छाया : अलका जी के फेसबुक अकाउंट से
• सीमा चौबे
हमेशा भीड़ से अलग दिखने की सोच रखने वाले लोग जीवन में आये उतार-चढ़ाव के बावजूद पहचान बनाने में कामयाब हो ही जाते हैं। कविता, कहानी, उपन्यास और व्यंग्य जैसी अलग-अलग विधाओं पर समान अधिकार रखने वालीं डॉ. अलका अग्रवाल सिगतिया ऐसी ही एक शख्सियत हैं। चूना उद्योग के लिये मशहूर कटनी में 13 मार्च को श्री राम निरंजन और श्रीमती शकुन्तला अग्रवाल के घर जन्मी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न अलका जी ने गुड्डे-गुड़ियों से खेलने की उम्र में ही काफी लोकप्रियता बटोर ली थी।
उनके दादा श्री फूलचंद अग्रवाल कटनी के जाने-माने समाजसेवी और धनाढ्य व्यक्ति थे। पिता खेती-किसानी से जुड़े थे, जबकि उनकी माँ गृहिणी थीं। उसूलों के पक्के उनके पिताजी ऐसा कोई काम नहीं करना चाहते थे, जिसमें उन्हें झूठ बोलना पड़े, यही वजह रही कि उन्होंने बहुत से व्यापार जमाये और उनमें से कई अपने दोस्तों को दे दिये इसीलिए ऐशो आराम की ज़िंदगी छोड़ वे खेती-किसानी के काम में ही रम गए। 6वीं तक शिक्षा प्राप्त मुंबई की उनकी मां की अंग्रेज़ी पर अच्छी खासी पकड़ थी। घर में एक भाई के अलावा पांच बहनें थी, लेकिन परिवार में कभी भी लड़के-लड़की का भेद देखने को नहीं मिला।
अलका जी का परिवार दरअसल एक संयुक्त परिवार था, जहाँ दादा जी के अलावा दो चाचाओं के परिवार भी साथ थे, लेकिन पिता कटनी से करीब 15 किमी दूर खेती-बाड़ी का काम देखा करते थे इसीलिए सभी भाई-बहन कटनी में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। महज ढाई बरस की उम्र में चौथे नम्बर की अलका भी अपने भाई-बहनों के पास कटनी आ गईं। यहाँ सभी को स्कूल जाते देख उन्होंने भी स्कूल जाने की ज़िद पकड़ ली। दाखिले की उम्र नहीं होने के बावजूद उनकी काबिलियत को देखते हुए उन्हें स्कूल में सीधे कक्षा 2 में प्रवेश मिल गया। प्रतिष्ठित और सम्पन्न परिवार होने के बावजूद उनके माता-पिता ने उन्हें कटनी के म्यूनिसिपल स्कूल में पढ़ाया, जबकि चाचाओं के बच्चे शहर के नामी स्कूल में पढ़ते थे।
दादाजी की मंशा पोती को डॉक्टर बनाने की थी तो अलका जी ने ग्यारहवीं में विज्ञान विषय लिया और उच्च अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने एमएच होम साइंस कॉलेज जबलपुर से बीएससी किया। पीएमटी की परीक्षा में मामूली नम्बर से एमबीबीएस से चूक गईं, लेकिन बीडीएस (BDS) के लिए चयन होने के बावजूद उन्होंने कॉलेज में दाखिला नहीं लिया। वे बताती हैं रसूखदार लोगों से अच्छे सम्पर्क होने के बावजूद उनके पिताजी ने एमबीबीएस के लिए अंक नहीं बढ़वाये। वे कहते मेरे बच्चे अपने रास्ते खुद बनायेंगे। इसके बाद अलका जी ने अंग्रेज़ी (जबलपुर से प्रायवेट) और कटनी विवि से हिन्दी साहित्य में एम.ए. (नियमित) की डिग्री स्वर्ण पदक के साथ हासिल की।
कटनी में बड़ी बहनों शशि, प्रभा और किरण ने उनकी मां की तरह देखभाल की। राम निरंजन जी की सभी संतानें - खासकर लड़कियां, पढ़ाई में काफी होनहार थीं। उनकी बड़ी बेटी शशि बहुत अच्छा सितार बजाया करती थी तो उनसे छोटी प्रभा गायन में दक्ष थी, लेकिन अलका इन सबसे अलग बचपन से ही लेखन और सांस्कृतिक गतिविधियों में संलग्न रहीं। दादा जी की टॉकीज में फ़िल्में देखकर उन्हें गायन और नृत्य का शौक लगा। उनकी भाव भंगिमाएं देखकर उनकी बड़ी बहन शशि ने उन्हें नृत्य सीखने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन दिक्कत यह कि उस समय कटनी में इस तरह के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं थी, तो बहनों ने ही उन्हें नृत्य सिखाने का बीड़ा उठाया और इस तरह वे भरत नाट्यम और कथक के मेल के साथ नृत्य की प्रस्तुतियां देनें लगीं। उस समय अलका जी की उम्र 6 वर्ष की रही होगी।
