समाज की बेहतरी के लिए प्रतिबद्ध महिला कार्यकर्ता 

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समाज की बेहतरी के लिए प्रतिबद्ध महिला कार्यकर्ता 

सामाजिक-विमर्श

स्त्री और पुरुष दोनों कई अर्थों में परस्पर भिन्न अस्तित्व अवश्य है लेकिन संवेदना के स्तर पर प्रकृति ने कोई भेद-भाव नहीं किया। सामाजिक सरोकारों की समझ और समाज सेवा के लिए स्वयं को पूरी तरह खपा देना यह गुण भी स्त्री-पुरुष के बुनियादी फर्क से इतर है। हाँ, जिसकी लैंगिक पहचान ही ‘अबला’ शब्द में निहित हो, उसके द्वारा समाज के बड़े-बड़े गड्ढों से पीड़ितों को बाहर निकालना और उनकी मरहम-पट्टी करना उस अर्थ में बड़ी बात अवश्य है। मध्यप्रदेश की स्त्रियाँ भी आज़ादी के पूर्व से ही ऐसे अनेक कार्यों को अंजाम देती आई हैं। चाहे वह सरकार के साथ मिलकर काम करना हो अथवा नागरिकों के पक्ष में सरकार के विरुद्ध जाकर। इस लेख में हम प्रदेश की उन महिलाओं की बात करेंगे जिन्होंने सामाजिक सुधार हेतु अपना जीवन अर्पण कर दिया एवं जरुरत पड़ने पर व्यवस्था के विरुद्ध भी अपनी आवाज़ बुलंद करती रही हैं।

मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली एक घुड़सवार योद्धा  

आदिवासियों की शिक्षा और उनके कानूनी अधिकारों के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष करने वाली दयाबाई का नाम सामाजिक कार्यकर्ताओं में अलग ही स्थान रखता है। वे 16 साल की उम्र में केरल से इंटर्नशिप करने के लिए छिंदवाड़ा पहुंची थीं लेकिन हमेशा के लिए वहीं की होकर रह गईं। उनका असली नाम ‘मर्सी’ कहीं खो गया और जो रह गईं वे थीं दयाबाई। दयाबाई ने सत्याग्रह, नुक्कड़ नाटक, गीत और नृत्य द्वारा अपनी बात कही। उनके संघर्ष में राजनीति का नामो-निशान नहीं था बल्कि सांस्कृतिक औजारों को ही उन्होंने प्रतिरोध का हथियार बनाया। वे लम्बे समय तक ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ से भी जुड़ी रहीं। पेड़ों को बचाने की अपनी मुहिम को उन्होंने बिहार और हरियाणा तक फैलाया, वहीं युद्ध की विभीषिका झेल रहे बांग्लादेश में जाकर भी पीड़ितों की सेवा की। वे जानती थीं बिना किसी आर्थिक आधार के आगे बढ़ना कष्टसाध्य होने वाला है। इसलिए उन्होंने प्राकृतिक साधनों का सहारा लेना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि एक गांव से दूसरे गांव जाने के लिए वे घुड़सवारी करती हैं।

1990 में दयाबाई ने एक संस्था स्थापित की। इसके माध्यम से पहला काम उन्होंने बिचौलियों  को बीच से हटाने का किया और स्थानीय कलाकार, सर्जक एवं उत्पादक को बैंक से सीधे जोड़कर पूरा-पूरा लाभांश दिलवाने का कार्य किया, साथ ही बैंक में कार्यरत महिला कर्मियों में वह इस चेतना को जगाने में सफल रहीं कि उन्हें गाँव की औरतों को आगे बढ़ाने में आगे आना चाहिए। वर्ष 2007 में उन्हें वनिता महिला सम्मान से सम्मानित किया गया। शायनी जेकब बेंजामिन ने उन पर फिल्म बनाई जिसे दो राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए, अभिनेत्री व निर्मात्री नंदिता दास ने इस फिल्म को दयाबाई को समर्पित करते हुए लिखा था कि वे मेरे जीवन की प्रेरक व्यक्तित्व हैं। पिछले कई वर्षों से दयाबाई छिन्दवाड़ा ज़िला मुख्यालय से लगभग 55 कि.मी. दूर हर्रई ब्लाक के तिंसा गांव में रह रहीं हैं और अभी भी सक्रिय हैं।

