छाया: स्व संप्रेषित
प्रमुख लेखिका
जिस साहित्य में जनसाधारण को ऊंचा उठाने की क्षमता न हो, जो रचना पाठकों को सोचने समझने के लिए बाध्य न करे, समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार न करे, वह कुछ भी हो सकता, साहित्य नहीं। इस तरह का लेखन व्यर्थ है। ऐसा मानना है सुविख्यात लेखिका सुषमा मुनीन्द्र का। सुषमा जी का जन्म 5 अक्टूबर 1959 को रीवा में हुआ। पिता श्री देवी प्रसाद पांडेय जिला एवं सत्र न्यायाधीश थे तथा सेवानिवृत्ति के बाद लोकायुक्त और जिला उपभोक्ता फोरम में अध्यक्ष के पद पर रहे। माॅं श्रीमती केसर पांडेय ने घर पर रहकर पूरे परिवार को संभाला।
पिताजी का थोड़े-थोड़े अंतराल पर स्थानांतरण होने के कारण सुषमा जी की स्कूली शिक्षा जावद, सारंगढ़, इंदौर और खंडवा में हुई। इसी तरह बीएससी की पढ़ाई भी तीन विश्वविद्यालयों से संपन्न हो पाई। बी.एससी. प्रथम वर्ष भोपाल विवि, द्वितीय वर्ष सागर विवि तथा बीएससी अंतिम वर्ष रीवा विवि से पूर्ण हुई। पारिवारिक वातावरण बेहद अनुशासित रहा, क्योंकि पिताजी जी अनुशासन को लेकर काफ़ी सख्त थे। इस सख्ती की वजह थी सुषमा जी सहित पांच बहनों का होना। सभी बहनों को स्कूल और कॉलेज के अलावा कहीं और जाने की इजाज़त नहीं थी। माह में एक बार माॅं के साथ फिल्म देखने ज़रूर जाते थे।
सुषमा जी के माता-पिता का सभी बच्चों की पढ़ाई के लिए विशेष आग्रह रहता। चाहे घर से बाहर खेलने न जाने दिया हो, लेकिन घर में राष्ट्रीय स्तर की नामी पत्रिकाएं और साहित्यिक किताबें आती थी। इन्हें पढ़ते हुए कागज़ और कलम सुषमा जी के कब साथी बन गये पता ही नहीं चला। विज्ञान विषय से स्नातक सुषमा जी शिक्षक बनना चाहती थी। घर में भी लेखन से कोई नहीं जुड़ा था इसलिए कह सकते हैं कि नियति को ही मंजूर था कि वे लेखक बनें।
सुषमा जी का विवाह 19 बरस की आयु में सतना के प्रतिष्ठित वकील और कर सलाहकार श्री मुनीन्द्र मिश्र से हुआ। विवाह के बाद लेखन की राह आसान नहीं थी। प्रकाशन के लिए भेजी गईं अनेक कहानियां खेद सहित वापसी कर रही थीं। ससुराल में भी लेखन को लेकर कुछ अप्रसन्नता थी। परिजन कहते थे कि कागज़ काले करने से बेहतर है पूरा समय गृहस्थी में लगाना। इस तरह अपने ही घर में सहयोग मिलना तो दूर, उल्टे हौसला तोड़ा जा रहा था। इन परिस्थितियों में भी सुषमा जी ने अपना मनोबल और आत्मविश्वास बनाए रखा। आसपास घटित घटनाओं और समाज के आचार-व्यवहार पर उनकी पैनी नज़र बनी रही। इसीलिए जब पूर्ण रूपेण लेखन कार्य शुरू किया तो यह अनुभव काफी कारगर सिद्ध हुआ।लेकिन जब सुषमा जी की रचनाएं लगातार छपने लगीं, तब सब ने माना कि वे सिर्फ कागज़ काले नहीं कर रही थीं, बल्कि वह एक तरह का अभ्यास था।
इससे एक बार फिर ज़ाहिर हुआ कि स्त्री को मान्यता तभी मिलती है जब तक वह खुद को साबित नहीं कर देती। बहरहाल, सुषमा जी ने पहली कहानी ‘घर’ लिखी जो ‘सरिता’ में 1982 में छपी।लेकिन गृहस्थी की जिम्मेदारियों के चलते लगातार लेखन नहीं कर पाई। सन 2000 में आगे की पढ़ाई के सिलसिले में बेटा पूना और बिटिया भोपाल चले गए तो उन्हें पारिवारिक जिम्मेदारियों से कुछ समय मिलने लगा और पूर्ण रूप से लेखन करना शुरू किया। इसका नतीजा ये है कि सुषमा जी अभी तक साढ़े 3 सौ से ज़्यादा कहानियाँ, 50 हास्य व्यंग्य, 50 आलेख, 02 उपन्यास, सौ समीक्षाएं, आकाशवाणी रीवा के लिये 12 नाटक और कुछ वृतांत और संस्मरण आदि लिख चुकी हैं। इनमें कई कहानियों का मराठी, मलयालम, कन्नड़, तेलुगू, उड़िया, उर्दू, पंजाबी, अंग्रेजी, गुजराती, असमिया आदि भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
