आदिवासी महिलाओं के पक्ष में खड़ी

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आदिवासी महिलाओं के पक्ष में खड़ी
रहने वाली समाजसेवी सुरतवंती वर्मा

छाया: संतोष श्रीवास्तव

सामाजिक कार्यकर्ता

समाजसेवी सुरतवंती वर्मा का जन्म 2 अक्टूबर 1916 को कानपुर में हुआ था। उनके पिता डॉ. नानक चंद्र पांडे पशु चिकित्सक थे और माँ श्रीमती रामप्यारी सामान्य गृहिणी। 9 भाई-बहनों में सबसे बड़ी सुरतवंती अपनी खूबसूरती और तेजस्वी व्यक्तित्व के कारण सबके बीच चर्चा का विषय रहती थीं। उनका विवाह सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन के मार्गदर्शन में पीएचडी कर रहे श्री गणेश प्रसाद वर्मा से हुआ, जो आगे चलकर प्रशासनिक अधिकारी बने। विवाह के बाद वे अपने ससुराल माचीवाड़ा (मप्र) आ गईं जहां उनके ससुर जेलर थे। सुरतवंती जी अपनी सभी घरेलू जिम्मेदारियों के साथ-साथ कुछ लिखना-पढ़ना भी करती थीं। उनकी रुचि लोकगीतों में थी, जिन्हें वे घरेलू काम करते हुए गाती रहती थीं।

श्री वर्मा मंडला के जिला मजिस्ट्रेट हुए और अपने छोटे-छोटे बच्चों को संभालते हुए सुरतवंती समाज सेवा के क्षेत्र में आ गईं। इस बीच स्वतंत्रता आंदोलन तेज हुआ और दोनों पति-पत्नी सुभद्रा कुमारी चौहान के नेतृत्व में झंडा आंदोलन में शामिल हो गए। सुरतवंती जी जबलपुर के सत्याग्रहियों के साथ आन्दोलन करने निकलीं तो और सब तो गिरफ्तार कर लिए गए पर सुरतवंती जी सहित कुछ कार्यकर्ता रह गए। वे सब जेल के बाहर बैठे रहे कि हमें भी गिरफ्तार करो परन्तु जेल में अब पाँव रखने को भी जगह न थी। सुरतवंती जी जेल में सुभद्रा जी से मिलने जातीं। धीरे-धीरे यह सान्निध्य दोस्ती में बदल गया। जब गांधी जी की हत्या हुई तो बाकी देशवासियों की तरह सुरतवंती जी भी ऐसे रोईं थीं जैसे उनका कोई अपना ही संसार छोड़ चला गया हो। जबलपुर के तिलवारा घाट पर बापू की अस्थियां विसर्जित करने सुभद्रा जी के नेतृत्व में महिलाओं का विशाल समूह रघुपति राघव राजा राम गाता हुआ पैदल वहाँ तक गया था, जिसमें सुरतवंती जी भी शामिल थीं।

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1963 में सुरतवंती वर्मा ने नगरपालिका का चुनाव जीता और शहर की महापौर चुनी गईं, लेकिन उन्हें कार्यकाल एक साल का ही मिला। इससे पहले वे स्कूल इंस्पेक्टर के रूप में अपनी सेवाएं दे रही थीं। उनके कार्यकाल में विद्यार्थियों के लिए बहुत सारे काम हुए। जबलपुर में सांप्रदायिक दंगों की वजह बने उषा भार्गव कांड की पूरी रिपोर्ट लेकर जो प्रतिनिधि मंडल नेहरू जी के पास गया था, सुरतवंती वर्मा भी उसमें शामिल थीं। वे कांग्रेस द्वारा स्थापित भारत सेवक समाज की कर्मठ सदस्य थीं। वे गांव-गांव में 8 से 10 दिन के शिविर आयोजित करती थीं, जिनमें गाँवों के विकास और ग्रामीण महिलाओं के लिए विशेष कार्य किए जाते थे। इन शिविरों में ओपन फायरिंग भी सिखाई जाती थी जिसमें वे बड़ी दिलेरी से भाग लेती थीं। उन्होंने हमेशा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया और सारी जिंदगी खादी की सफेद साड़ी पहनी जिसकी किनारी और पल्लू रंगीन होता था। कभी कोई जेवर नहीं पहना, सिवा बिछुए और कांच की चूड़ियों के। माथे पर सिंदूर की लाल बिंदी उनके व्यक्तित्व की पहचान थी।