 नर्मदा घाटी की बुलंद आवाजें  

नर्मदा बचाओ आन्दोलन का पर्याय बन चुकीं मेधा पाटकर का जन्म महाराष्ट्र में 1 दिसंबर 1954 को हुआ था लेकिन आन्दोलन की शुरुआत के बाद उनकी कर्मस्थली मध्यप्रदेश ही रहा। वे नर्मदा परियोजनाओं से विस्थापित हुए लोगों की आवाज़ बनकर उभरीं। मेधा जी उनके लिए और वे मेधा जी के पीछे खड़े रहे। उन्होंने पी.एच.डी. करना चाहा और आगे चलकर विवाह भी किया परन्तु वे सरल रेखा जैसे जीवन गणित में उलझने के लिए बनी ही नहीं। आन्दोलन उनके जीवन का ज़रूरी हिस्सा हैं, भले ही मुद्दे अलग-अलग हों। उदाहरण के लिए 2005 में मुंबई में आवास अधिकारों के लिए एक संघर्ष शुरू हुआ, जिसमें मेघाजी ने साथियों के साथ बहुत बड़ी जनसभा की और घर बचाओ-घर बनाओ का नारा दिया था। उसी प्रकार लवासा हिन्दुस्थान कंस्ट्रक्शन के करण पर्यावरण को पहुँच रही क्षति हो, चीनी को ऑपरेटिव मिशन हो, मध्यप्रदेश का चुटका परमाणु संयंत्र खोले जाने का मामला हो या सिंगूर में टाटा मोटर्स द्वारा नैनो कारखाने के कारण हुए विस्थापन का मामला हो, मेधा जी ने अपने साथियों के साथ अगुआ बनकर मजबूत विरोध दर्ज करवाई।  इसके अलावा, चाहे अन्ना हजारे का अनशन हो या 2020 के उत्तरार्ध से जारी किसान आन्दोलन, मेधाजी की मौजूदगी हर जगह दिखती है।

संघर्ष का ऐसा ही एक और नाम है चितरुपा पालित, जिनकी नर्मदा बचाओ आन्दोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। वे अपने साथियों में सिल्वी के नाम से जानी जाती हैं। सरदार सरोवर, बरगी और अपरवेदा बांधों के विस्थापितों की लड़ाई में चितरुपा लम्बे समय से साथ हैं। उनके लिए वे कभी वकील की भूमिका निभाती हैं तो कभी उन्हें चाय-पानी पिलाती हैं। नर्मदा के जंगल, वन अतिक्रमण, आदिवासियों की बुनियादी समस्याएं, पर्यावरण और महिला मज़दूरों की असंख्य समस्याओं से उनका सामना हुआ। उसी समय वे खेत मज़दूरों के साथ जुड़कर पुनर्वास लड़ाई का हिस्सा बन गईं। बड़े बांधों के विरुद्ध एक बड़ा सा समूह बना, सरकारी गोपनीयता क़ानून तोड़ने के लिए सभी 1989 में एकत्र हुए जिसमें चितरुपा को गिरफ़्तार कर लिया गया। 1990 में वे बड़ोदा जेल में रहीं इसके बाद जेल यात्राओं का सिलसिला सा चल पड़ा। सिल्वी का पहला कार्यक्षेत्र जबलपुर था जहाँ उन्होंने घमापुर चौक की बस्तियों में मसाला वर्कशॉप, सिलाई सेंटर आदि में दो वर्ष तक काम किया। 1986 में शराबबंदी के मुद्दे पर उन्होंने बड़ा आन्दोलन चलाया था। इसके अलावा जल सत्याग्रह भी उनके जीवन के विशेष आन्दोलनों में से गिना जा सकता है। उनकी लड़ाई आज भी जारी है, वर्तमान में आवारा कुत्तों की देखभाल करते हुए अनेक शारीरिक व्याधियों से जूझ रही है लेकिन हौसले में आज भी वही दृढ़ता है।

