छाया: सुमित्रा मुखर्जी के फेसबुक अकाउंट से
• सारिका ठाकुर
दुनिया भर में शरणार्थियों के लिए काम करने वाली अनेक संस्थाएं हैं, लेकिन उनमें से किसी के साथ जुड़कर काम करने वाली सुमित्रा मुखर्जी संभवत: एकमात्र भारतीय महिला हैं, जिन्होंने गणित पढ़ाने से लेकर ऐसी किसी संस्था में ऊंचे ओहदे तक पहुँचने का एक लम्बा और मुश्किल सफ़र तय किया है। सुमित्रा जी अंतर्राष्ट्रीय संस्था डेनिश रिफ्यूजी कौंसिल की रीजनल डायरेक्टर हैं और उनके कार्यक्षेत्र में सभी एशियाई देश आते हैं। उनका जन्म 8 जून 1967 को भोपाल में हुआ। उनके पिता श्री अरविन्द भद्र भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लि. (भेल ) में काम करते थे और अक्सर दौरे पर रहते थे। ऐसे में घर संभालने की पूरी जिम्मेदारी उनकी माँ क्षिप्रा जी निभा रही थीं। सुमित्रा दो भाई बहन हैं। उनका बचपन अति सामान्य था। परिवार गोविन्दपुरा क्षेत्र में भेल कर्मचारियों के लिए बने आवास में रहता था। दोनों भाई-बहन की प्रारंभिक शिक्षा वहीं हुई
रमण हायर सेकेंडरी स्कूल से आठवीं करने के बाद उन्होंने डॉ. राधाकृष्णन स्कूल से वर्ष 1984 में हायर सेकेंडरी किया। ग्रेजुएशन में गणित विषय लेकर महारानी लक्ष्मीबाई महाविद्यालय में दाखिला हुआ। 1985 के दौर में करियर के नए विकल्प के तौर पर कंप्यूटर की चर्चा शुरू हो गई थी। कई बड़ी बड़ी कम्पनियां कप्यूटर की पढ़ाई करवा रही थीं। उसी दौरान एक अख़बार में इसी तरह का एक विज्ञापन सुमित्रा जी ने देखा। कम्प्युटर कोर्स करवाने वाली वह संस्थान बंगलौर की थी। एडमिशन में बाइस सौ रूपये लग रहे थे जो उस समय एक बड़ी रकम मानी जाती थी। घर में इस बात का उन्होंने एक बार जिक्र किया और फिर मन से उतार दिया। वे उस वक्त हैरान रह गयीं जब उनके पिता ने कहा कि उस संस्थान में तुम्हारा एडमिशन करवा दिया गया है, जाने की तैयारी करो। वह तीन महीने का कोर्स था जो उन्होंने बेंगलुरु में रहकर किया फिर वहां से लौटने के बाद ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की।
![अफगानिस्तान में सुमित्रा जी का ऑफिस](https://swayamsiddha.s3.ap-south-1.amazonaws.com/media/20230701084059_medium_28OFFICE IN AFGANISTAN.jpg)
1987 में ग्रेजुएशन के बाद भेल क्षेत्र में स्थित अनवर उल उलूम हाई स्कूल में वे गणित पढ़ाने लगीं और एमएससी की पढ़ाई भी शुरू कर दी। लगभग तीन महीने स्कूल में पढ़ाने के बाद उन्होंने काम छोड़ दिया और एमएससी प्रथम वर्ष की पढ़ाई पूरी करने के बाद कॉलेज भी छोड़ दिया। उन्होंने स्वतंत्र छात्र के रूप में समाजशास्त्र से स्नातकोत्तर किया फिर उसके बाद उन्होंने गणित विषय लेकर दोबारा स्नातकोत्तर किया। इस तरह उनके पास दो मास्टर्स डिग्रियां हो गईं। उन दिनों सभी कम्प्यूटर साइंस में नई संभावना देख रहे थे इसलिए सुमित्रा जी ने इस बीच कम्प्यूटेक, भोपाल से पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन सिस्टम मैनेजमेंट करने के साथ कुछ और कोर्स भी किये ।
