छाया : अनीता दुबे
साहित्य- विचार
हिन्दी साहित्य में मध्यप्रदेश की लेखिकाओं का योगदान भाग-2
(मध्यकाल)
• सारिका ठाकुर
670 ई. की रचनाकार शीला भट्टारिका के उपरांत मध्यप्रदेश के भौगोलिक क्षेत्र में स्त्री लेखन के दृष्टांत नहीं मिलते। संभवतः यही परिदृश्य देश के अन्य क्षेत्रों में भी है। परन्तु दृष्टांत के अभाव में हम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते कि एक विस्तृत कालखंड में स्त्रियों ने कुछ रचा ही नहीं होगा। सम्भवतः उनकी रचनाओं को सहेजने की इच्छाशक्ति या रूचि तत्कालीन ग्रन्थकारों या टीकाकारों में नहीं रही होगी। यही कारण है कि दीर्घ शून्यकाल के पश्चात 16 वीं शताब्दी से स्त्री लेखन के कुछ प्रमाण प्राप्त होते हैं। 1498-1546 ईस्वी के मध्य राजस्थान की भक्ति मार्गी कवियित्री मीरा बाई स्वयं को एक प्रतिमान के रूप में स्थापित कर चुकी थीं। साहित्य जगत में यद्यपि उनके कृष्ण-प्रेम और भक्ति विषयक पदों पर ही अधिकांश चर्चाएँ होती रही हैं परन्तु समाजशास्त्रीय दृष्टि से विवेचना करें तो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व ने स्त्रियों को लेकर सामाजिक परिचर्चा की एक ठोस भूमि तैयार कर दी जिस पर कालांतर में स्त्री लेखन का एक विस्तृत काव्य संसार नजर आता है। सहज बोध से यह स्वीकार किया जा सकता है कि जिस भक्ति मार्ग पर चलकर मीराबाई ने स्वयं के लिए मुक्ति द्वार की रचना की वे उनके बाद भी बंद नहीं हुआ बल्कि उनसे प्रभावित राजे रजवाड़ों के रनिवास में अभिव्यक्ति के लिए छटपटाती अन्य स्त्रियों ने भी उनका अनुसरण किया, भले ही उनका आभा मंडल ‘मीरा’ के समान ओजपूर्ण न हो। इसके अलावा मध्यकाल में राजदरबार के मनोरंजन के लिए नियुक्त कलाप्रवीण गणिकाओं द्वारा रचित काव्य भी मिलते हैं, हालाँकि वे स्वतन्त्र ग्रन्थ के स्वरूप में नहीं मिलते ।
प्रमुख रचनाकारों का संक्षिप्त विवरण
केशव की पुत्रवधु एवं महाकवि बिहारी की पत्नी: हिन्दी साहित्य में यह चर्चित है कि प्रसिद्ध कवि केशवदास(ओरछा) की पुत्रवधु कवियित्री थीं। हालाँकि इनका सुस्पष्ट परिचय का उल्लेख कहीं नहीं मिलता एवं इनके द्वारा रचित पद भी विलुप्तप्राय ही हैं। दूसरी तरफ रीतिकाल के प्रमुख कवि बिहारी(ग्वालियर) की पत्नी के बारे में भी यह कहा जाता है कि वे कवियित्री थीं। एक रोचक मान्यता के अनुसार बिहारीदास केशवदास के पुत्र थे एवं केशव की पुत्रवधु के नाम से पद रचने वाली कवियित्री बिहारीदास की ही पत्नी थीं। परन्तु आचार्य विश्वनाथ प्रताप मिश्र अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का अतीत’ के दूसरे भाग में इस विषय पर व्यापक पड़ताल प्रस्तुत करते हैं जिसके आधार पर केशव की पुत्रवधु एवं बिहारी की पत्नी के अस्तित्व पर अलग-अलग चर्चा की जा सकती है तथापि उनका वास्तविक परिचय स्थापित करना कठिन है। एक कथा के अनुसार जब कवि केशवदास ने ‘रसिकप्रिया’ की रचना की तो उसे पढ़कर उनके आत्मज विषय विलास में ऐसे लगे कि केशव को विज्ञान गीता (संस्कृत के प्रबोधचंद्रोदय नाटक का भावानुवाद करना पड़ा। उसे पढ़कर उन्हें प्रबोधोदय हुआ और वे दर्शन के ग्रन्थ कांख में दबाकर घूमने लगे। पति का यह अकाल वैराग्य कवियित्री को खलने लगा। श्वसुर का कार्य भी उसे नहीं रुचा। घर में एक बकरा बंधा था। अजासुत ने प्रकृत्या कवियित्री को पास से आते-जाते देख अपनी बोली बानी में मुंह खोला तो उसने काकाजी (श्वसुरजी ) को सुनाते हुए एक तत्कालिक रचना पढ़ी जिसमे कहा गया कि -ऐ बकरे! मैं काकाजी से कहकर तुझे आध्यात्मविद्या की शिक्षा दिलाउंगी जिससे तुझे भी वैराग्य हो जाए। तेरी भी वही गति होगी जो मेरे पतिदेव की हुई। (हिन्दी साहित्य का अतीत: आचार्य विश्वनाथ प्रताप मिश्र, पृ.142)
