छाया: जेडब्ल्यूएम डॉट सांक्ट जॉर्जन डॉट डे
विशिष्ट महिला
• केरल के उच्च जमींदार परिवार की बेटी हैं दयाबाई
• छिदवाड़ा जिले के बारूल गाँव को बनाया था कर्मक्षेत्र
• इन पर बनी बायोपिक लॉक डाउन के कारण अप्रैल 2020 में रिलीज नहीं हो पायी
छिंदवाड़ा जिले में गोंड आदिवासी समाज के लिये दया का सागर हैं दयाबाई। लोग उन्हें मदर टेरेसा के रूप में जानते हैं। दयाबाई की कहानी इसलिए विशेष है, क्योंकि वे केरल के उच्चवर्गीय जमींदार परिवार की बेटी हैं। इसके बावजूद किसी संगठन एवं समाज के समर्थन के बिना सेवा की दुनिया में उन्होंने मिसाल कायम की है। 16 साल की उम्र से ही समाजसेवा का जिम्मा संभालने वाली दयाबाई मुख्यालय से करीब 55 किमी दूर हर्रई ब्लाक के तिंसा गांव में रह रहीं हैं। इसी ब्लॉक के बरूल गांव में आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने के लिए उन्होंने एक स्कूल खोला और हजारों बच्चों को तालीम मुहैया करवाई। उन्होंने ग्रामीणों के स्वास्थ्य सेवा का भी जिम्मा लिया है। हर्रई के आसपास के गांव में कोई भी बीमार होता है तो उसे अस्पताल ले जाने, स्वस्थ होने पर घर छोड़ने तक की जिम्मेदारी खुद उठाती हैं। घर परिवार में कोई देखभाल करने वाला न हो तो सेवा-सुश्रुषा भी दयाबाई ही करती हैं।
हालाँकि गोंड समाज के उत्थान के लिए उन्हें अनेक यातनाएं झेलनी पड़ी। ईसाई धर्मावलम्बी होने के कारण उन पर हिन्दुओं को भडक़ाने का आरोप भी लगा। उन्हें मारा-पीटा गया, बावजूद इसके वे अपने सेवा अभियान से पीछे नहीं हटीं और मानव की सेवा को ईश्वरीय सेवा मानकर काम करती रहीं। वे कहती हैं कि जिस क्षेत्र में वह कार्य कर रही हैं वह अत्यंत पिछड़ा है, लोग सीधे-साधे है जिससे उनका शोषण भी होता है। छिंदवाड़ा जिले में एक लड़की के साथ हुई एक सामूहिक बलात्कार और एक दहेज प्रताड़ना की घटना में पीड़िताओं को न्याय दिलाने उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। इन घटनाओं के कारण वह सुर्खियों में आईं तो लोगों ने उनके कामकाज को समझा और सराहा। इसके बाद बाहर के लोगों का भी सहयोग मिलने लगा।
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मर्सी उर्फ़ दयाबाई का जन्म केरल के कोट्टायम जिले में 22 फरवरी, 1941 को हुआ। उनके पिता मैथ्यू पुल्लाट्टू बड़े जमींदार थे। दयाबाई की समाज सेवा का सफर मुुंबई में समाज सेवा की डिग्री लेने के साथ आगे बढ़ा। बांग्लादेश और हरियाणा में कुछ साल बिताने के बाद दयावती सन् 1980 में गोंड जनजाति के रहन-सहन, रीति-रिवाज़ का अध्ययन करने के उद्देश्य से आदिवासी बाहुल्य हर्रई ब्लाक के तिंसा पहुंच गईं, जहां शुरूआती दौर में उन्हें मजदूरी कर गुजर करना पड़ी और खुले आसमान के नीचे भी दिन गुजारने पड़े लेकिन यह हालात भी उनके हौसले को नहीं तोड़ सके। बारूल में ही उन्होंने अपना अध्ययन एवं शोध केंद्र बनाया और आदिवासियों के रहन-सहन, उनके अंधविश्वास, परंपराओं, दैनिक कार्य शैलियों पर आधारित अनेक नुक्कड़ नाटक तैयार किए। इन नाटकों के जरिए वे समाज की कुरीतियों पर कुठाराघात करती और इस तरह वे अपनी बात लोगों के बीच पहुंचाती रहीं।