वर्ष 1990 के अगस्त में बतौर इलेक्ट्रॉनिक डाटा प्रोसेसिंग इंचार्ज सह अकाउंटेंट के रूप उन्होंने भोपाल के गोविन्दपुरा क्षेत्र में स्थित वियरवेल टायर्स एंड ट्यूब्स में नौकरी कर ली। अपनी नौकरी से वे पूरी तरह संतुष्ट थीं और उन्हें उस समय तक यह अनुमान भी नहीं था कि आने वाले वक्त में उनकी जिन्दगी पूरी तरह बदल जाने वाली है। वर्ष 1994 में अपने भ्रष्ट सीनियर की वजह से उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी और घर में ही कम्प्यूटर कक्षाएं लेने लगीं। उन्होंने आयकर विभाग के अधिकारियों को भी कंप्यूटर प्रशिक्षण दिया। इस तरह सुमित्रा जी के पास काम की कमी कभी नहीं रही, लेकिन स्वतंत्र रूप से काम करने का सिलसिला लम्बा नहीं चला। एक दिन इत्तफाकन उनकी मुलाक़ात फैमिली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया के प्रोग्राम डेवलपमेंट ऑफिसर मनोरंजन मिश्रा से हुई। बातों बातों में उन्होंने उनका बायोडाटा मांग लिया, जो उस वक्त उनके पास नहीं था तो जैसे बना, हाथ से लिखकर ही दे दिया। जल्द ही साक्षात्कार के लिए बुलावा भी आ गया।
फैमिली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया(FPAI) एक गैर सरकारी संस्था है जो यौन समस्या और प्रजनन के मुद्दे पर लोगों को जागरूक करती है। मप्र में उसने तब काम शुरू ही किया था और उसे बढ़ाने के लिए वह काबिल लोगों की तलाश में थी। संस्था ने सुमित्रा जी को उपयुक्त पाया और अक्तूबर 1994 में उन्हें रिसर्च ऑफिसर की ज़िम्मेदारी दे दी। यहाँ काम करते हुए पहली बार वे सामाजिक सरोकार की भावना से परिचित हुईं। संस्था का काम भोपाल, विदिशा और सीहोर के सुदूर इलाकों में चल रहा था। सुमित्रा जी बताती हैं, उस दौरान ऐसा कोई गांव नहीं बचा होगा जहां हमने दौरा न किया हो।” हालांकि इससे पहले वे सिविल सोसायटी या समाजसेवी संस्थाओं के बारे में कुछ ख़ास नहीं जानती थीं। दूसरी तरफ उनके परिवार को कभी भी उनके काम और यात्राओं से दिक्कत नहीं हुई। 14 जनवरी 1996 को व्यवसायी श्री प्रदीप मुखर्जी से विवाह के बाद भी सुमित्रा जी का काम बदस्तूर जारी रहा। 1997 में जब बेटे का जन्म हुआ उसकी ज़िम्मेदारी उनकी सास श्रीमती कमला मुखर्जी ने अपने ऊपर ले ली।
उसी दौरान उन्हें सरिस्का में उस कार्यशाला में शामिल होने का मौका मिला, जो डैनिश इंटरनेशनल डेवलपमेंट असिसटेन्स (DANIDA) की वित्तीय मदद से आयोजित की गई थी और जिसमें गांधी मेडिकल कॉलेज, भोपाल की सहभागिता थी। तकनीकी सहायता के लिए नीदरलैंड से विशेषज्ञ पहुंचे थे। इस कार्यशाला में कई संस्थाओं को आमंत्रित किया गया था जिसमें से एक फैमिली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया भी थी। वह उम्र की मासूमियत का दौर था जब सुमित्रा जी के सहयोगी डॉ. जमील ने उनसे इस कार्यशाला में जाने के लिए कहा और उनमें यह बात भी हुई कि ‘हवाई जहाज से जाएंगे, अच्छी जगह रहने और घूमने को भी मिलेगा।” यह बताते हुए सुमित्रा खिलखिलाकर हंस पड़ती हैं। इस कार्यशाला में उनकी कई लोगों से मुलाकात हुई जिसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की हस्तियां भी थीं। वापसी में सुमित्रा जी का परिचय डेनिडा के एक सदस्य से हुआ। उन्होंने कई बातें पूछीं और अपनी संस्था में शामिल होने का न्योता दे दिया। लगभग चार साल एफ़पीएआई के साथ काम करने के बाद वे जून 1998 में डेनिडा से जुड़ गईं। शुरुआत में उन्होंने बतौर ऑफिस मैनेजर और अकाउंटेंट काम किया फिर जल्द ही तरक्की करते हुए वे उस ओहदे पर जा पहुंची जहाँ उन्हें प्रशासनिक और वित्तीय दायित्व निभाना था। इस महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी के साथ उन्होंने अपने स्तर पर भी रचनात्मकता का उपयोग करते हुए कई नवाचार प्रारंभ किए।