मूल पद
(जैहे सबै सुधि भूलि तुमैं फिरि भूलि न मो तन भूलि चितैहै।
एक कौ आँक बनावट मेटत पोथिय कांख लिये दिन जैहे।
साँची हौं भाषति मोहिं कका की सौं प्रीतम की गति तेरिहू हैंहै ।
मोसो कहा इठलात अजसुत कैहौं बबाजू सों तोहू सिखैहैं। (हिन्दी साहित्य का अतीत: आचार्य विश्वनाथ प्रताप मिश्र, पृ.144)
बुँदेल वैभव के आधार पर केशव पुत्रवधु का जन्मस्थान ओरछा, जन्म संवत1640 एवं रचना काल 1670 के आसपास कहा जाता है| (स्त्री काव्यधारा-पृष्ठ -15) मिश्रबंधुविनोद में उनका उल्लेख इस प्रकार है –केशव पुत्रवधु, रचनाकाल सं.1660 के पूर्व । विवरण –इनकी कविता सार संग्रह में है। सारसंग्रह का विवरण भूमिका में इस प्रकार दिया गया है –सं1800 का ‘प्रवीण कवि द्वारा संग्रहीत सारसंग्रह’।
पुनः काशी नागरी प्रचारिणी सभा में संग्रहीत हस्तलेख संख्या 895 के 125वें पन्ने पर उपर्युक्त सवैया दिया हुआ है ।(हिन्दी साहित्य का अतीत: आचार्य विश्वनाथ प्रताप मिश्र, पृ.144)
ग्वालियर में जन्मे रीति काल के प्रतिनिधि कवि बिहारी का जन्म ग्वालियर के निकट बसुआ गोविंदपुर ग्राम में विक्रम संवत 1660(सन 1603) में हुआ था । इनके पिता का नाम केशवराय था। इनका विवाह मथुरा में हुआ और युवावस्था से ही वे अपने ससुराल में रहे। कुछ समय आगरा फिर जयपुर रहे। बिहारी की पत्नी के नाम का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। आचार्य विश्वनाथ प्रताप मिश्र लिखते हैं कि-असनि के रीतिबद्ध रचना करने वाले प्रसिद्ध ठाकुर कवि ने अपने आश्रयदाता काशी के श्री देवकीनंदन के नाम पर सतसैयावर्णार्थ टीका लिखी। उसमें कहा गया है कि सतसैया के दोहों की रचना बिहारी ने नहीं बिहारी की पत्नी ने की है।(पृ.142) इस तरह दोंनों कवियित्रियों – ओरछा की बेटी के रूप में केशव पुत्रवधु एवं ग्वालियर की वधु के रूप में महाकवि बिहारी की पत्नी का मध्यप्रदेश से नाता जुड़ जाता है ।
रानी रूपमती (1555-1562): रानी रूपमती मालवा के अंतिम शासक अफगानी बाजबहादुर की रानी थीं। इनके जन्म को लेकर कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, परन्तु नर्मदा घाटी के प्रचिलित कथानकों में उन्हें धरमपुरी या टांडापुर की राजपूत कन्या बताया जाता है। रूपमती गायन एवं नृत्य कला में प्रवीण होने के साथ ही संवेदनशील कवियित्री भी थीं। बाजबहादुर का शासनकाल 1555-1562 ईस्वी रहा, अतः इसके बीच की अवधि को रानी रूपमती का रचनाकाल भी माना जा सकता है। उनके निधन के बाद 1599 ई. में अहमद-उल-उमरी तर्कोंमन जो कि शरफ-उददीन मिर्जा की सेवा में था ने रानी रूपमती और बाजबहादुर की प्रेमकथा फ़ारसी में लिखी। उसने रूपमती की 26 कविताओं को संकलित किया। कविताओं की मूल पांडुलिपि उसने अपने पोते फुलाद खान को सौंप दी एवं उसके दोस्त मीर जाफर अली ने उस पांडुलिपि की एक प्रतिलिपि सन 1653 में तैयार की। मीर जाफर अली से पांडुलिपि दिल्ली के महबूब अली तक पहुंची एवं उसकी मृत्यु के बाद 1831 में दिल्ली की एक महिला हाथ में पहुंची। भोपाल के जमींदार इनायत अली उस पांडुलिपि को लेकर आगर पहुंचे जो बाद में सी.ई. लार्ड तक पहुंच गया जिन्होंने उसका अंग्रेजी अनुवाद एल.एम. क्रंप से करवाया। उस रचनावली को अंग्रेजी में नाम मिला ‘द लेडी ऑफ़ दी लोटस: रूपमती, क्वीन ऑफ़ मांडू: ए स्ट्रेंज टेल ऑफ़ फेथफुलनेस इन 1926’। इस संकलन में रूपमती के दस दोहे, दस कविताएँ और तीन सवैया संकलित है। (सन्दर्भ –विकीपीडिया)
रानी रूपमती की कविताएँ
1-
दुःख की चौखट में कसि तणया मोरा हिरदय
क्लेशों की टकसाल ढलै जियरा की नई मोहर
दुःख बैरी कौं राज्य भयौ, वा कछु नहिं जाने
क्या होवत है धरम-दया, क्या होवत है सबर (द लेडी ऑफ़ दी लोटस.पेज 70)
2.