महज 18 साल की उम्र में शशि जी की शादी हो गई। एक साल के अंदर ही उनकी मौत की खबर आई। यह कथित तौर पर दहेज हत्या थी। इस घटना से द्रवित अलका जी दिन-रात रोती रहतीं। उनके दर्द को कम करने उनकी छोटी बहन प्रभा ने उन्हें लिखने और नृत्य के लिए प्रोत्साहित किया। यहाँ से उन्होंने नृत्य सीखने के अलावा कहानियां, व्यंग्य और सामाजिक विसंगतियों पर लिखना शुरू किया और अपना लेखन सहेज कर रखती रहीं। प्रभा जी ने अलका की एक कहानी उस समय की सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दी पत्रिका - सारिका (magazine sarika) में भेजी, जो उसके ‘नवांकुर’ (navankur) अंक में प्रकाशित हुई। इसके बाद तो जैसे एक सिलसिला चल पड़ा। अलका जी की कहानियाँ, लेख और कविताएँ जनसत्ता, दैनिक भास्कर, नवभारत टाइम्स, नवीन दुनिया, कथाक्रम, कहानियाँ आदि विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं। आकाशवाणी जबलपुर से भी उन्हें बुलावा आने लगा।
सामान्य भारतीय परिवारों में उस समय लड़कियों का नृत्य करना अच्छा नहीं समझा जाता था, लेकिन उनके दादाजी ने इस बात के लिए घर की बेटियों पर कभी बंदिशें नहीं लगाई, कटनी में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित ‘किरण प्रतियोगिता’ (kiran pratiyogita) में पहली बार अलका जी ने सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का खिताब हासिल किया। वे बताती हैं उसके बाद कटनी का कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम उनके नृत्य के बिना पूरा नहीं होता था। अगले वर्ष अलका जी को ‘किरण प्रतियोगिता’ में भाग न लेने की सलाह दी गई, क्योंकि एक बेहद प्रभावशाली अधिकारी की बेटी जो कथक में प्रशिक्षित थी, उसका जीतना तय था। लेकिन उनकी माँ ने भी कहा कि चुनौतियों से घबराना नहीं है, तेरी असली परीक्षा तो अब है। उनकी बहनों ने अलका को रात-रात भर अभ्यास करवाया। नतीजा यह कि अलका जी जीत गईं, लेकिन हार से खफा अधिकारी की बेटी ने अलका जी की रैगिंग लेना शुरू कर दिया। यह बात प्रिंसिपल तक पहुँच गई और जैसे-तैसे ये मामला निपटा। अलका जी कॉलेज में छात्र राजनीति में शामिल हुईं और विश्वविद्यालय के लिये प्रतिनिधि (यू आर) के रूप में चुनी गईं।
समाजसेवी दादाजी का अलका जी पर गहरा प्रभाव था। उन्होंने कटनी में लड़कियों के लिए ‘दौलती देवी अग्रवाल महिला महाविद्यालय’ (अब कटनी महिला महाविद्यालय) खुलवाया, लायब्रेरी भी स्थापित की, जहाँ तमाम साहित्यिक किताबें हुआ करती थीं। वे ज़रुरतमन्द बच्चियों की फ़ीस भी दिया करते थे। उनकी देखा-देखी किशोरावस्था में पहुँचते ही अलका जी भी समाज सेवा में जुट गईं। वे जेब खर्च से पैसे बचाकर ज़रूरतमंदों की मदद किया करती। उन्होंने लड़कियों के लिए निशुल्क कला, पेंटिंग, कला और शिल्प सिखाने के लिए 'कचनार क्लब' (Kachnar Club) की स्थापना की। उस समय उन्होंने कटनी में स्वास्थ्य शिविर, जागरूकता अभियान, शिक्षण के कार्यक्रम, फ़ैशन शो, हेयर स्टाइल प्रतियोगिता, राष्ट्रीय कराटे प्रदर्शन आदि बहुतेरे काम किये।