यह चर्चा अधूरी है यदि इसमें जयश्री का उल्लेख न हो। जयश्री और अमित की मुलाक़ात नर्मदा बचाओ आन्दोलन के दौरान हुई। वे दोनों खेदुत मजदूर चेतना संघटन से जुड़े हुए थे। आगे चलकर दोनों ने शादी कर ली और बड़वानी जिले के सेंधवा गाँव में बसने का निर्णय लिया। जयश्री अपने पति अमित के साथ मिलकर जो स्कूल चला रही हैं उसके लिए ग्रामीणों ने ही चंदा दिया और श्रमदान किया।, उन्होंने ही लकड़ी, सीमेंट और खपरैल का इंतज़ाम किया। जयश्री का मानना था कि मुख्यधारा की शिक्षा स्थानीय भाषा, आदिवासियों की जीवनशैली और संस्कृति को ख़ारिज करती है इसलिए उन्होंने ऐसे विद्यालय की परिकल्पना की जिसमें इन सबका समावेश हो। इस स्कूल का पूरा नाम है आधारशिला लर्निंग सेंटर, जिसमें लगभग डेढ़ सौ बच्चे पढ़ रहे हैं। विद्यालय संचालन ग्रामीणों के हाथ में है और यह मुख्यधारा के विद्यालयों से सर्वथा भिन्न है।

भोपाल गैस त्रासदी के बाद पीड़ितों के हक़ के लिए जिन्होंने बाँध ली मुट्ठियाँ

दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना यानि भोपाल की गैस त्रासदी में हज़ारों लोग मारे गए और जो बचे, वे नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हुए। ऐसे गैस प्रभावितों में रशीदा बी और चम्पा शुक्ल भी थीं जिन्होंने डाव केमिकल के खिलाफ लड़ने का फैसला किया। वर्ष 1989 में 469 मील भोपाल से लेकर दिल्ली तक पदयात्रा की, पुनः 2002 में उन्होंने दिल्ली में 19 दिनों का अनशन किया और पीड़ितों के लिए मुआवज़े के साथ पीड़ितों के निःशुल्क स्वास्थ्य सुविधाएँ, फ़ैक्टरी परिसर में फैले ज़हरीले अपशिष्टों के सुरक्षित निपटान, आदि की मांग रखी। गैस त्रासदी की 20वीं बरसी पर मिले मुआवज़े के पैसों से उन्होंने चिंगारी नामक ट्रस्ट की स्थापना की और उसके माध्यम से जन्मजात अपंगता झेल रहे बच्चों को सहायता उपलब्ध करवाई। रशीदा एवं चम्पा बेन 1986 से एक स्टेशनरी कारखाने में काम कर रही हैं, वहीं काम करते हुए दोनों ने मिलकर स्वतंत्र मजदूर संघ की स्थापना की और उनके हक़ में आवाज़ उठाई। रशीदा बी अब तक परिवार के छह सदस्यों को कैंसर के कारण खो चुकी हैं दूसरी तरफ चम्पा बहन भी अपने पति को खो चुकी हैं, उनका नाती भी विकिरण के कारण जन्मजात व्याधियों के साथ जन्मा है। इसके बावज़ूद आन्दोलन को आगे बढ़ाने में दोनों जुटी रहीं। उनका संघर्ष आज भी जारी है।

