छाया : स्व संप्रेषित
• सारिका ठाकुर
वरिष्ठ रचनाकार राजकुमारी रश्मि (rajkumari-rashmi) के जीवन यात्रा को एक वाक्य में परिभाषित करना हो तो कहा जा सकता है - उनकी जीवन यात्रा सोना तपकर कुंदन बनने की पूरी प्रक्रिया है। आज उनकी आयु 90 वर्ष से भी ज्यादा है, फिर भी ऊर्जा से भरी हुई है।
राजकुमारी रश्मि का जन्म 14 जनवरी को उत्तर प्रदेश के बरेली में हुआ। जन्म वर्ष उन्हें ठीक-ठीक याद नहीं 34-35 के बीच बताती हैं। उनके पिता श्री हर प्रसाद पाण्डेय कचहरी में पेशकार थे और माँ श्रीमती मिथिलेश कुमारी पाण्डेय गृहणी थीं। वह आजादी से पहले का उत्तरप्रदेश था। संयुक्त परिवार था जिसकी पूरी कमान रश्मि जी की दादी के हाथों में था। उनके पिता का बरेली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पद की वजह से प्रतिष्ठा और उनकी ईमानदारी की वजह से सम्मान था। प्रगतिशील विचारधारा की वजह से उन्होंने बच्चों की परवरिश में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया।
रश्मिजी दो बहन और एक भाई में सबसे बड़ी हैं। उन्हें पढ़ाने के लिए घर में शिक्षक आते थे। वे बताती हैं, जब मैं थोड़ा-बहुत पढ़ना लिखना सीख गई तो कोयले से दीवार पर कुछ-कुछ लिखने लगी थी । पता नहीं दिमाग में क्या होता था, बस लिख देती थी। एक दिन पिताजी ने देख लिया और कहने लगे कि अरे! ये तो कविता जैसा कुछ है। फिर उन्होंने मुझे कॉपी और पेन्सिल लाकर दी। उसके बाद मैं जो भी मन में आता उसी पर लिखने लगी।
उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद के एक बुद्धिजीवी श्री संगमलाल ने महिलाओं को शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना करवाई थी, जिसमें स्वतंत्र छात्रा के रूप में लडकियाँ परीक्षा में शामिल होती थीं। इस विद्यापीठ से उस समय प्रवेशिका, विद्या विनोदिनी, विदुषी और सरस्वती जैसी उपाधियाँ प्रदान की जाती थीं। इस विद्यापीठ की प्राचार्य महादेवी थीं। यहीं से रश्मि जी ने विद्या विनोदिनी और विदुषी की उपाधि स्वतंत्र छात्रा के रूप में हासिल की। पंद्रह वर्ष की आयु तक उनकी लेखन में भी काफी सुधार आया लेकिन तब तक वे कापियों से बाहर नहीं निकलीं थीं। इसके बाद शादी की चर्चा भी शुरू हो गयी और दादी के ज़ोर देने पर लाखीमगढ़खीरी निवासी श्री परब बिहारी तिवारी से उनका विवाह हो गया। वे रेडियो इंजीनियर थे। विवाह के बाद रश्मि जी ससुराल गयीं लेकिन तीन-चार महीने से ज्यादा नहीं रह पायीं क्योंकि ससुराल वालों का व्यवहार उनके साथ ठीक नहीं था। उनके पिता उन्हें लेकर वापस बरेली लेकर आ गये।
रश्मि जी के पति हालाँकि सरकारी नौकरी में थे लेकिन नौकरी को जिम्मेदारी से निभा नहीं पाए। वे महीनो पर छुट्टी पर रहते तो कभी काम पर चले जाते। रश्मि जी के पिता ने दामाद को बुलाकर कहा कि अपनी नौकरी ठीक से निभाओ और जहाँ तुम्हारी पोस्टिंग होगी वहाँ अपनी बेटी को भेज दूंगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इतना ही नहीं श्वसुर के रुतबे का फायदा उठाकर उनके नाम पर लोगों से उधार भी लेने लगे। इस बीच वे बरेली आते-जाते रहे। हालाँकि रश्मि जी के पिता को