1998 में जब भारत ने पोखरण में दूसरा परमाणु परीक्षण किया तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई समीकरण बदलने लगे। डेनमार्क ने वित्तीय सहायता रोक दी, जिससे डेनिडा की परियोजना बंद होने के कगार पर आ गई। सुमित्रा जी अन्य विकल्पों के बारे में सोचने लगीं थीं। एक दिन अख़बार में बीपीओ का एक विज्ञापन देखकर वे इंटरव्यू देने पहुँच गयीं। कई सत्रों में हुए इंटरव्यू के अंतिम चरण को लेकर सुमित्रा जी थोड़ी आशंकित थीं लेकिन वे सफल रही। हांगकांग-शंघाई बैंकिंग कारपोरेशन के लिए वह बीपीओ की नौकरी थी, जिसके लिए उन्हें हैदराबाद जाना था। वर्ष 2001 में उनकी बेटी का जन्म हो गया था। ऐसे में छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर नौकरी के लिए हैदराबाद जाना उन्हें मुश्किल लग रहा था लेकिन इस तरह की हर समस्या के समय उनकी सासु माँ ढाल बनकर खड़ी हो जातीं। उन्होंने न केवल आश्वस्त बल्कि उनके पति को सहमत करने में भी साथ दिया।
सुमित्राजी के परिवार में एक ख़ास बात थी। उनके अपने माता-पिता भी भोपाल में ही थे, उनमें और मुखर्जी परिवार में बहुत ही शानदार तालमेल रहा। ज़रुरत के समय दोनों परिवार एक दूसरे के लिए खड़े होते और समस्या हल होते देर नहीं लगती। इस बार भी यही हुआ। सुमित्रा अक्टूबर 2004 में हैदराबाद चली गयीं। बीच बीच में कभी उनके माता-पिता तो कभी उनके पति हैदराबाद आ जाते, छुट्टियों में सुमित्रा जी खुद भोपाल आ जातीं। इस तरह परिवार से दूरी की स्थिति कभी बनी ही नहीं और सबकुछ सहज रूप से होता चला गया।
सुमित्रा बताती हैं, “हालाँकि मेरी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से हुई थी लेकिन मेरे व्यक्तित्व निर्माण में एचएसबीसी का बड़ा योगदान रहा। बोलचाल के सही तरीके से लेकर उपयुक्त पहनावा और उठना-बैठना तक मैंने वहीँ सीखा और यहाँ की सीख ही आगे चलकर मुझे इस मुकाम तक लेकर आई।”
बीपीओ सेक्टर की अपनी इस नौकरी से सुमित्रा जी खुश थीं लेकिन मन में एक खालीपन था। समाज सेवा के क्षेत्र में काम कर लेने के बाद अब उन्हें लग रहा था कि उनका असल काम तो वही है। इसलिए हैदराबाद में कुछ समय उन्होंने डेनिडा के प्रोजेक्ट पर ही कुछ दिन वालंटियर के तौर पर काम किया लेकिन संतोष नहीं मिला। लगभग दो साल के इस कार्यकाल में उन्हें बेस्ट परफॉर्मेंस अवार्ड भी मिला। लेकिन उन्हें कुछ और करना था। एक दिन उन्हें नामीबिया की एक संस्था लाइफ लाइन/चाइल्ड लाइन (HIV/AIDS) का मेल आया। उसमें सुमित्रा जी ने आवेदन कर दिया। वालंटियर सर्विस ओवरसीज दिल्ली चैप्टर के दफ्तर में लिखित और मौखिक साक्षात्कार हुआ। जैसा कि होता आ रहा था, इस साक्षात्कार में भी वे सफल रहीं लेकिन इस बार देश में कहीं पोस्टिंग होने की बजाय नामीबिया की राजधानी विंडहोक में थी।
![अफगानिस्तान में अपने पति के साथ सुमित्रा मुखर्जी](https://swayamsiddha.s3.ap-south-1.amazonaws.com/media/20230701084146_medium_8AFGANISTAN MEN PATI KE SATH.jpg)
