नई दिल्ली। भरण-पोषण से जुड़े एक मामले में अहम टिप्पणी करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि अलग रह रही पत्नी और बच्चे को वित्तीय सहायता देने में देरी करना सम्मान से वंचित करने के समान है।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा की पीठ ने कहा कि समय पर भरण-पोषण न केवल जीवन-यापन की रक्षा के लिए बल्कि बुनियादी गरिमा की रक्षा के लिए भी आवश्यक है। पारिवारिक न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली पति की याचिका को खारिज करते हुए पीठ ने रेखांकित किया कि भरण-पोषण केवल एक मौद्रिक दायित्व नहीं है बल्कि एक कानूनी और नैतिक कर्तव्य है जो आश्रित पत्नी और बच्चे की गरिमा और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए बनाया गया है।
अपीलकर्ता पति ने पारिवारिक न्यायालय द्वारा 45 हजार रुपये (अपनी अलग रह रही पत्नी और नाबालिग बेटी के अंतरिम भरण-पोषण के लिए 22,500 रुपये प्रत्येक) की मासिक राशि देने के निर्देश के खिलाफ याचिका दायर की थी।
पीठ ने कहा कि जब वित्तीय सहायता में देरी होती है, तो सबसे पहले गरिमा को ठेस पहुंचती है। पीठ ने कहा कि यदि गुजारा भत्ता देने का काम कमाने वाले पति या पत्नी की सुविधा पर छोड़ दिया जाता है, तो गुजारा भत्ता देने का उद्देश्य ही विफल हो जाता है।
उक्त टिप्पणी के साथ अदालत ने उसकी बेटी को दी जाने वाली राशि को घटाकर 17,500 रुपये प्रति माह कर दिया, जबकि उसकी पत्नी को दी जाने वाली राशि को बरकरार रखा। अपीलकर्ता पति ने तर्क दिया कि उसके पास बकाया गुजारा भत्ता के रूप में केवल एक महीने का भुगतान बचा है, जबकि महिला की तरफ से पेश हुए न्यायमित्र ने कहा कि एक दिन की भी देरी का पत्नी पर गहरा असर पड़ता है और वह खुद के साथ नाबालिग बच्चे का भरण-पोषण करने के लिए संघर्ष कर रही है।
दोनों पक्षों को सुनने के बाद पीठ ने कहा कि भरण-पोषण का उद्देश्य सम्मान के साथ जीने और भोजन, आश्रय, कपड़े, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसे बुनियादी खर्चों को पूरा करने के उनके अधिकार की रक्षा करना है।
पीठ ने कहा कि पति यह साबित करने में विफल रहा कि उसके माता-पिता आर्थिक रूप से उस पर निर्भर हैं। घर के निर्माण के लिए ईएमआई के रूप में बड़ी रकम देने के व्यक्ति के दावे को ठुकराते हुए पीठ ने कहा कि पत्नी और बच्चे के भरण-पोषण प्राप्त करने के वैधानिक अधिकार को पति द्वारा किसी भी संपत्ति के लिए ईएमआई का भुगतान करने के कारण छूट नहीं दी जा सकती है।
सन्दर्भ स्रोत : विभिन्न वेबसाइट
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