फर्क नहीं पड़ता था लेकिन आसपास तरह-तरह की बाते होने लगीं। इसी तनाव से भरे माहौल में 1956 में रश्मि जी ने बड़ी बेटी को जन्म दिया। जब बिटिया डेढ़ वर्ष की हुई, रश्मि जी के पति बच्ची को लेकर लाखीगढ़ खीरी चले गए यह कहकर कि दादा-दादी बच्ची को देख लेंगे, एक दो दिन में वापस ले आऊंगा। लेकिन बच्ची को लेकर वह नहीं लौटे। पूछने पर आनाकानी करते। फिर 1958 में रश्मि जी के बड़े बेटे का जन्म हुआ। उसे भी लेकर रश्मि जी के पति अपने गाँव चले गए यह कहकर कि एक दो दिन के बाद दोनों बच्चों के साथ वापस लौट रहा हूँ। लेकिन बच्चे लौटकर नहीं आए। वर्ष 1960 में रश्मि जी ने तीसरी संतान के रूप में बेटे को जन्म दिया और इस बार उन्हें लाखीमगढ़खीरी भेजने से इंकार कर दिया, जिसके बाद वे कभी लौटकर नहीं आए, दूसरी तरह रश्मि जी ने भी अपनी दोनों बड़ी संतानों को पूरी तरह खो दिया. उनकी बड़ी बेटी पढ़ने में होशियार थीं, आगे चलकर उन्होंने दो विषयों में एम.ए. किया जबकि बड़े बेटे का मन पढ़ाई लिखाई में नहीं लगा, इसलिए दसवीं भी नहीं कर पाए. डेढ़ साल की उम्र में गोद से छीन ली गयी बिटिया को रश्मि जी ने उसके विवाह के अवसर पर देखा, जबकि उनका बेटा उनसे मिलने एक बार ग्वालियर आया था, जहाँ आगे चलकर रश्मि जी ने पूरी जिन्दगी बिताई। उन्होंने उसे पढ़ाने की बहुत कोशिश की लेकिन वह उनके पास से भागकर फिर लखीमपुर खीरी चला गया.
इधर सबसे छोटे बेटे के जन्म के बाद हालत बिगड़ने लगे। माता-पिता के पास रह रहीं रश्मि जी को लेकर लोग तरह-तरह की बातें करते। इस बीच रश्मि जी ने बरेली में ही ‘स्त्री सुधार महाविद्यालय’ में नौकरी कर ली। जिन्दगी की चुनौतियों में माता-पिता के अलावा कलम का साथ बना रहा। वर्ष 1957 में बरेली के नज़दीक स्थित रामपुर में भव्य कवि सम्मलेन का आयोजन किया गया, आयोजक थे रामपुर के नवाब। वह पहला मंच था जहाँ से रश्मि जी ने पहली बार काव्य पाठ किया। इसके बाद छोटे-बड़े साहित्यिक आयोजनों से उनके लिए बुलावा आने लगा। स्त्री सुधार महाविद्यालय में लगभग तीन साल वहाँ काम करने के बाद अपनी मौसेरी बहन के कहने पर वे बच्चे को माता-पिता के पास बरेली में छोड़कर 60 के दशक की शुरुआत में मध्यप्रदेश के शिवपुरी आ गयीं। दरअसल यहाँ उनकी मौसेरी बहन के कुछ रिश्तेदार रहते थे। उन्हें उम्मीद थी कि शिवपुरी में उनकी नौकरी लग जाएगी लेकिन बात नहीं बनी क्योंकि मध्यप्रदेश में विद्या विनोदिनो और विदुषी की उपाधि को मान्यता नहीं मिलती थी तब तक। यहाँ हायर सेकेण्डरी करना महत्वपूर्ण था। फिर दूर के रिश्ते में एक देवर ग्वालियर रहते थे। उन्होंने उन्हें ग्वालियर बुला लिया। वर्ष 1965 में वे ग्वालियर पहुँची और अपने नए भविष्य की नींव डाली।
