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महिला कृषि विचार
• सारिका ठाकुर
परिवर्तन प्रकृति का अनिवार्य नियम है, कोई भी व्यक्ति, समुदाय, सामाजिक व्यवस्था इस नियम से परे नहीं है, भले ही वह प्राचीन परंपरा ही क्यों न हो। समय के साथ प्रासंगिकता न होने पर वह समाप्त हो जाती है अथवा उनका स्वरूप बदल जाता है। कृषि ऐसा ही क्षेत्र है जिसमें सदियों से पुरुषों का निर्विवाद वर्चस्व रहा है। अन्य क्षेत्रों की तरह यह महिलाओं के लिए पूरी तरह वर्जित कभी नहीं रहा। प्राचीन काल से ही कृषि कार्यों में महिलाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही हैं। लेकिन बात खेत तैयार करने की हो, बीज बोने,फसल कटाई की हो या पशुधन प्रबंधन की हो, महिलाओं की मेहनत को कोई भी तवज्जो नहीं देता। भारत में कृषि क्षेत्र में महिलाओं की बड़ी भूमिका है। वे कृषि क्षेत्र में बुनियादी काम करती हैं, इसके बावजूद महिला किसान अपना अधिकार प्राप्त करने और सम्मान करने के लिए संघर्ष करती हैं।
ऑक्सफैम इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार खाद्य उत्पादन के लिए 60 से 70 प्रतिशत एवं दुग्ध उत्पादन में 90 प्रतिशत महिलाओं की भूमिका होती है। खाद्य और कृषि संगठन के आंकड़ों के अनुसार, कृषि क्षेत्र में कुल श्रम में ग्रामीण महिलाओं का योगदान 43 प्रतिशत है, वहीं कुछ विकसित देशों में यह आंकड़ा 70 से 80 प्रतिशत भी है। भारत में कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका की बात करें तो देशभर में कृषि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की संख्या 10 करोड़ से ज्यादा है और 79 प्रतिशत किसान महिलाएं कृषि श्रमिक के रूप में योगदान देती हैं। इसके बावजूद महिला खेत मजदूरों के रूप में करीब 68 रुपए औसत प्रति दिन की कमाई है।
अगर राष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो वर्ष 2010-11 की जनगणना के अनुसार देश के कुल किसानों में 30.3 प्रतिशत महिला किसान हैं। परिचालन संपत्ति के स्वामित्व के मामले में आंकड़े हैरान करने वाले हैं। कुल 146 परिचालन संपत्ति में से महिला परिचालन संपत्ति धारकों का प्रतिशत 13.87 प्रतिशत है। इसमें पांच वर्षों में 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इन आंकड़ों से यह बात स्पष्ट होती है कि यह खेतों में जाकर काम करने या न करने से अधिक स्वामित्व और फैसले लेने के अधिकार से सम्बंधित समस्या है। सामाजिक ढाँचे में महिलाओं का खेत में काम करना कभी भी बुरा नहीं मना गया (मध्यम वर्गीय एवं आभिजात्य वर्गों को छोड़कर) बल्कि उन्हें अधिकार से वंचित रखकर खेतिहर (खेतों में काम करने वाले श्रमिक) की श्रेणी से ऊपर नहीं उठने दिया गया।
खेती और महिलाओं के अधिकार
भूखंड पर महिलाओं के अधिकार आज भी कानूनी मसला होने से अधिक सामाजिक रीति रिवाजों में उलझी हुई सी बात है। कानूनी तौर पर कोई भी स्त्री देश की नागरिक होने के नाते कैसी भी संपत्ति(चल अथवा अचल) खरीद सकती है और उसका उपभोग कर सकती है। यहाँ तक कि मौजूदा कानून के अनुसार पैतृक संपत्ति में भी बेटियों को बराबर का उत्तराधिकार माना गया है। इस कानून के लागू होने के बाद भी देश में इने-गिने परिवार होंगे को जिनकी रूचि बेटियों को उसका हक़ देने में होंगी। चूँकि भारत में परंपरागत रूप से भारत में संपत्ति का उत्तराधिकार पुत्रों के पास रहा है। बेटियों को संपत्ति में अधिकार देने की न तो रवायत रही है न लोक मानस में ऐसी नीयत देखी गई। भूखंड पिता से पुत्र को हस्तांतरित होते रहे। इसमें पुत्र की पत्नी अथवा बहुओं को इसमें कभी भी नामजद नहीं किया जाता। ऐसे में भूमि का स्वामित्व महिलाओं को पति की मौत होने के उपरान्त ही प्राप्त हो पाता है, वह भी तब जब बच्चे छोटे हों। भले ही वह खेती के कामकाज में प्रमुख भूमिकाएं निभाती हों, मंडियों तक अनाज ले जाने, बेचने और पैसे रखने का हक़ पुरुषों के पास ही सुरक्षित रहता है। यही वजह है कि –
पुरुष किसानों की तुलना में लंबे समय तक अधिक काम (वैतनिक तथा अवैतनिक) करने के बावजूद महिला किसान न तो उत्पादन पर कोई दावा कर सकती हैं और न ही उच्च मज़दूरी दर की माँग कर सकती हैं।
खेत पर काम करने के अलावा, उनके पास घर और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी हैं। कम मुआवज़े के साथ बढ़े हुए काम का बोझ उन्हें हाशिये पर ले जाने के लिये ज़िम्मेदार एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