इनके अलावा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर गैस पीड़ितों की आवाज़ बुलंद करने वालों में रचना धींगरा एवं साधना कार्णिक का नाम भी रेखांकित करने योग्य है। मूलतः दिल्ली निवासी रचना धींगरा गैस पीड़ितों का साथ देने के लिए ही भोपाल पहुंची और प्रदेश को अपनी कर्म स्थली बना लिया। रचना जब मात्र तीन माह की थीं तभी इनके माता-पिता का तलाक हो गया, कारण था उनकी माँ ने एक बेटी को जन्म दिया था। उनकी माँ उन्हें लेकर अमेरिका चली गईं। रचना जी की शिक्षा दीक्षा भी वहीं हुई, वर्ष 2003 में अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर, भोपाल के गैस पीड़ितों का साथ देने के लिए वे भोपाल आ गईं और तब से ‘भोपाल ग्रुप ऑफ़ इन्फॉर्मेशन एंड एक्शन’ नाम से एक संगठन की स्थापना कर संघर्षरत हैं।  साधना भोपाल गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति से जुड़कर लम्बे समय से पीड़ितों के हक़ में आवाज़ में उठा रही हैं।

हर ज़ोर जुल्म को टक्कर देने वाली जननेत्रियाँ

भारत में संवैधानिक व्यवस्था के प्रारंभिक चरण में समाज सेवा एवं राजनीति के बीच कहीं कोई दीवार नहीं थी बल्कि दोनों का दोनों के घर में आना-जाना था। नुसरत बानो रूही, पेरीन दाजी, अख्तर आपा एवं उर्मिला सिंह जैसी महिलाओं ने राजनीति में रहते हुए समाजसेवा करती रहीं। चुनाव जीतकर विधायक या सांसद बन जाना इनकी प्राथमिकता कभी नहीं रही। बल्कि इनके जीवन का मकसद आमजन के अधिकारों के आवाज़ उठाना ही रहा हैं।

16 नवम्बर 1931 को भोपाल में जन्मी प्रो. नुसरत बानो रूही जीवन भर आधी आबादी के हक़ में आवाज़ उठाने के साथ-साथ मानवीयता अधिकारों का हनन करने वाले हर मुद्दे पर आम आदमी के साथ खड़ी रहीं। चाहे वह भोपाल गैस त्रासदी हो, सन 69-70 की बाढ़ हो या फिर शाहबानो प्रकरण। प्रो. रूही के पिता स्वतंत्रता सेनानी थे, आज़ादी के मायने बहुत अच्छी तरह समझती थीं, इसलिए जीवनपर्यंत महिलाओं के मुद्दों पर सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ लड़ती रहीं। बोल्शेविक क्रांति के दस दिन पढ़ने के बाद वे साम्यवाद से इस कदर प्रभावित हुईं कि सन 1968-89 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बन गईं। कई वर्षों तक भाकपा राज्य सचिव मंडल की सदस्या भी रहीं। उन्होंने गरीब बालिकाओं की शिक्षा एवं उनके स्वावलंबन की दिशा में अनेक उल्लेखनीय कार्य किये। दंगा पीड़ितों की सहायता एवं सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने में भी उनका प्रयास अविस्मरणीय है। अपने जीवनकाल में उन्होंने चार पुस्तकें भी लिखीं। जुलाई 2016 में वह इस दुनिया को अलविदा कह गईं।

पेरीन दाजी का सफ़र भी ऐसा ही रहा। वे कॉमरेड होमी दाजी की पत्नी थीं और  क्रांतिकारी विचारधारा में समानता के कारण ही दोनों ने विवाह भी किया। दोनों कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। सन 1957 में दूसरी विधानसभा जीतने के बाद डॉ. शशिकला मायंकर पेरीन को भारतीय महिला फेडरेशन में लेकर आई। इसके बाद से घर नौकरी समाज सेवा तीनों की ज़िम्मेदारी पेरीन निभा रही थीं परन्तु 2009 में होमी दाजी के निधन के बाद उन्होंने खुद को जनसेवा में अर्पित कर दिया। घरों में काम करने वाली महिलाओं, कनिष्ठ चिकित्सकों, नर्सों, आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, बीड़ी मज़दूरों, फ़ैक्टरी मज़दूरों गरीब अनाथ बच्चों से लेकर महँगाई, नर्मदा बचाओं के मुद्दों पर वह सदैव आगे आकर जनांदोलनों का नेतृत्व करती रहीं। यहाँ तक कि 82 वर्ष की आयु में पर्यावरण जागरूकता हेतु उन्होंने साइकिल रैली में भाग लिया था।

