मीता दास: कवयित्री जिन्होंने अनुवादक के रूप में बनाई पहचान

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मीता दास: कवयित्री जिन्होंने अनुवादक के रूप में बनाई पहचान

छाया: स्व संप्रेषित

प्रमुख लेखिका 

• सारिका ठाकुर 

जापान, चीन, फ्रांस, जर्मनी जैसे देश अपनी ही भाषा के साथ विकसित हुए हैं। इसकी वजह है इन भाषाओं का अन्य भाषाओं से भरपूर अनुवाद। इससे इन्होंने विज्ञान, तकनीकी तथा साहित्य में तरक्की की और भाषाई समृद्धता पाई है। भारत के अंदर भी अनेक भाषाएं तथा बोलियां बोली जाती हैं, ऐसी स्थिति में अनुवाद की अनिवार्यता और भी अधिक हो जाती है। हमारे देश में  22 मान्यता प्राप्त भाषाएं हैं और हर भाषा प्राचीन होने के साथ-साथ काफी समृद्ध है। इसे देखते हुए राष्ट्रीय एकता और समृद्धि के लिए अनुवाद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। कुछ ऐसा मानना है बांग्ला और हिन्दी की प्रख्यात लेखिका एवं अनुवादक मीता दास का। लेखन अथवा अनुवाद उन्हें विरासत के तौर पर नहीं मिला न उन्हें आगे बढ़ाने के लिए किसी का ख़ास प्रोत्साहन मिला। ऐसे में उनके जीवन की सबसे अहम् बात है उनका वह बनना जो वाकई उन्होंने बनना चाहा, वह भी तमाम ज़िम्मेदारियां पूरी करते हुए।

मीता जी का जन्म जबलपुर में 12 जुलाई 1961 को जबलपुर में हुआ। माँ श्रीमती मीरा दास रॉय एवं पिता श्री श्रीनाथ बिहारी दास रॉय हैं। पांच भाई-बहनों में मीता जी दूसरे स्थान पर हैं। श्री रॉय सरकारी डॉक्टर थे और उनकी माताजी स्वभाव से समाज सेविका, हालाँकि वे कभी किसी संस्था से नहीं जुड़ीं और दुनिया की नज़र में एक आम गृहणी बनी रहीं। मीता जी के पिता का तबादला अक्सर सुदूर इलाकों में होता था, जहाँ वे गाँव और अस्पताल में स्वास्थ्य समस्याओं से जूझती हुई महिलाओं को देखतीं। मीरा जी घर का कामकाज ख़त्म कर पहुँच जातीं उनके बीच और तरह-तरह से उन्हें समझातीं। उपलब्ध साधनों में ही किस तरह का भोजन हो, वे साफ़-सफाई किस तरह रखें, बच्चों को बीमारियों से किस तरह बचाएं जैसी हजारों बातें थी जिसके विषय में वे महिलाओं को जागरूक करने की कोशिश करतीं। इसलिए ऐसे इलाकों  में मीता जी के पिता जहाँ चिकित्सक होने के कारण पहचाने जाते वहीं उनकी माँ अच्छी-अच्छी सीखों के कारण लोकप्रिय हो जातीं। मीता जी का परिवार जहाँ भी गया उनकी माँ ने हर जगह अपनी अलग पहचान बनाई। एक समय मीता जी के पिता रायगढ़ में नियुक्त थे। वहां से कुछ दूर धर्मजयगढ़ में 1947 के विस्थापित रहते थे जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थे। वे सभी बहुत प्रेम से रहते थे और होली, दीवाली ईद साथ ही मनाते थे। एक बार किसी बात पर वहां दंगा भड़क गया और धर्मजयगढ़ के आसपास के इलाके भी उसकी चपेट में आ गए। रायगढ़ के युवक भी लड़ने-कटने और मरने पर आमादा हो गए। इस कठिन परिस्थिति में मीता जी की माँ ने सभी को समझा बुझाकर शांत किया। यहाँ तक कि कुछ अति उत्साहियों को उन्होंने अपने ही घर में बंद कर दिया। इस तरह कई युवा दंगे की आग में झुलसने से बच गए।    