1966 में उन्होंने स्वतंत्र छात्रा के रूप में हायर सेकेण्डरी की परीक्षा दी। इसके बाद स्नातक की उपाधि प्राप्त की और 1971 में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल कर ली। इस बीच उन्होंने माता – पिता से कोई भी सहायता नहीं ली बल्कि ट्यूशन और निजी विद्यालय में पढ़ाकर अपना खर्च निकालतीं। इसके साथ ही इनका लेखन भी जारी रहा। 1967 में उनकी पहली कविता –‘किसने पत्र लिखा गुमनाम’ प्रकाशित हुई। संघर्ष के समय कलम ही उन्हें संबल देता। उस समय उनकी कविताएँ, कहानियाँ और दोहे साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, सारिका, वागर्थ, कथादेश, अक्षर पर्व, अक्षरा, मनोरमा जैसी लगभग हर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिका में प्रकाशित होने लगीं, जिसकी कतरने आज भी उनके पास मौजूद है। 1971 में राजकीय हिन्दी विद्यापीठ में व्याख्याता के पद पर उन्हें नियुक्ति मिल गयी। इस नौकरी के लिए साक्षात्कार देने के बाद उन्होंने अपने नाना – नानी के पास रह रहे छोटे पुत्र अतुल को अपने पास बुला लिया। अतुल उस समय पांचवी कक्षा में पढ़ रहे थे।
निजी जीवन में स्थिरता आई साहित्यिक यात्रा भी बिना किसी रुकावट के चलती रही। उन्होंने सोम ठाकुर, हरिवंश राय बच्चन, महादेवी वर्मा जैसे कई तत्कालीन मूर्धन्य कवियों के साथ मंच साझा किया। उनकी पहली पुस्तक है कहानी संग्रह –कगार पर खड़े हुए जो वर्ष 1986 में प्रकाशित हुई। अब तक उनकी आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कुछ पुस्तकों पर वे आज भी काम कर रही हैं। उन्होंने कहानी, कविता, गीत, ग़ज़ल दोहा जैसे कई विधाओं में स्वयं को को आजमाया। वे लम्बे समय तक मंचों पर काव्य पाठ करती रहीं। वर्ष 2022 में दिल्ली के कामायनी ऑडिटोरियम में काव्य पाठ करने के बाद उन्होंने मंचों पर जाना बंद कर दिया, हालाँकि लेखन में अभी भी सक्रिय हैं।
उनकी कविताओं में उनकी आंतरिक पीड़ा की छाया कहीं-कहीं झलक उठती है जिसे वे विस्तार देकर अलग तरह से परिभाषित कर देती हैं। उनकी रचना में छायावाद का भी गहरा असर नज़र आता है। वे लिखती हैं –
गगन भेदती हुक पालथी मारे बैठ गयी/पीड़ा पथराकर अंतर के/तल में पैंठ गयी/उड़ते हुए पखेरू के हैं/ दोनों पर कतरे।
रश्मि जी को, कई साहित्यिक संस्थाएं पुरस्कृत व सम्मानित कर चुकी हैं। उनके द्वारा रचित नृत्य नाटिका पशु-तंत्र का वर्ष 1977 में रंगश्री लिटिल बैले ट्रूप (Rangshree Little Ballet Troupe) ने मंचन किया था, जिसे खूब सराहा गया था।
प्रकाशित कृतियाँ
• कहानी संग्रह: कगार पर खड़े हुए -1986
• ग़ज़ल संग्रह : गवाही के बावजूद -1994
• गीत संग्रह : पत्र लिखा किसने गुमनाम -2000
• दोहा संग्रह : हँस उड़े आकाश -2010
• नवगीत संग्रह : अक्षर बोलते हैं-2013
• गीत संग्रह : धुप के पंख -2018
• गीत संग्रह : एक और शंखनाद -2021
• गीत संग्रह : कस्तूरी गंध के हिरन -2024
पुरस्कार/सम्मान
• वर्ष 1985 में ग्वालियर विकास समिति द्वारा ग्वालियर गौरव सम्मान
• वर्ष 2027 में अखिल भारतीय साहित्य परिषद्, गाज़ियाबाद द्वारा महादेवी सम्मान
• वर्ष 2004 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा काव्य संग्रह ‘पत्र किसने लिखा गुमनाम’ को निराला सम्मान
• वर्ष 2022 में हिन्दी साहित्य सम्मलेन, दिल्ली द्वारा वागीश्वरी सम्मान
सन्दर्भ स्रोत : राजकुमारी रश्मि और उनके पुत्र श्री अतुल तिवारी से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित
© मीडियाटिक
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