वर्ष 1992 में कोटा निवासी और मुंबई में कार्यरत सी.ए. मुकुल सिगतिया से उनका विवाह हो गया। हालांकि अलका जी का लेखन जारी रहा। परिवार की देखभाल के साथ वे अखबारों, पत्रिकाओं, फिल्मों, टीवी और रेडियो के लिए लिखती रहीं। संगिनी जैसी कुछ पत्रिकाओं के लिए अतिथि संपादक के रूप में भी काम किया। दबंग दुनिया, मेट्रो टाइम्स, दोपहर और कई अन्य समाचार पत्रों में व्यंग्य, मीडिया, महिला और समसामयिक मुद्दों पर आधारित कॉलम लंबे समय तक प्रकाशित हुए। लेकिन उनकी जिंदगी में असल बदलाव एक गंभीर बीमारी के उपचार के दौरान आया, जहां उन्होंने अपनी लिखी कहानियों और कविताओं को एक साथ समेटा और पहला कहानी संग्रह 'मुर्दे इतिहास नहीं लिखते' (2016) प्रकाशित हुआ। इसके बाद व्यंग्य संग्रह 'मेरी तेरी सबकी ' (2023), उपन्यास - 'अदृश्य' लघुकथा संग्रह - 'बिखरते हरसिंगार' व्यंग्य संग्रह ‘#मीरा_कूल’ (2025) प्रकाशित हुए।
वे बताती हैं कई गलत फैसलों के कारण उन्हें ख़ामियाज़ा भी भुगतना पड़ा। उन्होंने कई प्रस्ताव ठुकराए, इसका नतीजा यह हुआ कि उनकी एक कहानी को राष्ट्रीय टेलीविजन पर एक ब्लॉकबस्टर धारावाहिक में बदल दिया गया। उन्होंने पटकथा लेखकों के संगठन में मामला दर्ज किया। फ़ैसला उनके पक्ष में आया, लेकिन संबंधित निर्माता की ऊंची पहुंच के चलते बाद में उसे पलट दिया गया। ऐसा ही एक और मुकदमा वे लड़ना चाहती थीं, लेकिन तभी उन्हें गंभीर बीमारी ने घेर लिया। उस समय उनका बेटा 10वीं में था और बेटी सिर्फ पांच साल की थी। वे कुछ समय के लिए परेशान भी हुईं, लेकिन फिर से उठ खड़ी हुई। अभी भी वे अपनी एक कविता की बहुत लोकप्रिय पंक्तियाँ ‘द्रौपदी तुम्हें ही उठाने होंगे शस्त्र......’ के लिए लड़ रही हैं।
हिन्दी के शीर्षस्थ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई (hari shankar parsai) के लेखन से प्रभावित अलका जी वर्ष 1988 में पहली बार उनसे मिली। दरअसल उस समय वे ‘युवा क्रान्ति’ विषय पर इंटर कॉलेज डिबेट में कॉलेज का प्रतिनिधित्व कर रहीं थीं। किसी ने इस विषय को समझने परसाई जी से मिलने की सलाह दी। हालांकि उस समय चोटग्रस्त होने के कारण डॉक्टर ने परसाई जी को आराम करने की हिदायत दी थी। बावजूद इसके उन्होंने ‘युवा क्रान्ति’ पर लोहिया जी और जयप्रकाश की विचारधारा के बारे में बहुत देर तक बात की। परसाई जी के व्यक्तित्व ने अलका जी को बहुत प्रभावित किया। इसके बाद कई बार उनसे मिलने का अवसर मिला, उनका आशीर्वाद और मार्गदर्शन भी उन्हें मिलता रहा। शादी के बाद भी अलका जी जब भी जबलपुर जातीं, उनसे अवश्य मिलतीं। अलका बताती हैं “मैं जैसे-जैसे परसाई जी को पढ़ती गई, उन्हें अधिक जानने का मौक़ा मिला। उनका व्यक्तित्व मेरे जेहन में गहरे तक पैठ गया और मैं उन्हें अपना साहित्यिक गुरु मानने लगीं।
वे बताती हैं - "एम.ए. में ‘हरिशंकर परसाई की रचनाओं में समवर्ती यथार्थ’ विषय पर लघु शोध प्रबंध किया ही था। परसाई जी के निधन के बाद वर्ष 1998 में वे परसाई मंच की स्थापना कर चुकी थीं, जिसे उम्मीद से ज़्यादा प्रतिसाद मिला। इस मंच में ए.के. हंगल और विजय अरोड़ा जैसे अभिनेता और कई जानी-मानी हस्तियां शामिल हुई हैं। मुंबई आने के बाद पति के प्रोत्साहित करने पर अलका जी ने परसाई जी को और अधिक गहराई से जानने-समझने के लिये उन पर पीएचडी करने का निर्णय लिया और इस तरह ‘हरिशंकर परसाई की रचनाओं में यथार्थ बोध का स्वरूप’ विषय पर पीएचडी की डिग्री हासिल की।" वे कहती हैं “परसाई जी ने मुझे बताया कि लेखन ऐसा हो, जो समाज में चेतना ला सके। इसीलिए मेरी कोशिश होती है कि लोग मेरी कोई भी रचना पढ़ें, तो उन्हें लगे कि वह दिल से लिखी गई है और कुछ बदलने के मक़सद से लिखी गई है।“