सुषमा जी कि तकरीबन 30 कहानियाँ प्रतिनिधि कहानी संग्रहों में संकलित की गई हैं। उपन्यास ‘छोटी सी आशा’ व कथा संग्रह ‘विलोम’ का डॉ सुशीला दुबे द्वारा मराठी में अनुवाद किया गया है। इसी उपन्यास का असमिया अनुवाद डॉ मीनाक्षी गोस्वामी ने किया है। सुषमा जी का लेखन कार्य इतना विशाल है कि इनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर लगभग 10 शोध कार्य किए जा चुके हैं। उनकी अनेक कहानियों का नाट्य मंचन भी हुआ है इनमें प्रमुख नाम हैं- गणित, सरपंचिन, दर्द ही जिसकी दास्तां रही, शुभ सात कदम आदि। उल्लेखनीय यह भी है कि सुषमा जी की जब सौ से अधिक कहानियाँ हो गई थीं तब 1997 में मायाराम सुरजन फाउंडेशन के सौजन्य से पहला कहानी संग्रह ‘मेरी बिटिया’ प्रकाशित हुआ था और फाउण्डेशन ने ही भोपाल में विमोचन कराया था।
साहित्य सृजन सुषमा जी के लिए मुक्ति और मोक्ष दोनों ही है। उनकी अधिकांश कहानियां गाँव के सरोकारों के इर्द गिर्द बुनी हुई नज़र आती हैं। लेखन के अलावा बागवानी करना उन्हें प्रिय है।उन्होंने अपनी ज़मीन पर एक बड़ा बगीचा लगा रखा है, जिसकी देखभाल ये स्वयं करती है। अलग अलग व्यंजन बनाना और लोगों की आवभगत करना भी पसंद है। इसके अलावा इन्हें घूमने का बहुत शौक है। भूटान सहित देश के विभिन्न हिस्सों में भ्रमण कर चुकी हैं। सुषमा जी की दो संतानें हैं – बेटा हर्ष सीए, एमबीए करने के बाद अपने पिता जी के साथ ही कर सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं। बिटिया कामायनी विवाह के बाद दिल्ली में रहती हैं। शादी के पहले वह लगभग चार वर्ष तक एक कॉलेज में बायोटेक्नोलॉजी विषय की प्राध्यापक थी।
प्रकाशित पुस्तकें :
उपन्यास – छोटी-सी आशा, गृहस्थी कहानी।
कहानी संग्रह – मेरी बिटिया, नुक्कड़ नाटक, महिमा मण्डित, मृत्युगंध, अस्तित्व, अन्तिम प्रहर का स्वप्न,ऑन लाइन रोमांस, विलोम, जसोदा एक्सप्रेस, शानदार शख्सियत, अपना ख्याल रखना, प्रेम संबंधों की कहानियाँ, न नज़र बुरी, न मुँह काला
पुरस्कार :
1. मप्र साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय गजानन माधव मुक्तिबोध पुरस्कार 2017
2.मप्र साहित्य अकादमी का प्रादेशिक सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार 2006
3.प्रकाश रानी हरकावत पुरस्कार (मप्र), 2013
4.गायत्री कथा पुरस्कार (मप्र) 2017
5.निर्मल साहित्य पुरस्कार (मप्र) 2007
6.रत्नकांत साहित्य पुरस्कार (मप्र)
7.परिधि साहित्य सम्मान (मप्र) 2019
8.शैलेश मटियानी पुरस्कार मप्र 2021. उच्च कल्प साहित्य सम्मान (मप्र)
9.कमलेश्वर साहित्य पुरस्कार,अलीगढ़ 2007
10.हंस कथा सम्मान, दिल्ली 2004
11.हीरालाल शुक्ल पुरस्कार, जयपुर 2002
12.राधेश्याम चितलांगिया पुरस्कार, लखनऊ 2006
13.विन्ध्य गौरव सम्मान सहित कई क्षेत्रीय सम्मान
14. मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा स्व. श्रीमती संतोष बत्ता स्मृति पुरस्कार 23
सन्दर्भ स्रोत : सुषमा जी से श्रीमती वंदना दवे की बातचीत पर आधारित
© मीडियाटिक
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