मीता जी के पिता का तबादला बहुत ही जल्दी-जल्दी हुआ करता था। कभी-कभी तो साल भर भी एक जगह पर टिकने का मौक़ा नहीं मिलता था। इसलिए उनकी माँ बच्चों को लेकर मायके कोलकाता चली गईं। वहीं उनकी पढ़ाई की शुरुआत हुई। पहली कक्षा के बाद उनकी माँ फिर पिताजी के साथ रहने आ गईं लेकिन जीवन में स्थायित्व का हमेशा अभाव ही रहा। बच्चों की पढ़ाई भी बमुश्किल हो पाई। कोलकाता से लौटने के बाद सहसपुर लोहरा (कवर्धा, छत्तीसगढ़) में पढ़ाई फिर से शुरू हुई, लेकिन जगह बदलती रही। वर्ष 1976 में उन्होंने जबलपुर से हायर सेकेंडरी किया। आगे की पढ़ाई और भी मुश्किल होती चली गयी। परिवार पिताजी के तबादले के कारण सागर पहुँच गया और वही सागर विश्वविद्यालय में उनका स्नातक के लिए नामांकन हुआ। नौ महीने के भीतर परिवार भोपाल आ गया तो द्वितीय वर्ष की पढ़ाई नूतन कॉलेज भोपाल और तृतीय वर्ष होम साइंस कॉलेज, जबलपुर से पूरी की। यानी तीन वर्ष का पाठ्यक्रम तीन अलग-अलग विश्वविद्यालयों से पूरा हुआ।

आमतौर पर सभी बंगाली परिवारों में कलात्मक अभिरुचियाँ पाई जाती हैं। पढ़ाई-लिखाई के साथ ही बच्चों को संगीत, साहित्य या रंगमंच जैसी विधाओं से भी जोड़ने का प्रयास किया जाता है। इसके जरिए वे अपनी सांस्कृतिक विरासत को तो जीवित रखने की कोशिश करते हैं। लेकिन मीताजी के घर में ऐसा वातावरण नहीं था। चूंकि परिवार किसी एक जगह नहीं रहता था इसलिए पढ़ाई भी बड़ी मुश्किल से हो पाती थी। लेकिन घर में किताबों की कमी नहीं थी। पढ़ने का शौक सभी को था। घर में एक छोटी सी लाइब्रेरी थी, इसके अलावा बांग्ला और हिन्दी - दोनों ही भाषाओं में पत्रिकाएँ आती थीं। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में रहने के कारण मीता जी और उनके भाई -बहनों को बांग्ला का भी विशेष ज्ञान नहीं था। लेकिन मीता जी को पढ़ने का शौक था इसलिए अपनी माँ से पूछ-पूछकर बांग्ला पढ़ना और लिखना दोनों सीख गईं। उन दिनों धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान और रविवार जैसी पत्रिकाओं के अलावा बच्चों की भी कई स्तरीय पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं, जैसे चम्पक, नंदन, पराग, मिलिंद आदि। इसके अलावा जब गर्मी की छुट्टियों में परिवार कोलकाता जाता तो वहाँ घर की लाइब्रेरी उनका प्रिय ठिकाना हुआ करता था।

कक्षा 9 में मीता जी ने सबसे पहले कहानी लिखी, जो कभी डायरी से बाहर नहीं आई। धीरे-धीरे यह सिलसिला आगे बढ़ा, इन्होंने कविताएँ भी लिखीं। स्कूल के दोस्त और परिजन हौसला बढ़ाते। फिर वह वक्त भी आया जब पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं छपने लगीं। उस समय ज्यादातर वे बँगला में ही लिखती थीं। फिर ऐसा भी हुआ कि लेखन से मन उचट गया और सिलसिला थम गया। जब वे कॉलेज में पहुंची तब उनकी सहेलियों ने उन्हें फिर से लिखने के लिए उकसाया और तब से शुरू हुआ सिलसिला आज भी जारी है। ग्रेजुएशन के बाद वर्ष 1981 में मीता जी की शादी  श्री मनोरंजन दास से हो गई। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में इंजीनियर थे। मीता जी आगे पढ़ना चाहती थीं लेकिन ससुराल में इसकी अनुमति नहीं मिली। घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों के बीच वक़्त बहुत मुश्किल से मिलता लेकिन पढ़ने और कुछ-कुछ लिखने का सिलसिला जारी रहा। उनकी रूचि को देखते हुए उनके पति और ससुर उन्हें किताबें लाकर देते थे। इस बीच हिन्दी की सभी प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में जैसे - नया ज्ञानोदय, पहल, वागर्थ आदि में मीता जी का कहानियां और कविताएँ प्रकाशित होती रहीं।