फूल कमल के सूरज तो बहुतै देखै
कमलन देखैं एकई सूरज
ज्यों कठपुतरी इत्ती हम हाथन की तोर
जा कौं तू इकलौतई सूरज (द लेडी ऑफ़ दी लोटस पेज 76)
3.
प्रेम पिपासा से रैवें हैं बच के सयाने
जौं यह रोग लगा तो औखध कोई न न माने
एक’इ उपाय: ध्वज फहराय, कछु कर जावौ
जीत लौ सब कछु, या लरिते-लरिते मर जावौ
मधुर अली : काल अवधि की दृष्टि से भक्ति काल की रामाश्रयी शाखा की प्रथम कवियित्री मधुर अली को माना जाता है। इनका जन्म संवत 1615(1558 ई.) में हुआ था तथा ये ओरछा के राजा मधुकर शाह की रक्षिता थीं, जिनका शासन काल 1554-1592 रहा। इनका उल्लेख श्री गौरी शंकर द्विवेदी द्वारा रचित ‘बुन्देल वैभव’ के प्रथम भाग में मिलता है। इसके अतिरिक्त इनकी चर्चा अन्यत्र नहीं मिलती। बुन्देल वैभव में ‘रामचरित्र’ एवं ‘गनेसदेव लीला’ नाम से दो ग्रंथो का उल्लेख है। दुर्भाग्यवश दोनों ही ग्रन्थ अब अप्राप्य हैं इसलिए उनकी रचना शैली अथवा उनके भाव पक्ष के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। (सन्दर्भ: स्त्री चेतना और मीरा का काव्य-पूनम कुमारी)
रायप्रवीण : मधुकर शाह के आठ पुत्रों में वीरसिंह जू देव और इंद्रजीत सिंह ही चर्चित राजा हुए। वीरसिंह जूदेव (प्रथम) को बड़ौनी और इंद्रजीत सिंह को कछौआ की जागीरें प्राप्त हुईं। मधुकरशाह के निधन के बाद ज्येष्ठ पुत्र रामशाह जूदेव गद्दी पर बैठे लेकिन अत्यंत साधु प्रकृति और राजकाज की लिप्सा न रखने वाले रामशाह जूदेव ने जल्दी ही कछौआ से इंद्रजीत सिंह को बुला कर उन्हें ओरछा का राज सौंप दिया। इन्द्रजीत सिंह के दरबार में गुरु केशवदास नामक कवि थे जिनकी शिष्या थीं रायप्रवीण।
जगदीश्वर चतुर्वेदी एवं सुधा सिंह द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘स्त्री काव्यधारा’ के पृ. 18 पर रायप्रवीण अथवा प्रवीणराय से सम्बंधित विवरण कुछ इस प्रकार दर्ज है –
“प्रवीणराय पातुर-वेश्या कुल में जन्म। ओरछा नरेश इन्द्रजीत सिंह की रक्षिता।रचनाकाल संवत 1650। श्रृंगार काव्यधारा”
शताब्दियों तक रायप्रवीण की चर्चा इसी अर्थ में होती रही, बड़ी-बड़ी समालोचनाओं में गुरु केशवदास के साथ उनके ग्रन्थ ‘कविप्रिया’ की चर्चा एवं उस सूत्र से रायप्रवीण की चर्चा होती रही परन्तु उस चर्चा में सम्मानभाव का अभाव स्पष्ट रूप से अनुभव होती है। दृष्टांतस्वरूप हिंदी साहित्य का अतीत: आचार्य विश्वनाथ प्रताप मिश्र में रायप्रवीण को कुछ इस प्रकार स्थान दिया गया है –
केशवदास ओरछा के राजा इन्द्रजीत के दरबारी कवि थे, आचार्य विश्वनाथ प्रताप मिश्र ‘हिन्दी साहित्य का अतीत’ के दूसरे भाग में पृ 55 पर लिखते हैं कि “ केशवदास का काम(जैसा उनके ग्रंथों से सिद्ध होता है) पुराण बांचना, कविता करना और इन्द्रजीत की वेश्याओं को साहित्य पढ़ाना भी था। केशवदास ने ‘कविप्रिया’ का निर्माण इन्द्रजीत की सर्वप्रधान वेश्या प्रवीणराय को कवि शिक्षा का उपदेश देने के लिए किया था| कविप्रिया में इसका और साथ ही इन्द्रजीत के यहाँ की अन्य प्रधान पातुरों का उल्लेख स्वयं किया है और उनमे प्रवीण राय की विशेष प्रशंसा की है। यह भी कहा जाता है कि कविवर की इस चेली ने उनकी रामचंद्रिका में आग्रहपूर्वक अपनी कुछ रचना रखवाई। ” आचार्य विश्वनाथ प्रताप मिश्र यहाँ तक कहते हैं कि जनकपुर में ज्योनार के अवसर पर जो गालियाँ गवाई जाती हैं वे प्रवीण राय की रचना है। ”