अभी तक, महिला किसानों का समाज में शायद ही कोई प्रतिनिधित्व है और किसानों के संगठनों या समय–समय पर किये जाने वाले आंदोलनों में उनका कहीं भी स्पष्ट प्रतिनिधित्व नहीं हैं। वे ऐसी अदृश्य श्रमिक हैं जिनके बिना कृषि अर्थव्यवस्था में वृद्धि करना मुश्किल है।
महिला किसानों की प्रमुख चुनौतियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है –
महिला किसानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि जिस भूमि पर वे खेती कर रही हैं, उस पर स्वामित्व का दावा करने के मामले में वे शक्तिहीन हैं।
कृषि जनगणना 2015 के अनुसार, लगभग 86% महिला किसान इस संपत्ति से शायद इसलिये वंचित हैं क्योंकि हमारे समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्थापित है। विशेष रूप से भूमि पर स्वामित्व की कमी महिला किसानों को संस्थागत ऋण के लिये बैंकों से संपर्क करने की अनुमति नहीं देती क्योंकि बैंक आमतौर पर ज़मीन के आधार पर ही ऋण स्वीकृत करते हैं।
दुनिया भर में किये गए शोधों से पता चलता है कि जिन महिलाओं की पहुँच सुरक्षित भूमि, औपचारिक ऋण और बाज़ार तक है, वे फसल-सुधार, उत्पादकता में वृद्धि और घरेलू खाद्य सुरक्षा तथा पोषण में सुधार करने के लिये अधिक निवेश कर पाती हैं।
पिछले वर्षों में भूमि अधिग्रहण दोगुना हो गया है जिसके परिणामस्वरूप खेतों का औसत आकार घट गया है। इसलिये, अधिकांश किसान छोटे और सीमांत वर्ग (एक श्रेणी जो निर्विवाद रूप से महिला किसानों को शामिल करती है) के अंतर्गत आते हैं, इनके पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि होती है।
महिला किसान और मज़दूर आमतौर पर श्रम-केंद्रित कार्य (कुदाल या फावड़े की मदद से गड्ढा खोदना, घास काटना, खरपतवार हटाना, कटाई करना, बेंत का संग्रह, पशुधन की देखभाल) करती हैं।
विभिन्न कृषि परिचालनों के लिये महिला-अनुकूल उपकरण और मशीनरी रखना महत्त्वपूर्ण है।
अधिकांश कृषि मशीनरी ऐसी हैं जिनका संचालन करना महिलाओं के लिये मुश्किल है।
अंतिम समस्या यह है कि कृषि को अधिक उत्पादक बनाने के लिये संसाधनों और आधुनिक उपकरणों (बीज, उर्वरक, कीटनाशक) तक महिला किसानों की पहुँच साधारणतया पुरुषों की अपेक्षा कम होती है।
खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, महिला और पुरुष किसानों के लिये उत्पादक संसाधनों तक समान पहुँच सुनिश्चित हो जाने से विकासशील देशों के कृषि उत्पादन में 2.5% से 4% की वृद्धि हो सकती है।
वर्ष 2017 के 29-30 अगस्त को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में देश भर से आई महिला किसान और उनके हक़ के लिए काम करने वाली संस्थाएं पहुंची। इस जमावड़े के आयोजन में राष्ट्रीय महिला आयोग और यूएन वुमेन की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उनके बुलावे पर केंद्रीय कृषि मंत्री भी पहुंचे थे लेकिन मुद्दों को समझने और उसके समाधान के प्रति रूचि उन्होंने भी नहीं दिखाई। इसी आयोजन में एक नारा सामने आया –
सौ में सत्तर काम हमारे, लिखो बही में नाम हमारे’
लेकिन यह आवाज़ उस हॉल से बाहर नहीं सुनी जा सकी। हालांकि इसी आयोजन में मंडला की रहने वाली शामली मेश्राम भी पहुंची थी जिसके मजबूत इरादों ने परम्परागत सोच को भी मात दे। उन्हें अपने अधिकारों के बारे में पता चला और अपने पिता से जमीन पर अपना हक़ माँगा मगर वे नहीं माने। उसने उन्हें समझाया कि वे भी तो अपने भाइयों की तरह ही पैदा हुई हैं और उन्हीं की संतान हैं, फिर यह भेदभाव क्यों? आखिरकार उनके माता-पिता को बात समझ में आ गई और अपने दोनों भाइयों के साथ उन्हें भी पिता की जमीन पर मालिकाना हक़ मिल गया। वह कहती हैं –“मैं खेतों में काम करते हुए बड़ी हुई हूँ और मैं एक किसान हूँ, अपनी ज़मीन पर अपने हिसाब से खेती का हक़ हर किसान को मिलना चाहिए।” मगर झांसी के गाँव खजुराओ की रहने वाली बुजुर्ग रामवती इतनी खुशकिस्मत नहीं हैं। वह किसानी का पूरा काम करती हैं, पति मारता है और घर से निकाल देता है, जिस खेत में वह काम करती हैं उस पर भी उनको हक़ नहीं मिला।
कृषि में महिलाओं का योगदान देखते हुए 15 अक्तूबर को महिला किसान दिवस मनाया जाता है। परन्तु यह स्पष्ट है कि क़ानून लागू हो जाने से, एक विशेष दिन मना लेने से बदलाव नहीं आते। बदलाव आती है हौसले से, यह वही हौसला है जिसकी वजह से शामली मेश्राम को उनका हक़ मिला। महिला किसानों को अपना हक पाने के लिए लड़ाई की शुरुआत अपने घर से करनी होगी।
संपादन: मीडियाटिक डेस्क
स्रोत: खबर लहरिया डॉट ऑर्ग, गाँव कनेक्शन डॉट कॉम,सत्याग्रह डॉट कॉम एवं दृष्टि (वेबसाईट)
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