एवं विधायी विभाग, भारत सरकार (1985) सचिव- मप्र विधानसभा (1993-95), राज्यपाल, मप्र की विधि सचिव (2003)। विधानसभा सचिवालय में सचिव के तौर पर नियुक्त होने वाली संभवतः वे प्रदेश की पहली महिला हैं। उनकी अंतिम पदस्थापना वर्ष 2004 से 2008 तक मप्र उच्च न्यायालय की ग्वालियर खंडपीठ में न्यायाधीश के रूप में रही। वहां से अवकाश प्राप्ति के बाद वर्ष 2010-2011 में वे बाल संरक्षण अधिकार आयोग की अध्यक्ष रहीं।
 
अपने कार्यकाल में न्यायाधीश के तौर पर अपनी भूमिका के बारे में कहती हैं ‘दस्तावेज देखने और गवाही’ सुनने के बाद मुझे फैसला देने में कभी कोई उलझन नहीं हुई क्योंकि किस आधार पर क्या निर्णय देना है, यह कानून की किताबों में दर्ज है। परेशानी वहां आती है जब गवाह या पीड़ित अपने बयान से पलट जाए। कई बार लिखित शिकायत दर्ज करने बाद भी गवाह साफ़ मुकर जाते हैं, ऐसे में अदालत में सच सभी को पता होता है लेकिन न्यायाधीश भी कुछ नहीं कर सकता। ऐसे में मुजरिम सजा से बच जाते हैं।
 
एक महिला सरपंच का किस्सा सुनाते हुए वे कहती हैं, “उसने लिखित में एक व्यक्ति के विरुद्ध दुष्कर्म का मामला दर्ज करवाया और कोर्ट में मुकर गई। ऐसा करना कानूनन जुर्म है जिसके सिद्ध होने पर हमने उसे एक महीने की सजा सुनाई। कभी-कभी यह सिद्ध होना भी मुश्किल होता है क्योंकि पीड़ित अंगूठा लगाता है और विवरण पुलिस लिखती है। लोग कोर्ट में यह कहकर मुकर जाते हैं कि हमें पता ही नहीं कागज पर क्या लिखा है या हमें पढ़कर नहीं सुनाया गया। इसके अलावा पीड़ितों के मुकरने के उदाहरण ज्यादातर घरेलू मामलों में नज़र आते हैं।” एक और वाकया सुनाते हुए वे बताती हैं - देवर ने भाभी की ह्त्या कर दी, पति ने मुक़दमा किया लेकिन बाद में मुकर गया। सास-ससुर और पति - किसी ने भी गवाही नहीं दी और आरोपी छूट गया। एक न्यायाधीश के तौर पर मुजरिमों को साक्ष्य या गवाहों के मुकरने के कारण छोड़ने पर तकलीफ़ तो होती थी लेकिन हमारे बस में कुछ नहीं होता था।
 
उनका मानना है कि लोक अभियोजन के अधिकारियों को यह पता होना ज़रूरी है कि कोर्ट रूम के वातावरण और पूछताछ के तरीके से गवाहों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। एफ़आईआर को कोर्ट में सिद्ध करना पड़ता है तभी दोषी को सजा मिल पाती है, अत्यधिक विलम्ब से स्मृतियाँ धुंधली होने लगती है जिसका फ़ायदा मुजरिमों को मिलता है। साक्ष्य के अभाव मात्र ‘न्याय’ का एकमात्र माध्यम गवाही होती है जिसे बहुत ही संवेदनशीलता और कुशलता से बरतने की जरुरत होती है।  
 
शीला जी अपने काम से आज भी प्यार करती हैं और इस क्षेत्र में आने वाले नए लोगों को - जिन्हें आवश्यकता होती हैं, निःशुल्क परामर्श देती हैं। वे अविवाहित हैं, लेकिन अपनी मर्ज़ी से नहीं। उनका कहना है कि काम में कुछ ऐसी मसरूफियत रही की खुद के बारे में सोचने का वक़्त ही नहीं मिला। वर्तमान में वे भोपाल में निवास कर रही हैं। उनका घर बहनों के प्रति उनके अटूट स्नेह की गवाही देता है, क्योंकि तीन बहनें एक ही इमारत की अलग-अलग मंजिलों पर रहती हैं।    
 

सन्दर्भ स्रोत : शीला खन्ना से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित

©  मीडियाटिक 

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