दलित साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर  हेमलता महिश्वर 

blog-img

दलित साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर  हेमलता महिश्वर 

छाया:हेमलता महिश्वर के फेसबुक अकाउंट से 

• सारिका ठाकुर

दलित साहित्य में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर मानी जाने वाली हेमलता महिश्वर  की रचनाओं में स्त्री वि मर्श और दलित विमर्श - दोनों के अक्स दिखाई देते हैं। दरअसल, सामान्य परिवारों की स्त्रियाँ ज़िन्दगी भर पितृसत्ता से जूझती हैं जबकि दलित स्त्री दोहरे स्तर पर पीड़ित होती हैं। उनके लिए दर्द का कुआं कहीं अधिक गहरा होता है। हेमलता जी जब साहित्य के आँगन में पहुंची तब तक उनकी संवेदनाएँ अनुभव की आग में पक चुकी थीं और एक इंसान के तौर पर वे यह जान चुकी थीं कि यह दुनिया जैसी दिखती है वास्तव में उससे काफी अलग है। ऐसा होने के पीछे जो कारण हैं, उन पर चर्चा नहीं होती। यही वजह है कि हेमलता जी के लेखन में नर्म हरी दूब की छुअन के बजाय नागफनी की चुभन महसूस होती है।

हेमलता जी का जन्म 5 नवम्बर 1966 को बालाघाट में हुआ। उनके पिता श्री रामप्रसाद मेश्राम खाद्य निरीक्षक थे और माँ श्रीमती प्रेमलता मेश्राम गृहिणी। मेश्राम जी का तबादला अक्सर छोटे-छोटे गाँवों या कस्बों में हुआ करता, तो किसी एक जगह पढ़ाई जारी रखना मुमकिन नहीं था। हेमलता जी ने पहली से तीसरी कक्षा तक रायपुर में, चौथी और पांचवी सरायपाली में, फिर छठवी और सातवीं बालाघाट, आठवीं और नौवीं बस्तर में पढ़ाई की और आखिर में हायर सेकेंडरी बस्तर के शासकीय कन्या उच्च विद्यालय, कालीबाड़ी से 1983 में किया। दुर्गा कॉलेज, रायपुर से बीए और हिंदी साहित्य से एमए करने के बाद हेमलता जी ने बी.एड एम.फिल और पीएच.डी भी किया।

ऊपरी तौर पर इन उपलब्धियों को देखें तो ऐसा लगता है एक सरकारी महकमे में काम करने वाले शिक्षित परिवार की बच्ची के सफलता की ऊँचाई तक पहुँचने की कहानी जैसी लगती है। मगर यह कहानी इतनी ही नहीं है। लम्बे समय तक उन्हें यह अहसास ही नहीं हुआ कि क्या गलत हो रहा है। उनकी सोच को दिशा देने में और हकीकत से रुबरु करवाने में उनकी दो सहेलियों की अहम् भूमिका रही।