इतिहास में दर्ज इस अशिष्टता के प्रतिकारस्वरूप बाद की अवधि वाले कई विद्वानों ने भूल सुधार की चेष्टा की और यह सिद्ध हुआ कि रायप्रवीण अथवा प्रवीणराय वेश्या कुल की न होकर एक लुहार की पुत्री थीं ।
रायप्रवीण की साहित्यिक कृतियाँ प्रबंध काव्य के रूप में कहीं नहीं मिलती, इनके दोहे, कवित्त सवैया टुकड़ों-टुकड़ों में दर्ज है एवं जैसा कि आचार्य विश्वनाथ मिश्र कहते हैं ..रायप्रवीण की कुछ रचनाएं केशवदस द्वारा रचित ‘रामचन्द्रिका’ में दर्ज है । तथापि रायप्रवीण के उपलब्ध साहित्य की शैली एवं श्रृंगारिक रचनाओं के पद विन्यास को देखते हुए उनके द्वारा गाली-गीतों की रचना ‘जो कि जनकपुर के ज्यौनार में प्रचिलित हो’ गले नहीं उतरता ।
हिन्दी काव्य की कोकिलाएं (श्रीयुत गिरिजादत्त शुक्ल, बी.ए. एवं श्रीयुत ब्रजभूषण शुक्ल, विशारद) के अनुसार अकबर के आदेश पर उसके दरबार पहुंचाने से पहले रायप्रवीण ने कुछ इस प्रकार निवेदन किया था –
आई हैं बुझन मन्त्र तुम्हैं निज स्वासन सों सिगरी मति गोई।
देह ताजों कि तजौं कुल कानि हिये न लजौं लजिहें सब कोई। ।
स्वारथ ओ परमारथ को पथ चित्त विचारि कहौ तुम सोई।
जामे रहै प्रभु की प्रभुता, अरु मोर पतिब्रत भंग न होई। ।
कहा जाता है कि अकबर ने प्रवीणराय को दो दोहों के एक-एक चरण देकर उनकी पूर्ति करने के लिए उनसे कहा, उनमें से एक दोहे का प्रथम चरण कुछ ऐसा था –
ग्रुवन चलत तिय देह ते, चटक चलत किहि हेत।
मनमथ बारि मसाल को, सौति सिहारो लेत।
रायप्रवीण ने उत्तर दिया –
ऊँचे हैं सुरबस किये, नीचे नर बस कीन।
अब पातल बस करन को धरकि पयानो कीन।
ओरछा में रायप्रवीण के महल और उसमें चित्रित कवियित्री एवं उनके गुरु के माध्यम से उनकी उपस्थिति आज भी महसूस की जा सकती है।
इन्द्रमती (1649-1726) : इन्द्रमती पन्ना निवासी प्राणनाथ की पत्नी थीं, प्राणनाथ ने धामी पंथ का प्रवर्तन किया था। ये पन्ना नरेश छत्रसाल के समकालीन थे, छत्रसाल का जन्म -1649 और मृत्यु 1726 में हुआ। इंद्रमती के रचनाकाल को इसी समकाल में माना जा सकता है। नागरी प्रचारिणी सभा की हस्तलिखित रचनाओं की सूची में प्राणनाथ और इन्द्रमती की 12 से अधिक संयुक्त रचनाओं का उल्लेख है। (काव्यधारा-निर्गुण शाखा) इससे अतिरिक्त इनसे सम्बंधित और कोई जानकारी नहीं मिलती।
बखत कुंवरि:(1762-1801) प्रियासखी उपनाम से पद रचने वाली बखत कुंवरि दतिया के महाराज शत्रुजीत की रानी थीं जिनका शासन काल सन 1762-1801 रहा। बखत कुंवरि राधा वल्लभ सम्प्रदाय के हित परमानन्ददास की शिष्या थीं। बाद में वृन्दावन में ही बस गईं एवं सन 1813 में कुञ्ज बनवाकर राधा वल्लभ की प्रतिष्ठा की। वृन्दावन में दतिया कुञ्ज की आठ शाखाएं हैं जो रानी बखत कुंवरि एवं बाद में दतिया नरेश परीक्षित की पत्नी हीरा कुंवरि द्वारा स्थापित है। बखतकुंवरि लिखती हैं –