उल्लेखनीय है कि नामीबिया दक्षिण अफ्रीका हिस्सा था और 1884 में जर्मनी का उपनिवेश था। लम्बे समय तक डच ईस्ट इंडिया कंपनी का भी वहां शासन रहा, 1961 में दक्षिण अफ्रीका को गणराज्य का दर्जा मिल गया लेकिन सरकारी स्तर पर रंगभेद की नीति बनी रही। 21 मार्च 1990 को दक्षिण अफ्रीका का विभाजन हुआ और नामीबिया एक स्वतंत्र राष्ट्र बना। जिस वक्त सुमित्रा जी को नियुक्ति पत्र मिला उस समय नामीबिया को स्वतंत्र राष्ट्र बने मात्र चौदह वर्ष हुए थे। उस समय वह देश आकार ही ले रहा था। स्कूल कॉलेज, बैंक, अस्पताल की संख्या कम थी और नागरिक भी शिक्षित नहीं थे। किसी और देश में जाकर काम करने की बात पर भी परिवार में किसी तरह का विवाद नहीं हुआ। सासु माँ ने और सुमित्रा जी के पिता ने साथ दिया और वे सितम्बर 2006 में नामीबिया की राजधानी विंडहोक आ गईं।
सुमित्रा जी उस समय को याद करते हुए कहती हैं - मेरी बेटी तब बहुत छोटी थी और मेरे जाने की बात से बहुत मायूस थी। एक दिन उसने कहा - मुझे पता है कि मेरा वीज़ा नहीं है, आप मुझे सूटकेस में डालकर ले जाओ, किसी को पता नहीं चलेगा।” बावजूद इसके कि परिवार का पूरा समर्थन था और सासु माँ बच्चों का बहुत ध्यान रखती थी, फिर भी भावनात्मक रूप से सुमित्रा जी के लिए वह एक कठिन दौर था।
विंडहोक पहुंचकर उन्हें पता चला कि संस्था के शीर्ष पदों पर महिलाएं ही हैं। डायरेक्टर सपोर्ट सर्विस के तौर पर एक तो वे खुद थीं दूसरी थीं कंट्री डायरेक्टर जेन शित्युवेते (Jane Shityuwete ) और तीसरी थीं प्रोग्राम डायरेक्टर बर्नार्ड हरासे (Bernadette Harasses)। यह संस्था भी स्वास्थ्य के क्षेत्र में ही काम कर रही थीं। नामीबिया से सुमित्रा जी के जीवन का एक नया अध्याय खुला। सुमित्रा कहती हैं “वहां बहुत कुछ सीखने को मिला लेकिन एक और मुद्दे से दो चार होना पड़ा और वह था - रंगभेद। हालाँकि व्यक्तिगत रूप से मुझ पर कटाक्ष नहीं हुए लेकिन गोरे और काले को लेकर वहां का समाज बंटा हुआ था। एक बार मेरा गीज़र खराब हो गया। जब मकान मालकिन को इसकी सूचना दी तो उन्होंने कहा अपने सोसायटी से पता करके बताइये कि ब्लैक मैकेनिक को प्रवेश करने की अनुमति है क्या। यह मेरे लिए बहुत ही अलग सा अनुभव रहा।”
लगभग दो साल नामीबिया में काम करने के बाद एक बार सुमित्रा क्रिसमस की छुट्टियों में घर आई थीं। लेकिन इस बार वापस जाने का मन नहीं था इसलिए वे दुविधा में थीं। उसी समय एक मित्र ने बताया कि डेनिडा में लोग तुम्हारे बारे में पूछ रहे हैं वहां प्रोजेक्ट एडमिनिस्ट्रेटर की पोस्ट खाली है। पोस्टिंग अफ़गानिस्तान होने वाली थी यह देखकर मन में एक झटका जरुर लगा लेकिन आवेदन कर दिया । जल्द ही नियुक्ति पत्र भी हाथ में आ गया और वे काबुल के लिए रवाना हो गईं। हालाँकि इससे पहले परिवार में हर स्तर पर चर्चा हुई, पिताजी ने कहा, पूर्वाग्रह क्यों रखना, वहां भी तो लोग रहते ही हैं।” यह बात सुमित्रा को काफी पसंद आई। उन्होंने मार्च 2008 में वहां अपना काम संभाल लिया। संयोगवश जिस दिन उन्होंने ज्वाइन किया उसी दिन संस्था के तीन लोगों का अपहरण हो गया, हालांकि उन्हें बताया नहीं गया। दफ़्तर में हो रही खुसर-पुसर से कुछ ख़ास अंदाजा नहीं लगा, उन्हें बाद में इस घटना की जानकारी दी गई।
दरअसल ऐसे ख़ास माहौल वाले देशों में काम करने वाली सामाजिक संस्थाएं जोखिम और चुनौतियों से पूरी तरह परिचित होती हैं और माहौल के अनुसार ही परिस्थिति से निपटने का प्रयास भी करती हैं। कुछ दिनों बाद सुमित्राजी इस बात को अच्छी तरह समझ गयी। तालिबानियों की ओर से सरकारी इमारतों, अस्पतालों, सामाजिक संस्थाओं पर हमले किये जा रहे थे और उन्हीं में जिन्दगी आगे बढ़ रही थी। कभी अपने ही घर की छत पर राकेट के टुकड़े मिल जाते तो कभी दफ़्तर की जीप पकड़ ली जाती। सुमित्रा जी का पद कंट्री डायरेक्टर पद के बराबर ही था। इसलिए धीरे-धीरे उन्होंने इन सबसे निपटना भी सीख लिया। अपने कार्यकाल में अपहरण की तीन घटनाओं से वे रुबरु हुईं।