जब उन्हें महसूस हुआ, कि कानून की जानकारी सभी के लिए आवश्यक है तो उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई कर डाली। आज 81 साल की उम्र में भी दयाबाई उसी तत्परता से काम करती हैं। उनमें युवाओं जैसा जोश है। वे कई-कई किलोमीटर पैदल चलती हैं। नुक्कड़ नाटकों में उन्हें जोश के साथ गीत गाते हुए देखना दर्शकों को रोमांचित करता है। अपनी जायज बातों को मनवाने के लिए जब कोई तरीका काम नहीं आता है तो वह आमरण अनशन पर बैठ जाती हैं। वे देश-विदेश की अनेक जनसभाओं में हिस्सा ले चुकी हैं। दयाबाई कहतीं हैं कि वह 14 भाई बहन थे लेकिन वर्षो से उनका परिवार से मिलना कम होता है, पिता का निधन होने के बाद पिता ने कुछ पैसा उनके नाम किया था जिससे गांव में करीब 12 एकड़ जमीन खरीदी थी जिसमें 8 एकड़ जमीन वह सार्वजनिक उपयोग के लिए दान कर चुकीं हैं और शेष 4 एकड़ जमीन में जैविक खेती करतीं हैं जिससे उनकी गुजर होती है।
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दयाबाई खुद मीडिया की चकाचौंध से हमेशा दूर रहीं। लेकिन गोंड जनजाति के प्रति उनकी दया और समर्पण को देखते हुए पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टिंग ट्रस्ट ने सन् 2007 में एक फिल्म का निर्माण किया, इसमें यूएनडीपी ने भी आर्थिक सहयोग दिया। फिल्म की सूत्रधार नंदिता दास और निर्देशक भोपाल की प्रीति त्रिपाठी कपूर हैं। इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले। इनमें सन् 2009 में इंटरनेशनल वुमन फिल्म दिल्ली (संस्कृति मंत्रालय के सहयोग से) में बेस्ट बायोग्राफिकल डॉक्यूमेंटरी एवं सन् 2008 में इफ्टेक की ओर से ट्राइबल स्पेशल अवार्ड प्रमुख हैं। वर्ष 2016 में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के विद्यार्थियों दयाबाई के जीवन पर केंद्रित एक नाटक “गोई” का भारत भवन मंचन किया गया। इसकी पटकथा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से निकले बालाजी गौरी ने लिखी थी, जबकि निर्देशन कुमारदास टीएन ने किया। इसमें दयाबाई के संघर्ष के साथ यह भी दिखाया गया कि उम्रदराज़ होकर भी वे किस तरह लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक कर रही हैं। दूसरी तरफ़ केरल की वेट्टम मूवीज प्रोडक्शन हाउस भी दयाबाई पर फिल्म बना रही है। इसके निर्देशक श्रीवरुण और निर्माता जिजू सन्नी कहते हैं कि केरल में दयाबाई का नाम सुना तो इच्छा हुई कि उनके कार्यों को पूरी दुनिया जाने। करीब साढ़े करोड़ की बजट वाली फिल्म में दयाबाई का किरदार बांग्ला अभिनेत्री विदिता बाग निभा रहीं हैं ।
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विदेश यात्राएं
1. पर्यावरण और ह्यूमन राईट्स प्रोग्राम के लिए – वियना
2. फेमिनिस्ट ग्रुप के आयोजन के लिए- फ्रैंकफट एवं जर्मनी के अन्य शहरों की यात्राएं
3. इटली, बेल्जियम, फ्रांस , एशिया, बोस्निया
उपलब्धियां
1. महिला सशक्तिकरण अवार्ड- 2002
2. वनिता वुमन ऑफ द ईयर- 2007
3. नेशनल अवार्ड ऑफ ह्यूमन राईट्स, दिल्ली- 2008
4. अयोध्या रामायण ट्रस्ट की ओर से जननी जागृति पुरस्कार- 2008
5. सुरेन्द्रनाथ ट्रस्ट अवार्ड , कालीकट- 2008
6. रोटरियन गांधीयन पीस अवार्ड, कोचीन- 2011
7. पीकेए रहमान मेमोरियल केरल द्वारा अस्सी सी स्प्रीट- 2010
8. जेसी चिरमेल अवार्ड कोचीन- 2011
संदर्भ स्रोत – मध्यप्रदेश महिला सन्दर्भ, नवदुनिया एवं दैनिक भास्कर
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