छाया: योगेन्द्र शर्मा
• कुमुद सिंह
• नहीं थी स्कूली शिक्षा फिर भी लोग राजनीतिक समझ के थे कायल
• हर सप्ताह भोपाल के नीलम पार्क में पीड़ितों को हक़ दिलवाने के लिए करती थीं बैठक
• पीड़ितों के हक़ के लिए लड़ने को रहतीं थीं तैयार
उनके साथ चलते हुए उम्रदराज़ मानकर कोई अगर अपना हाथ बढ़ा कर उन्हें सहारा देना चाहे तो वे अपनी खनकदार आवाज़ में शब्दों को थोड़ा खींच कर कहतीं, अरे जाओ मियां, हमें बूढ़ा समझने की भूल मत करो, बूढ़े होंगे हमारे दुश्मन। सफेद झक्क बाल, वैसी ही सफेद साड़ी, गुलाबीपन लिये हुए गोरी त्वचा, सुतवां नाक, बेहतर कल की उम्मीदों से लबरेज बड़ी-बड़ी आँखें, फक्कड़ स्वभाव और जुझारूपन से पक कर निकली दबंग आवाज़। जो उनसे एक बार भी मिल ले, वो यह विश्लेषण सुनकर तुरंत बोल उठेंगे – अच्छा, क्या अख़्तर आपा (अख़्तर ज़हा बेगम) की बात हो रही है ! (first-woman-alderman-of-Bhopal-Municipal-Corporation's) भोपाल नगर निगम की पहली महिला एल्डरमैन ( हालांकि यह शब्द ही ग़लत है), (social-worker) सामाजिक कार्यकर्ता, जो भी अपना काम लेकर पहुंच जाए उन सबकी अपनी अख़्तर आपा, उप्र के एक नवाब खानदान की बहू, महलों से लेकर भोपाल के मुर्गी बाज़ार के पास लगभग दड़बे जैसे ही लकड़ी के पटियों से बने कमरे में पूरी शिद्दत से लंबे समय तक ज़िंदगी जीने वाली अख़्तर आपा, हम सबकी प्रेरणा स्रोत हैं।
इन्हें भी पढ़िये –
अपने सिद्धांतों पर जीवन भर अडिग रहने वाली नेत्री विजयाराजे सिंधिया
1917 में भोपाल फौज के जमींदार नज़ीर मोहम्मद खां के घर पांचवी औलाद के रूप में जन्मी अख़्तर जहां (akhtar jahan) तमाम ऐशो आराम के बीच सख़्त पाबंदी वाले माहौल में पली बढ़ीं। उन दिनों लड़कियों को मजहबी किताब जैसे कुरान शरीफ़ पढ़ने के अलावा और किसी इल्म की तालीम हासिल करने की इजाज़त नहीं थी और जो महिला कलम उठाए, वो आवारा कहलाती थी। ऐसे तंगदिल माहौल में अख़्तर जहां ने चोरी छिपे उर्दू पढ़ना सिखा। 1930 में अपने बहनोई के इंतकाल होने पर उनका खैराबाद जाना हुआ, वहीं मलीहाबाद के नवाब मोहम्मद अली खां ने अख़्तर जहां को देखा और अपने बेटे हामिद अली खां के साथ रिश्ते का पैग़ाम भेजा। इस तरह महज 13 साल की उम्र में वे हामिद अली खां की चौथी बीबी के रूप में ब्याह दी गईं और नन्हीं अख़्तर जहां अब बेगम अख्तर कहलाने लगीं।
ज़ाहिर है नवाब खानदान में निकाह हुआ तो ख़ूब शान – ओ – शौकत से हुआ और वे सोने-चांदी और जवाहरात से लद गईं। नन्हीं अख़्तर बेगम को कुछ दिन तो ठीक-ठाक लगा लेकिन जल्दी ही उनके लिए वक़्त गुजारना मुश्किल होने लगा। उनके शौहर ज़्यादातर नवाब खानदान के बिगड़ैल बेटों की तरह ही अपना पूरा वक्त शराब और शबाब के बीच गुजारते लेकिन घर की औरतों के लिए माहौल इतना सख़्त था कि पांच बरस का लड़का भी उनके कमरे में नहीं जा सकता था। ढेरों खिदमतगार थे सो करने को कुछ नहीं था। महिलाओं के लिए समाज की सोच का ज़िक्र करते हुए वे बतातीं कि जब वे अपनी ससुराल लखनऊ से भोपाल आतीं तो स्टेशन से घर तक एक कनात लगा दी जाती ताकि कोई उन्हें देख ना सके और वे भी बाहर ना देखें। यह सब बातें उन्हें परेशान करतीं।
इन्हें भी पढ़िये –
लोकप्रियता के शिखर पर विराजी एक कहानीकार मालती जोशी
इस दौरान बेगम अख्तर के दिल में एक ख्वाहिश जन्मी कि मुल्क में आज़ादी की लड़ाई को लेकर क्या कुछ हो रहा है, उसे जाना – समझा जाए। उन्होंने चोरी छिपे अख़बार और तवारीखें पढ़ना शुरू कर दिया। उस ज़माने में औरतों की जकड़न और मुल्क के मौजूदा हालातों के खिलाफ़ उनके मन में विद्रोह की चिंगारी सुलगने लगी। उन्हें लगा कि उन्हें कुछ करना चाहिए लेकिन क्या, यह समझ नहीं बन पा रही थी। एक दफ़ा 1955-56 में वे अपनी बहन की शादी के सिलसिले में भोपाल आईं और फ़िर यहीं की होकर रह गईं। उन्होंने महलों की ऐशो आराम वाली ज़िंदगी को ठुकरा कर संघर्ष भरी जिंदगी को जीना तय किया।