अनुवाद के प्रति रुझान के बारे में मीता जी ने बताया कि मैं जब हिन्दी से बांग्ला साहित्य में आई तो भिलाई की ‘बंगीय साहित्य संस्था’ की पत्रिका के संपादक के आग्रह पर हिंदी से बांग्ला में अनुवाद करती थी। यह पत्रिका पिछले चार दशक से निकल रही है और उसमें एक हिस्सा अनुवाद का भी रहता है। देश में ही नहीं विदेशों में भी चर्चित इस पत्रिका में अनुवाद पढ़कर पाठकों, रचनाकारों और संपादकों के प्रशंसा भरे पत्र आते। उन प्रतिक्रियाओं को पढ़कर मीता जी खुश होती थीं। इससे उनका आत्मविश्वास भी बढ़ने लगा। ‘मध्य वलय’ पत्रिका के संपादक - शिवव्रत देवानजी ने भी उनका उत्साहवर्धन किया और वे अन्य पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी अनुवाद करने लगीं। कोलकाता की पत्रिकाओं में मेरे अनुवाद पढ़कर प्रतिष्ठित बांग्ला लेखक और महाश्वेता देवी के सुपुत्र नवारुण भट्टाचार्य ने आग्रह किया कि मैं उनकी कविता, कहानी और उपन्यासों का अनुवाद हिंदी में करूँ। मेरे लिए यह बड़े गर्व की बात थी। साथ ही बड़ी ज़िम्मेदारी का काम भी था। इस प्रकार अनुवाद का सिलसिला चल पड़ा। इसके समानान्तर मीता जी की अपनी लेखनी भी चलती रही। पिछले पच्चीस वर्षों से रायपुर के आकाशवाणी केंद्र और दूरदर्शन केंद्र से उनकी कविताएँ प्रसारित होती रही हैं। इसके अलावा भोपाल दूरदर्शन केंद्र से भी कई बार उनकी कविताओं और गीतों का प्रसारण किया गया है।

भारत में अनुवाद के महत्व पर वे कहती हैं कि पहले की अपेक्षा अब भारतीय भाषाओं में अनुवाद का महत्व बढ़ा है, अनुवादकों को पहचान भी मिलने लगी है पर अभी भी बहुत गुंजाइश है। खासकर अनुवादकों को अपेक्षित मानदेय नहीं मिलता, प्रकाशक नहीं मिलते। ये सब राह के कांटे हैं। हालांकि गीतांजलि श्री के ‘रेत समाधि’ के अनुवाद को बुकर सम्मान मिलने के बाद प्रकाशकों के नज़रिए में अंतर ज़रूर आया है। अब तक बांग्ला और हिंदी के कई प्रतिष्ठित रचनाकारों के ग्रंथों का मीता जी अनुवाद कर चुकी हैं और यह सफ़र आज भी जारी हैं। मीता जी के दो बेटों में सबसे बड़े अंकुश दास अमेज़न में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं और उनसे छोटे अंकित दास आर्किटेक्ट हैं। अब मीताजी को पहले की अपेक्षा पढ़ने लिखने के लिए भी काफ़ी वक़्त मिल जाता है। एक कहानी संकलन और एक कविता संकलन छपने के लिए तैयार है। इसके अलावा फिलहाल वे सुकांत भट्टाचार्य के समग्र ग्रन्थ का अनुवाद करने में व्यस्त हैं। साथ ही छत्तीसगढ़ जन संस्कृति मंच, भिलाई - दुर्ग  की वे अध्यक्ष हैं और बंगीय साहित्य संस्था, भिलाई से जुड़ी हैं।

प्रकाशन

• अंतर्रमम (बांग्ला काव्य संग्रह) : 2002, साहित्य सेतु प्रकाशन, हुबली

• नवारुण भट्टाचार्य की कविताएँ (बांग्ला से हिंदी अनुवाद) 2014 ज्योतिपर्व प्रकाशन, नई दिल्ली

• भारतीय भाषार ओंगोने ( हिंदी के प्रतिनिधि कवियों की रचनाओं का बांग्ला अनुवाद ) 2014, भाषा बंधन प्रकाशन, कोलकाता

• संग्रहालय काटा पा (अग्निशेखर की अनूदित कविताएँ) 2019 भाषा संसद प्रकाशन, कोलकाता  

• पाथुरे मेये (बांग्ला काव्य संग्रह) 2019 भाषा संसद प्रकाशन, कोलकाता  

• काठेर स्वप्न (हिंदी की प्रतिनिधि कहानियों का बांग्ला अनुवाद) 2020 भाषा संसद प्रकाशन, कोलकाता  

• जोगेन चौधुरी की दो संस्मरण पुस्तिकाओं (उजाले और अंधेरे में एक फूल) का  हिंदी अनुवाद  2021 इण्डिया टेलिंग प्रकाशन  

• दो पुस्तिकाएं-मेरे गाँव की पूजा और मैं गुम हो गया का हिंदी अनुवाद, 2021

• समकालीन हिंदी गल्प का बांग्ला अनुवाद 2023,  भाषा संसद प्रकाशन, कोलकाता  

पुरस्कार और सम्मान

• मप्र हिन्दी साहित्य सम्मलेन, भोपाल द्वारा भारतीय भाषाओं में अनुवाद के लिए सप्तपर्णी सम्मान -2022  

• छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी द्वारा शब्द शिल्पी सम्मान -2006

• जननाट्य मंच शिलिगुड़ी, प. बंगाल द्वारा कबि रबिन्द्र सूर सम्मान 2001

• राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा महात्मा गांधी सम्मान  

संदर्भ स्रोत:  मीता दास से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित

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