संवत 1870 की साल लाल, बाल छवि देख जनम जनम दुख गए है।
नौबत निसान बाजै भजन समाज भले, राजी किये सबही सनेहिन कू दये हैं।
उभय वंश जिन पुरखा कृतारथ करे हैं, महारानी बखत कुंवर जग जस छए हैं।
इनके द्वारा रचित ग्रन्थ ‘प्रिय सखी की बानी’ आज भी उपलब्ध है।
(सन्दर्भ: स्त्री काव्यधारा एवं पृ-16 एवं यूनिकसमय डॉट कॉम की रिपोर्ट )
चन्द्रसखी (1767-1795 ई.): स्थानीय स्तर पर ‘मालवा की मीरा’ के नाम से प्रसिद्ध चन्द्रसखी को अनेक इतिहासकारों नें सखी सम्प्रदाय के पुरुष कवि के रूप में मान्यताप्रदान की है । अनेक स्थलों पर चंदसखी एवं चन्द्रसखी का सूक्ष्म भेद भी नज़र आता है तथापि इतिहासकार डॉ. पूरन सहगल पत्रिका ‘मधुमती’ में चन्द्रसखी पर आधारित विस्तृत शोध उपस्थित करते हैं जिसके आधार पर यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि चन्द्रसखी जिनका वास्तविक नाम रूपकुंवर था, मंदसौर जिले में चम्बल नदी के किनारे बसे बर्रामा गाँव में रहती थी । डॉ. पूरन सहगल लिखते हैं कि चन्द्रसखी के दो पदों में इंदौर की होलकर रानी अहिल्याबाई का उल्लेख आता है जिनका समय सन 1767-1795 ई. रहा है। अतः चन्द्रसखी का रचना काल भी यही माना जाना चाहिए। प्रसंग है कि कुछ लोगों ने चन्द्रसखी को समझाया कि तुम्हें अहिल्या माता के दरबार में जाकर अपना भजन सुनाना चाहिए। वे तुम्हें प्रसन्न होकर जागीर देंगी । रानी अहिल्याबाई का दरबार भानपुर में लगता था जो बर्रामा(होलकर राज्य का गाँव) के निकट था।
प्रतिउत्तर में चन्द्रसखी कहती हैं कि –
अलगोजो नी वजाऊँ, कणके आगे।
माथे नी नमाऊँ कण के आगे।।
मात आइल्या सिवजी ने ध्यावे,\
मूँ ध्याऊँ म्हारो कान्हो।
उनके अनेक पदों से यह भी ज्ञात होता है कि वे चम्बल किनारे रहती थीं एवं गाय चराती थीं। उदाहरण के लिए –
चाम्बल कनारे म्हारो गाँव, साँवरिया आइ जा रे।
चाम्बल कनारे म्हारी ओछी हेवली।
मूँ हूँ मालवा री गाम गंवेली।।
चन्द्रा गंवेली म्हारो नाम। राधा रंगीली म्हारो नाम।।
ललता रसीली म्हारो नाम। चाम्बल कनारे म्हारो गाम।।
उल्लेखनीय है कि चन्द्रसखी के इस पद में कमोवेश हेर-फेर कर अनेक शास्त्रीय एवं लोकगायकों ने गाया है जिनमें शास्त्रीय गायिका प्रभा आत्रे द्वारा प्रस्तुत –जमुना किनारे मोरा गाँव’ सुप्रसिद्ध है। इसी प्रकार उनके पदों में कृष्णन के प्रति अनुराग के साथ-साथ गाय, खेजड़ी, कांदा-रोटी जैसे शब्द भी आते हैं। चन्द्रसखी नामकरण के पीछे कथा है कि रूपकुंवर एवं उनकी माता जगकुंवर दोनों कृष्ण भक्त थीं एवं भक्ति गीत गाया करती थीं। एक बार एक कृष्ण भक्त संत वृद्धा बर्रामा ग्राम आई और कई महीनों तक रही । उसी ने रूपकुंवर को कृष्ण की सखी (कृष्ण भक्त चन्द्रावली) का पुनर्जन्म बताया और रूपकुंवर को चन्द्रसखी के नाम से पुकारना प्रारंभ कर दिया। रूपकुंवर का विवाह राजस्थान के एक गाँव में हुआ, वह अपने ससुराल में नहीं रहना चाहती थी और बर्रामा लौट आई। जीवन के उत्तरार्ध में वे बर्रामा छोड़कर गोकुल चली गईं एवं वही जमुना किनारे कुटिया बनाकर रहने लगीं। चन्द्रसखी द्वारा रचित ‘आज बिरज में होरी रे रसिया’ आज भी ढोल-मंजीरे के साथ गाते हुरियारे मिल जाते हैं। (संदर्भ : विवरण मालविथिया डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम पर प्रकाशित श्री राजेश एल.जोशी की विवेचना पर आधारित)