ये दौर था जब भोपाल का विलीनीकरण आंदोलन ख़त्म हो चुका था, भोपाल रियासत भारतीय संघ में शामिल हो चुकी थी। सन 60 के दशक के अंतिम दौर में हो रहे नगर पालिका चुनाव में उम्मीदवार अपने भाई रफीक मियां के प्रचार के लिए वे घर से बाहर निकलीं। उनके इस कदम का घर और समाज में काफ़ी विरोध हुआ लेकिन अख़्तर जहां के बढ़े क़दम पीछे नहीं हटे। चुनाव प्रचार का काम करते हुए वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गईं और सक्रिय कार्यकर्ता के तौर पर शुमार की जाने लगीं। नगर निगम के “एल्डरमैन”पद के लिए चुनी जाने वाली आप पहली महिला थीं। पार्टी की तरफ़ से उन्हें अस्पतालों की देखरेख की जिम्मेदारी सौंपी गई, जिसे उन्होंने पूरी ईमानदारी से निभाया। इसके अलावा वे पानी, बिजली, सड़क इत्यादि बुनियादी समस्याओं से लोगों को निजात दिलाने के लिए लगातार जद्दोजहद करती रहीं।
इन्हें भी पढ़िये –
संगीत की विरासत संभाल रही हैं मीता पंडित
उस दौर में सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि महिलाओं में अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं थी। मर्दों की फटकार सुन कोई भी महिला घर से बाहर निकलने की हिमाकत न कर पातीं। ऐसे माहौल में अख़्तर जहां का बुर्का पहनने से इंकार करना एक ऐसा कदम था जिस पर ख़ूब हंगामा हुआ लेकिन वे अपने फ़ैसले पर अडिग रहीं। उन्होंने महिलाओं की मानसिक आज़ादी के लिए काम करना शुरू किया। उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई और महिलाओं को एकजुट कर उन्होंने अपनी साथी मोहिनी देवी और डॉक्टर नुसरत बानो रूही के साथ मिलकर भोपाल में महिला संगठन की नींव रखी। महिलाओं को शिक्षा और रोजगार देने के उद्देश्य से उन्होंने कई सिलाई कढ़ाई सेंटर खोले, प्रौढ़ शिक्षा केंद्र शुरू किए और कई अन्य काम सिखाने के लिए भी सेंटर खोले।
इन्हें भी पढ़िये –
विस्थापितों की आवाज़ बनीं मेधा पाटकर
वे भारतीय महिला फेडरेशन की मध्यप्रदेश अध्यक्ष भी रहीं। उन्होंने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ होने वाली लड़ाइयों की अगुवाई भी की। महलों से निकल कर वे लकड़ी के पटियों से बने एक छोटे से घर में वे “आराम” से बरसों बरस रहीं। बाद में वे गैस पीड़ित निराश्रित पेंशन भोगी संघर्ष मोर्चा के साथ जुड़ गईं और बालकृष्ण नामदेव के साथ मिलकर उन्होंने महिलाओं के हक़ में मोर्चा सम्हाला। एक लंबे अरसे बाद उन्होंने अपने लिए एक कमरा बनवा लिया था जिसे उन्होंने पीड़ित महिलाओं की मदद के लिए भी खोल दिया था। बाहर से आने वाली किसी परेशान महिला को वे अपने साथ ही रहने की जगह दे देती और उसके खाने का इंतज़ाम भी करतीं।
वे हमेशा कहती कि बुरे वक़्त में घबराने की ज़रूरत नहीं है, यह गुज़र जाएगा इसे हंस कर जीना चाहिए। महिलाओं की स्थिति को लेकर वे काफ़ी बेचैन रहतीं और कहती कि आज भी महिलाओं को निर्वस्त्र कर घुमाया जा रहा है और लोग चुप रहते हैं – यह कैसी आज़ादी है? जिन नौजवान लड़कियों का खून ऐसी घटनाएं सुनकर उबल जाना चाहिए वे फ़ैशन में व्यस्त हैं और सरकार महिला मुद्दों पर असंवेदनशील है। वह मुआवजा देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेती है।
इन्हें भी पढ़िये –
विजय नरेश - जिन्होंने वर्जनाओं के पार अपनी दुनिया खुद बसाई
वे 3 जून 2004 को 87 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा हुईं और स्वास्थ्यगत तमाम परेशानियां झेलने के बावजूद वे फिरकापरस्ती, मानसिक गुलामी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर आखिरी सांस तक लड़ती रहीं।
लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं और अनेक जन आन्दोलनों से जुड़ी रही हैं। अख़्तर आपा के साथ भी उन्होंने काम किया है।
© मीडियाटिक
Comments
Leave A reply
Your email address will not be published. Required fields are marked *