अलका जी का बेटा पर्व सी.ए. फायनल में हैं, वहीं बेटी शरण्या (मिष्टी) एलएलबी कर रहीं हैं। शरण्या भी अंग्रेजी में यदाकदा कहानी-कविता लिखती है। मुंबई विश्वविद्यालय की पत्रिका में अलका और उनकी बेटी की कविता साथ-साथ छपी थीं।
उपलब्धियां
• एम.ए. (हिन्दी साहित्य) में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से दो स्वर्ण पदक (पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी तथा सुभद्रा कुमारी चौहान) प्राप्त। अलका जी ने 'गोविन्दगढ़ के श्याम' ('Govindgarh ke Shyam') बायोग्राफ़ी लिखी। साथ ही रंगक़लम’, ‘अप्रतिम भारत’, ‘मुंबई की हिन्दी कवयित्रियां’, ‘अन्तरंग संगिनी’ आदि किताबों का सम्पादन भी किया। राजस्थानी रचनाओं का हिंदी में अनुवाद तो किया ही, इसी भाषा में व्यंग्य, कविता, कहानियाँ भी लिखी हैं।
• ‘अब कोई ग़म नहीं’ उनका पहला टीवी धारावाहिक था। इसके बाद उन्होंने ज़ी टीवी के ‘रिश्ते’ व दूरदर्शन के ‘जानम समझा करो’ धारावाहिकों के एपिसोड लिखे। मंजू सिंह के लिए कई धारावाहिक, कहानियाँ तथा जैन डॉक्यूमेंट्री फिल्म के लिए लेखन के अलावा हरिशंकर परसाई पर लघु फ़िल्म की एडवाइजर भी रहीं।
• ‘विघ्नहर्ता सिद्धिविनायक’ उनकी पहली फ़िल्म थी। फ़िल्म ‘अदृश्य’ की पटकथा व संवाद को साहित्यिक कृति में तब्दील किया, जो इसी नाम से उपन्यास की शक्ल में के.के. प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हो चुकी है।
• रेडियो कलाकार के रूप में आकाशवाणी विविध भारती पर लगातार कहानियों और आलेखों का प्रसारण। विविध भारती के लिए जिज्ञासा कार्यक्रम का लेखन, आकाशवाणी के लिए धारावाहिक लेखन, कुछ नाटकों का निर्देशन भी उन्होंने किया।
• टीवी विज्ञापनों के लेखन के अलावा दो लघु फिल्मों ‘बिकाऊ नहीं हम’ और ‘रुक जाना नहीं’ का निर्माण भी किया। ‘ग्रीन कोर्ट्स रिसॉर्ट्स’ परियोजना पर आधारित व्यावसायिक फ़िल्म की पटकथा उनके द्वारा तैयार की गई।
• उनकी कविताओं को प्रख्यात शास्त्रीय गायिका पद्मश्री डॉ. सोमा घोष के अलावा दूरदर्शन की पूर्व अधिकारी तथा ‘रंगोली’ कार्यक्रम की संयोजिका, संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से सम्मानित डॉ. शैलेश श्रीवास्तव ने स्वरबद्ध किया है। अलका जी महिला काव्य मंच की महाराष्ट्र की अध्यक्ष, अंतर्राष्ट्रीय वामा साहित्य और संस्कृति की राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं।
• वर्तमान में वे हिंदी कविता संग्रह ‘अपराजिता’ और ग़ज़ल संग्रह ‘खिड़की एक नई सी’ पर काम कर रहीं हैं। ‘अखीन परसाई’, कहानी संग्रह- ‘नदी अभी सूखी नहीं’ सहित दो-तीन किताबें प्रकाशन में हैं।
सम्मान
• गोदरेज कंज्यूमर फ़िल्म फेस्टिवल में 'निरंतरा' को प्रथम पुरस्कार (वर्ष 2015)
• कहानी संग्रह- ‘मुर्दे इतिहास नहीं लिखते’ को महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा स्वर्ण सम्मान तथा प्रेमचंद सम्मान प्राप्त 2015
• आकाशवाणी के लिए लिखित धारावाहिक ‘कहानी बड़े घर की’ को सर्वश्रेष्ठ रापा सीरियल अवॉर्ड (वर्ष 2003)
• व्यंग्य यात्रा सम्मान- (दिल्ली 2016)
• एएसके सोसाइटी अवार्ड (कानपुर 2016)
• कंज्यूमर फ़िल्म फेस्टिवल - बेस्ट स्क्रिप्ट अवार्ड (2017)
• फ़िल्म 'अदृश्य' को अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार
सन्दर्भ स्रोत : अलका अग्रवाल से सीमा चौबे की बातचीत पर आधारित
© मीडियाटिक
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