राघोगढ़ की रानी सुंदरि कुँवरी राठौड़ एवं छत्रकुंवरि : रानी सुंदरि कुंवरि राजस्थान के किशनगढ़ रियासत के राजा राजसिंह एवं रानी बांकावतजी की पुत्री थीं। सुंदरि कुंवरि का विवाह मालवा क्षेत्र के रियासत राघोगढ़ में खींची नरेश महाराज बलभद्र सिंह के पुत्र राजकुमार बलवंत सिंह(1770-97 ई.) से हुआ था । इनका जन्म विक्रम संवत 1791, कार्तिक सुदी 9 (1734 ई.) को हुआ था। इनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं था एवं पारिवारिक कलह के कारण गृहस्थ जीवन से मन विरक्त हो गया और वे कृष्ण भक्ति में लीन हो गईं। इनके द्वारा रचित छोटे-बड़े 11 ग्रंथों के प्रमाण मिलते हैं। काल क्रमानुसार वे इस प्रकार हैं –
नेहनिधि (1817) , वृन्दावन महात्म्य (1830), संकेत युगल (1830), रसपुंज (1834), प्रेम संपुट (1845), सार संग्रह (1845), रंगझर (1845), गोपी महात्म्य (1846), भावना प्रकाश (1849), राम रहस्य (1853), और पद तथा फुटकर कवितादि छंद।
कवयित्री का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। भाव-सौंदर्य अनूठा है और शब्द-विन्यास में प्रत्येक पंक्ति में आंतरिक युगल-बंधों (श्रुत्यानुप्रास) की छटा मनमोहक है। वे अपने पदों में कृष्ण लीला के विविध चित्रात्मक रूपक रचती थीं। उदहारणस्वरूप –
नचत तरंग अंग अंग रंग मगी है।
गाजत गहर धुनि बाजत मधुर बैन,
नागिन अलक जुग सीधे रूगवगी है।
भंवर त्रिमंगताई पान पलुनाई तामें,
मोती मणि जालान की जोति जगमगी है।
कृष्ण भक्त होते हुए भी उनके कुछ पदों में राम के प्रति भक्ति भी अभियक्त होती है –
चारुं चमुज अपार लखे गजराज की पीठ पे होत नागारो।
नीकी अनीकिनी पीत निशाँ यों सहत छवि नैननिहारो।
(सन्दर्भ- ज्ञानदर्पण डॉट कॉम पर प्रकाशित स्व. सौभाग्य सिंह शेखावत द्वारा प्रस्तुत ‘साहित्य साधक शाही राजपूत नारियां’ लेख श्रृंखला पर आधारित) स्त्री काव्यधारा के अनुसार इनके काव्य में राधा वल्लभ संप्रदाय का स्पष्ट प्रभाव था । दोहा, सवैया, कुंडलिया, कवित्त जैसे प्रचिलित प्रधान छंदों का प्रयोग इनके काव्य में मिलता है ।
छत्रकुंवरि राजस्थान के किशनगढ़ रियासत के राजा सावंतसिंह की पौत्री, नागरीदास के पुत्र महाराज सरदार सिंह की पुत्री थीं। सुंदरि कुंवरि इनकी बुआ थीं। छत्र कुंवरि का विवाह राघोगढ़(मप्र) के खींची महाराज बहादुर सिंह से हुआ था। वे निम्बार्क संप्रदाय की सदस्या थीं एवं इनका ‘प्रकम विनोद’ नामक ग्रन्थ प्राप्त होता है जिसका रचनाकाल स्त्री काव्यधारा के अनुसार विक्रम संवत में 1745(1688 ई.) निरुपित किया जाता है। यद्यपि तार्किक दृष्टि से यह काल अवधि सटीक नहीं लगता क्योंकि महाराज बहादुर सिंह का राघोगढ़ पर शासन काल 1902ई.-1945 ईं. तक माना जाता है। प्रकम विनोद में वे अपना परिचय इस प्रकार देती हैं –रूपनगर नृप राजसी, जिन सुत नागरिदास।