सुमित्रा जी को जून 2015 में डेनिश डीमाइनिंग ग्रुप की हेड ऑफ़ फायनांस एंड एडमिनिस्ट्रेशन बना दिया गया और दिसंबर 2016 में डेनिश रिफ्यूजी कौंसिल की वे कंट्री डायरेक्टर बन गईं। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आगे चल कर 2018 में वे मिडिल ईस्ट की डेपुटी रीजनल डायरेक्टर बनीं। उनका मुख्यालय जॉर्डन की राजधानी ओमान में था, जहांसे अक्सर उन्हें इराक, सीरिया, यमन और तुर्किये के दौरे पर जाना पड़ता था। कोरोना फैलने से पहले वे ज़्यादातर वक़्त दौरे पर ही रहती थीं। यूं ओमान में भी उनकी गुजर-बसर आसान नहीं थी। वहां ज़्यादातर इमारतें मिट्टी की होती थीं जिममें हमलों के दौरान बिजली गुल कर दी जाती थी। कड़ाके की सर्दी और बर्फबारी वाले मौसम में हॉट वाटर बैग में पानी भरकर बिस्तर को गरमाने जुगत भिड़ाई जाती।
![डेनमार्क की राजकुमारी मैरी के साथ](https://swayamsiddha.s3.ap-south-1.amazonaws.com/media/20230701084124_medium_45DENMARK KI RAJKUMARI MERRY KE SATH.jpg)
सीरिया के लिए सड़क से ही जाना पड़ता था। रास्ते में दोनों तरफ तबाही के मंजर ही नज़र आते थे, ध्वस्त और जली हुई इमारतें, डरे सहमे लोग या फिर डरावना सन्नाटा। शायद ही कोई घर सही सलामत मिलता। इस तरह के सफ़र के दौरान टीम के सभी लोग दिमागी तौर पर किसी भी हालात का सामना करने के लिए तैयार रहते थे। वे डर या हताशा को अपने पास फटकने भी नहीं देते थे, क्योंकि इनका काम उन्हीं हालात से दो-चार हो रहे लोगों से बातचीत करना और उन्हें मदद पहुँचाना था. कभी कभी यह तय करना मुश्किल हो जाता था कि किसकी मदद करें और किसे छोड़ दें.सुमित्रा जी कहती हैं, “नहीं, हताशा, डर या अवसाद तो बिलकुल नहीं होता था हममें, अगर ऐसा होता तो काम कैसे करते. मामला उलझने पर उनसे बात करके रास्ता निकालते थे. हमारा काम ही मुश्किल हालात से निपटना है।” अफगानिस्तान और यमन में तो कट्टरपंथियों से कई बार धमकियां भी मिलीं, एक बार ऐसा भी हुआ कि उनके ऑफिस में ताला लगा दिया गया और एक महिला सहयोगी का लैपटॉप छीन लिया गया।
मिडिल ईस्ट में काम करने के बाद जनवरी 2021 में उन्हें कंट्री डायरेक्टर बनाकर बांग्लादेश भेज दिया गया। इसके साथ ही वे वर्तमान में डीआरसी ऑपरेशन डायरेक्टर, एशिया का पद भी संभाल रही हैं और म्यांमार से भागकर आने वाले रोहिंग्या मुसलमानों के पुनर्वास, रहन-सहन और स्वास्थ्य के मुद्दों पर काम कर रही हैं। वर्ष 2022 में डेनमार्क की क्राउन प्रिंसेस राजकुमारी मेरी ढाका आईं तो डीआरसी की ओर से सुमित्रा जी को दो दिन उनकी मेजबानी करने का अवसर मिला। इस दौरान उन्होंने राजकुमारी को रोहिंग्या शरणार्थियों के शिविर और उनके हित में किये गए प्रयासों से रूबरू करवाया. सुमित्रा जी के लिए वह एक यादगार पल था।
सुमित्रा जी का बेटा बीबीए करने के बाद अपना व्यवसाय संभाल रहा है जबकि बेटी ने पत्रकारिता और जनसंचार में ग्रेजुएशन किया है। वह मानवाधिकारों पर काम कर रही है साथ ही डिजिटल मार्केटिंग में एमए करने की तैयारी भी।
संदर्भ स्रोत - सुमित्रा जी से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित
© मीडियाटिक
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