कॉलेज में उनकी दोस्त थी रीमा शर्मा। हेमलता उन्हें अपना आदर्श बताती हैं। दोनों हमेशा साथ रहती थीं। रीमा शर्मा के बनाव - श्रृंगार के अलावा उनकी हर बात हेमलताजी को प्रभावित करती थीं। रीमा का व्यक्तित्व बहुत ही आकर्षक और शानदार था। कुछ दिनों के बाद उनके साथ दिल्ली से आई हुईं अनामिका झा भी जुड़ गईं। हेमलताजी की ये दोनों सहेलियां संपन्न परिवार से थीं और वैचारिक रूप से काफी प्रगतिशील थीं। रीमा के घर में लाइब्रेरी थी और यह बात हेमलता जी को हैरान करती थीं। इस लाइब्रेरी से उन्हें काफी कुछ पढ़ने को मिला। इस तिकड़ी की ख़ास बात यह थी कि उनके बीच बातचीत का मुद्दा ‘तेरी साड़ी मेरी साड़ी से सफ़ेद क्यों’ की जगह मार्क्सवाद, उपयोगितावाद और समकालीन सामाजिक मुद्दे हुए करते थे। हेमलताजी कहती हैं “उस समय मैं दब्बू हुआ करती थीं लेकिन बहुत अच्छी श्रोता हुआ करती थी। उन दोनों की बातों से ही कई चीज़ें मैं जान पाई।“   साहित्य के लिए एक आधार बचपन में तैयार हो गया था क्योंकि सभी पढ़े लिखे थे। घर में चंदामामा, लोटपोट और नंदन जैसी पत्रिकाएं आती थीं। उनके मामा को पढ़ने का शौक था तो वे भी तरह-तरह की पत्रिकाएँ लेकर आते थे। लेकिन असल दुनिया की चुनौतियों से उनका परिचय रीमा और अनामिका ने करवाया। एमए करते हुए उन्होंने कुछ-कुछ लिखना शुरू कर दिया लेकिन उसे प्रकाशन के लिए नहीं भेजा। उन दिनों की रचनाओं में महादेवी वर्मा का प्रभाव हुआ करता था। विषय मन की कोमल भावनाएं और संवेदनाएं हुआ करती थीं। 1989 में एमए करने के फ़ौरन बाद महंत घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर में हेमलता जी व्याख्याता के पद पर नियुक्त हो गईं और 1990 उन्होंने अपनी दीदी के देवर संजय महिश्वर से विवाह कर लिया। हालाँकि शादी के बाद भी उनकी पढ़ाई जारी रही। हेमलता जी कहती हैं " मेरी माँ सिर्फ पांचवी पास थी लेकिन बच्चों को पढ़ाने का जज़्बा उनमें पिताजी से कहीं ज्यादा था। पिताजी की इच्छा तो यही थी कि जल्द से जल्द लड़कियों की शादी हो जाए लेकिन माँ के कारण हमारी पढ़ाई आगे बढ़ती रही और उन्हीं से मिले हौसलों की वजह से अपनी पढ़ाई को एम.ए. के बाद बी.एड, एम.फिल और पीएचडी के स्तर तक पहुंचा सकी।”

दिसंबर 1995 में नागपुर में अम्बेडकरवादी-फुलेवादी अखिल भारतीय लेखक सम्मलेन का आयोजन हुआ जिसमें प्रोफ़ेसर तुलसी और जयप्रकाश कर्दम जैसे देश के बड़े बड़े साहित्यकार पहुंचे थे। हेमलता जी भी इस आयोजन में श्रोता बनकर पहुंची थी। वे कहती हैं -  ‘इस प्रोग्राम में शामिल होने के बाद जैसे मेरी आँखें खुल गईं।’ जब समझ का दरवाज़ा खुला तो उन्होंने खुद से पूछना शुरू कर दिया कि - परिचय होते ही लोगों का ध्यान सरनेम पर क्यों अटक जाता है? कई जगह पिताजी का तबादला हुआ लेकिन कभी भी हमें सवर्णों के मोहल्ले में घर क्यों नहीं मिला? पिताजी ने घर में कभी मराठी में बोलने क्यों नहीं दिया? दरअसल, हर जाति की अपनी भाषा में कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनसे पता चल जाता है कि आप किस जाति से सम्बन्ध रखते हैं। उनके पिता यह नहीं चाहते थे कि यह बात किसी को पता चले।

नागपुर सम्मेलन से लौटने के बाद हेमलता जी का ध्यान दलित मुद्दों पर केन्द्रित हुआ। अम्बेडकर साहित्य पढ़ने के अलावा ज्योतिबा फुले जैसे समाज सुधारकों के संघर्षों को भी उन्होंने समझने की कोशिश की। उसी दौरान यह समझ भी बनी कि ‘दलित होना’ और ‘स्त्री होना’ दो अलग तरह की सामाजिक चुनौती है लेकिन दलित स्त्री होना उत्पीड़न का अलग ही स्तर है क्योंकि पितृसत्ता के शिकंजे से कोई भी समाज मुक्त नहीं है।

हेमलता जी ने 2006 में अपनी पहली पुस्तक ‘स्त्री लेखन और समय के सरोकार’ से लेखन के क्षेत्र में अपना कदम रखा। इसके बाद इनका काव्य संग्रह ‘नील, नीले रंग के’ प्रकाशित हुआ जिसे काफी सराहना मिली। हालाँकि दुर्गा कॉलेज में पढ़ते हुए ही लेख्ननी रफ़्तार पकड़ने लगी थी और उनकी रचनाएं आलोचना, कथादेश, हंस, वर्तमान साहित्य, अनभैं साँचा, युद्धरत आम आदमी, दलित अस्मिता, स्त्री काल आदि पत्र-पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेख, कविता, कहानी प्रकाशित होने लगी थे। समय के साथ अनुभव को भी विस्तार मिला। दुर्गा कॉलेज,   रायपुर  के बाद  वे जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली में नियुक्त हुईं। नए लोग और नए परिवेश की बौद्धिक चर्चा से विचार को और भी स्पष्टता मिली। अपनी काबिलियत के दम पर वे वहां विभागाध्यक्ष पद तक पहुंची साथ ही उनके लेखन की धार भी पैनी हुई। उनका लेखन जो भावुकता से भरी कविताओं से शुरू हुआ था, कठोर यथार्थवाद पर आकर स्थिर हो गया। इसलिए हेमलता जी की रचनाओं में खासतौर पर जातिवाद और पितृसत्ता के विरुद्ध तीखे स्वर सुनाई देते हैं।