तिन पुत्र जु सरदारसी, हों तनया तै मास।।
छत्रकुंवरी मम नाम है कहिबै को जग मांहि।
प्रिया सरन दासत्व तै, हौं हित चूर सदांहि ।।
सरन सलेमाबाद की, पाई तासु प्रताप।
आश्रम है जिन रहसि के, बरन्यो ध्यान सजाय।
छत्र कुंवरि की रचनाओं में कृष्ण लीला एवं गोपिकाओं का विरह मुखरित होता है। कृष्ण विरह में व्याकुल पुष्प चुनती गोपिकाओं का वर्णन करते हुए वे लिखती हैं –
स्याम सखी हंसि कुंवरिदिस, बोली मधुरे बैन।
सुमन लेन चलिए अबै, यह बिरिया देन।।
(सन्दर्भ- ज्ञानदर्पण डॉट कॉम पर प्रकाशित स्व. सौभाग्य सिंह शेखावत द्वारा प्रस्तुत ‘साहित्य साधक शाही राजपूत नारियां’ लेख श्रृंखला पर आधारित)
वृषभानु कुंवरि: बुन्देलखंड के विदारी ग्राम में सन 1855 में जन्मी वृषभानु कुंवरि बाल्यावस्था से ही रामभक्ति की ओर उन्मुख थीं । वृषभानु कुंवरि के पति ओरछा के राजा श्रीमान महेंद्र महाराज प्रताप सिंह जूदेव थे। मान्यता है कि ये ‘रामप्रिया’ उपनाम से पद रचती थीं तथापि उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ रियासत की महारानी रघुराज कुंवरि के सन्दर्भ में भी यही कहा जाता है। ”’यद्यपि प्रमाणिक रूप से वृषभानु कुंवरि द्वारा रचित वृषभान विनोद होली रहस एवं झूलन रहस में लगभग पांच सौ पद संकलित हैं। संभव है दोनों महारानियाँ एक ही उपनाम से पद रचना करती हों । सन 1906 में वृषभानु कुंवरि ब्रम्हलीन हो गईं। उन्होंने 1891 ईं. में अयोध्या में स्थित प्राचीन कनक भवन का जीर्णोद्धार करने के साथ-साथ ओरछा में भी कनक भवन का निर्माण करवाया था। दोनों मंदिरों के मंडप से लेकर दालान तक एक जैसी हैं । अयोध्या के कनकभवन में वृषभानु कुंवरि द्वारा रचित झूलन आज भी गाये जाते है –
हडोले झूलत दोउ सरकार/ श्री मिथिलेशलली संग राजत श्री अवधेशकुमार/ दामिनि लरजि गरजि घन बरसत रिमझिम परत फुहार।
सन्दर्भ –10 अप्रैल 2016 जागरण डॉट कॉम पर प्रकाशित एक रिपोर्ट (रामभक्ति के फलक पर भी रही हैं कई मीरा एवं 26 अगस्त 2015 को जागरण डॉट कॉम पर प्रकाशित एक रिपोर्ट- रानियों ने की भक्ति में पगे झूलन गीतों की रचना)
रणछोड़ कुंवरि बाघेली (1843-1873) : रणछोड़ कुंवरि बाघेलीजी रीवां राज्य के महाराजा विश्वनाथ प्रसाद के भ्राता बलभद्रसिंह की पुत्री थीं। इनका विवाह जोधपुर के महाराजा तख़्तसिंह से सन 1861 में हुआ, जिनका शासन काल 1843 से 1873 तक रहा । राजस्थान की अधिकांश शिक्षित राजपुत्रियों और महारानियों की तरह यह भी कृष्णोपासक महारानी थीं । रणछोड़ कुंवरि की काव्यबंध सम्बन्धी कोई स्वतंत्र कृति तो उपलब्ध नहीं है परन्तु भागवत धर्म, कृष्ण चरित्र और भक्ति के पर्याप्त कवित्त, पद तथा छंद प्राप्त है। यहाँ ‘गोविन्द लाल’ से भव कष्टोद्धार की प्रार्थना का एक उदाहरण प्रस्तुत है—
विन्द लाल तुम हमारे,मोहे दुख में उबारे।
मै सरन हूँ तिहारे, तुम, काल कष्ट टारे।उनके दृष्ट गोविन्द थे। अपने सर्जित छंदों, कवित्तों में इन्होंने बार-बार गोविन्द का स्मरण किया है-