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उस समय बहुत सारी गैर सरकारी संस्थाएं महिलाओं के लिए काम कर रही थीं, लेकिन उनमें से एक भी सिर्फ़ आदिवासी महिलाओं के लिए काम करने वाली नहीं थी। सुरतवंती जी ने इन महिलाओं के लिए संगठन बनाकर काम करना शुरू किया। आदिवासी महिलाओं को साक्षर बनाना, आधारभूत शिक्षा देना, उनके कानूनी एवं सामाजिक अधिकारों के प्रति उन्हें जागरूक करना जैसे उद्देश्यों को लेकर वे आगे बढ़ीं। गोंड, बैगा और भील स्त्रियों की स्थिति पर जानकारी हासिल कर उन्होंने पाया कि ये महिलाएं भी पितृसत्ता में जकड़ी हैं। वे बुआई से लेकर उपज को शहरों के साप्ताहिक हाट बाजार में जाकर बेचने तक सभी कामों में पुरुषों के साथ बराबर की भागीदार थीं। इसके बावजूद उन्हें समानता, स्वायत्तता और संसाधनों में अधिकार नहीं मिलता था। उलटे वे प्रताड़ना की शिकार होती थीं। किसी भी बात पर उन्हें डायन या बिसाही कहकर उनकी हत्या तक कर दी जाती। ऐसी घटनाओं ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया। उन्होंने संगठन की सदस्यों को लेकर सतपुड़ा की घाटी और तराई में बसे आदिवासी इलाकों का तूफानी दौरा किया और कड़े परिश्रम, कानूनी दांवपेच से उन्हें उनके अधिकार दिलाए। लोगों ने दाँतों तले उंगली दबा ली जब उन्होंने देखा कि कुछ दबंग आदिवासी औरतें सुरतवंती जी के संगठन से आ जुड़ी हैं। धीरे-धीरे आदिवासी समाज में औरतों की स्थिति मजबूत होती गई और बहुत हद तक उन्हें डायन कहलाने की त्रासदी से छुटकारा मिला। उनके संगठन में दूर-दूर से आदिवासी औरतें अपनी फरियाद लेकर आती थीं

सुरतवंती जी ने अपने घर में लड़के-लड़की में कभी कोई फ़र्क नहीं किया। अपनी बेटियों को उन्होंने उच्च शिक्षित बनाया। उनकी बड़ी बेटी श्रीमती शीला पंड्या ने शासन द्वारा मान्यता प्राप्त गृह विज्ञान की कार्यशाला का संचालन किया, जहां वे विविध व्यंजन बनाने की ऐसी शिक्षा देती थीं, जिससे कोई भी स्त्री अपना व्यवसाय शुरू कर सकती थी। सिलाई, बुनाई, कढ़ाई गुड़िया बनाना व्यापारिक स्तर पर सिखाया जाता था। उनकी दो छोटी बेटियों श्रीमती संतोष श्रीवास्तव एवं डॉ. प्रमिला वर्मा ने साहित्य के क्षेत्र में अपना मुकाम हासिल किया है। वे समाज सेवा में भी अपना योगदान दे रही हैं। सुरतवंती जी का निधन 18 अप्रैल 1999 को बिना किसी बीमारी के हृदय गति रुक जाने से आगरा में हुआ। श्रीमती सुरतवंती वर्मा की स्मृति में  वैश्विक स्तर की संस्था अंतरराष्ट्रीय विश्व मैत्री मंच ने वर्ष 2022 से प्रतिवर्ष समाज सेवा का पुरस्कार देना आरंभ किया है।

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उनके बड़े बेटे श्री विजय वर्मा जबलपुर के ख्याति प्राप्त नाट्यकर्मी और पत्रकार थे। साहित्य के क्षेत्र में उनका बड़ा योगदान था। उनके ही नाम से राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार विजय वर्मा कथा सम्मान पिछले 20 वर्षों से दिया जाता है। छोटे बेटे रमेश चंद्र जी समाजसेवी रहे जिन्होंने बंद हो जाने वाले कारखानों में कार्यरत लोगों के हित के लिए हाईकोर्ट में मुकदमे लड़े और सबको उनका वेतन दिलवाया। नागपुर में जहां वह रहते थे, वहां एक सड़क नाम उनके नाम से है। दोनों भाई अल्पायु में दुनिया को अलविदा कह गए।

सन्दर्भ स्रोत : श्रीमती संतोष श्रीवास्तव द्वारा प्रेषित जानकारी पर आधारित

सम्पादन : मीडियाटिक डेस्क

कॉपीराइट : मीडियाटिक

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