वर्ष 2015-16 में उन्होंने समान विचारधारा वाली महिलाओं को साथ लेकर अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच का गठन किया। इस मंच से आज देश भर की  दलित समाज की   लेखिकाएं  जुड़ी हुई हैं और अपनी अपनी कलम के जरिये दोहरे शोषण के विरुद्ध एकजुट होकर आवाज़ उठा रही हैं। हेमलता जी के इंजीनियर पति सेवानिवृत्ति के बाद खेती किसानी कर रहे हैं। उनकी दो बेटियां हैं। बड़ी जर्मनी में काम कर रही है और छोटी पीएचडी की तैयारी कर रही है।

प्रकाशित ग्रंथ

• स्त्री लेखन और समय के सरोकार, चिंतन, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली

• नील, नीले रंग के- कविता संग्रह, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली

सह लेखन धम्म परित्तं - सम्यक् प्रकाशन संपादित ग्रंथ

• समय की शिला पर, मुकुटधर पाण्डेय पर केन्द्रित, गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर

• उनकी जिजीविषा, उनका संघर्ष - शिल्पायन प्रकाशन, नई दिल्ली

• रजनी तिलक : एक अधूरा सफ़र 

पत्रिका संपादन

• उड़ान

संपादक मंडल सदस्य

• हाशिए उलाँघती स्त्री- युद्धरत आम आदमी का विशेषांक

सन्दर्भ  स्रोत: सारिका ठाकुर की हेमलता महिश्वर से हुई बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक

Comments

Leave A reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *



पारंपरिक चित्रकला को अपने अंदाज़ में संवार रहीं सुषमा जैन
ज़िन्दगीनामा

पारंपरिक चित्रकला को अपने अंदाज़ में संवार रहीं सुषमा जैन

विवाह के 22 साल बीत जाने के बाद दिसम्बर 1998 में देवलालीकर कला वीथिका इंदौर में एकल प्रदर्शनी लगाई।

खिलौनों से खेलने की उम्र में कलम थामने वाली अलका अग्रवाल सिगतिया
ज़िन्दगीनामा

खिलौनों से खेलने की उम्र में कलम थामने वाली अलका अग्रवाल सिगतिया

बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न अलका जी ने गुड्डे-गुड़ियों से खेलने की उम्र में ही काफी लोकप्रियता बटोर ली थी।  

अतीत को अलहदा नज़रिए से देखने वाली इतिहासकार अपर्णा वैदिक
ज़िन्दगीनामा

अतीत को अलहदा नज़रिए से देखने वाली इतिहासकार अपर्णा वैदिक

जब वे अमेरिका में पढ़ा रही थीं उस समय हिंसा को लेकर हो रही चर्चा की वजह से उन्होंने अपने देश के इतिहास और समाज को शोध का...

राजकुमारी रश्मि: जैसे सोना तपकर बना हो कुंदन
ज़िन्दगीनामा

राजकुमारी रश्मि: जैसे सोना तपकर बना हो कुंदन

रचनाकार राजकुमारी रश्मि की आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कुछ पुस्तकों पर वे आज भी काम कर रही हैं।

मोहिनी मोघे : जिनके सुझाव पर
ज़िन्दगीनामा

मोहिनी मोघे : जिनके सुझाव पर , संभागों में स्थापित हुए बाल भवन 

उनके जीवन का यह ‘कुछ अलग’ करने के बारे में सोचना बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि उन्होंने दूसरी कक्षा से नृत्य सीखने जाना...

गौरी अरजरिया : लोगों से मिले तानों को
ज़िन्दगीनामा

गौरी अरजरिया : लोगों से मिले तानों को , सफलता में बदलने वाली पर्वतारोही

स्कूल में एवरेस्ट के बारे में पढ़ने के बाद पहाड़ पर चढ़ने की ललक जगी और पर्वतारोही अरुणिमा सिंह के संघर्ष ने उन्हें एक रास...