आभा तो निर्मल होय सूरज किरण उगे से,चित्त तो प्रसन्न होय गोविन्द गुण गाये सें|पीतल तो उज्जवल रेती के मांजे से,
(सन्दर्भ- ज्ञानदर्पण डॉट कॉम पर प्रकाशित स्व. सौभाग्य सिंह शेखावत द्वारा प्रस्तुत ‘साहित्य साधक शाही राजपूत नारियां’ लेख श्रृंखला पर आधारित) ) –
विष्णुप्रसाद कुंवरि बाघेली: कवयित्री विष्णुप्रसाद कुंवरि भी बाघेला वंश की कन्या थी। यह रीवां के महाराज रघुराजसिंह की राजकुमारी और जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह के लघु-भ्राता महाराज किशोरसिंह की रानी थी। यह रामानुज सम्प्रदाय की अनुयायी थी और कृष्ण इनके इष्ट देव थे। विष्णुप्रसाद कुंवरि द्वारा रचित तीन ग्रन्थ मिलते है-अवध विलास, कृष्ण विलास और राधारास विलास। इनकी भाषा अत्यंत सरल और वर्णन सरस होते है। विष्णुप्रसाद कुंवरि अवध का वर्णन इन शब्दों में करती हैं –
चलत सुमंद पवन पुरवाई नभ घनघोर मचाय।
दादुर और पपीहा बोलत दामिनी दमक दुराय।
भूमि निकुंज सघन तरुवर में लता रही लिपटाय।
सरजू उमगत लेत हिलोरें निरखवत सियरघुराय।
कहत प्रताप कुंवरि हरि ऊपर बार बार बलिहार।
(सन्दर्भ- ज्ञानदर्पण डॉट कॉम पर प्रकाशित स्व. सौभाग्य सिंह शेखावत द्वारा प्रस्तुत ‘साहित्य साधक शाही राजपूत नारियां’ लेख श्रृंखला पर आधारित)) –
रतन कुंवरि एवं कांचन कुंवरि : मध्यप्रदेश के विजावर में सवाई सावंत सिंह महाराज का काल 1900 ईसवी रहा है। इनकी दोनों रानियाँ बड़ी महारानी रतन कुंवरि एवं छोटी महारानी कांचन कुंवरि राम भक्ति पूरित पद रचने के लिए विख्यात हैं। रतन कुमारी के पदों में जानकी जी के उपाख्यान मिलते हैं जो रतनमाला ग्रन्थ में संकलित है। इन्होने चित्रकूट में राम-सिया के भव्य मंदिर का भी निर्माण करवाया था। कांचन कुंवरि की रचनाएँ श्री कांचन कुंज विनोदलता ग्रन्थ में संकलित हैं। उनके द्वारा रचित झूलन के पद कुछ इस प्रकार हैं –
पिया घनश्याम सिया दुति दामिनि अरस-परस गल बांह लसी री/ बाढ़त पैंग समारत प्रीतम सिया सिर सारी जात सखी री/ फहरत पीतांबर पट छोरन नथ बेसर की गूंज फंसी री।
कांचन कुंवरि ने कनक भवन की तर्ज पर सरयू के ऋणमोचन घाट तट पर भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था।
(सन्दर्भ : 26 अगस्त 2015 को जागरण डॉट कॉम पर प्रकाशित एक रिपोर्ट- रानियों ने की भक्ति में पगे झूलन गीतों की रचना )
कीरतिकुमारी : महारानी परिहारिन माँ साहेबा कीरतिकुमारी के उपनाम से रचना करती थीं । इनका जन्म फाल्गुन शुक्ल नवमी संवत 1952 को हुआ था। वे रीवा रियासत की राजमाता थीं। इनकी रचनाएं मुख्यतः राधा-कृष्ण के अलौकिक प्रेम पर ही आधारित हैं तथापि पूर्ववर्ती अन्य कवियित्रियों से इनकी शैली सर्वथा भिन्न है। उनके पदों में फ़ारसी के शब्दों का बहुतायत में प्रयोग हुआ है, साथ ही कहन एवं छंदों का विन्यास भी बिलकुल अलग सा है । श्री कृष्ण को उद्बोधित उनकी पंक्तियाँ हैं –
वादा करके मेरे श्याम दग़ा दी तूने ।
गैरों के रहके सारी रात गमा दी तूने । (सन्दर्भ-हिंदी काव्य की कोकिलाएं –पृ.122 एवं स्त्री काव्य धारा –पृ17)
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