 अन्याय और अत्याचार के खिलाफ अख्तर आपा भी पेरीन दाजी की कड़ी का एक बुलंद सा नाम है। उनका जन्म भोपाल के एक प्रसिद्ध जागीरदार परिवार में हुआ था। अल्पायु में ही विवाह मलीहाबाद के एक नवाबजादे हमीद अली खां से हो गया। मलीहाबाद के महल में उन्होंने सामंती व्यवस्था का काला सच काफी करीब से देखा, वहीं उनके भीतर एक विद्रोहिणी का जन्म हुआ। वे ज्यादा समय मलीहाबाद में नहीं रह सकीं और वापस भोपाल आ गईं। यह 1957 का दौर था जब कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा जोर था। मोहिनी देवी के आग्रह पर उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। सामाजिक न्याय की पक्षधर अख्तर आपा ने तब बुरका उतारकर गरीब, शोषितों और पीड़ितों की रहनुमा बन गईं। मज़दूरों के हक़ के लिए अपने कट्टरपंथी सामंती समाज से लोहा लिया। भोपाल में स्थित नीलम पार्क का एक कोना उनका स्थायी ठिकाना बन चुका था जहाँ वे हर सप्ताह वे पीड़ित महिलाओं के साथ बैठक करती थीं। यह सिलसिला जीवनपर्यंत चलता रहा। वर्ष 2004 के 2 जून को उनका देहांत हो गया, साथ ही नीलम पार्क का वह कोना भी वीरान हो गया।

 इनके समकालीनों में एक मात्र उर्मिला सिंह बची हैं, जिनकी उम्र 81 वर्ष हो चुकी है। बतौर शिक्षिका लम्बे समय तक काम करने के बाद उन्होंने सरकारी प्राइमरी स्कूल के लिए संघर्ष किया जिसमें उन्हें सफलता मिली। गैस त्रासदी के बाद शहर के गैस पीड़ित वार्डों को अपना नाम दर्ज करवाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ा था, उर्मिला जी ने सुभाष नगर को गैस पीड़ित घोषित करवाने के लिए अथक परिश्रम किया। सामाजिक मुद्दों पर अन्य संस्थाओं के साथ जुड़कर उन्होंने कई आंदोलनों को गति प्रदान की। इटारसी गल्ला मंडी आन्दोलन में उनकी भूमिका अविस्मरणीय है। इसके बाद उन्होंने एक स्कूल भी संचालित किये एवं कामगारों के बच्चों को निःशुल्क ट्यूशन भी पढ़ाई। आज भी उर्मिला जी आसपास की खबर रखती हैं एवं मिलने जुलने वालों को सामाजिक मुद्दों के प्रति न्यायोचित दृष्टिकोण रखने के प्रति उत्प्रेरित करती हैं।

 उसी प्रकार शिक्षा एवं महिलाओं के मुद्दों पर जन सामान्य को साथ लेकर आवाज़ उठाने में आशा मिश्र भी अग्रणी महिलाओं में से एक हैं। आशा जी भारत ज्ञान विज्ञान समिति की संस्थापक सदस्य हैं एवं प्रदेश में साक्षरता आन्दोलन की मुखर स्वर हैं हैं। वहीं संध्या शैली एवं नीना शर्मा अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति(ऐडवा) की मुखर और दबंग कार्यकर्ता मानी जाती हैं। परन्तु इनकी गतिविधियाँ ऐडवा तक सीमित नहीं है बल्कि महिलाओं, बच्चों, किसानों और मज़दूरों के हक़ में भी पुरजोर आवाज़ उठाते हुए ये विभिन्न आंदोलनों की अगुवाई करती रही हैं। जन आन्दोलनों में इनकी उपस्थिति जोश भर देती है, इसके अलावा किसी मुद्दे पर लोगों को एकजुट करने में भी इन्हें महारत हासिल है। कहते हैं भीड़ और कोलाहल में स्त्रियों की आवाज़ दब सी जाती है, परन्तु नीना के स्वर धारदार ब्लेड की तरह कोलाहल के बीच से गूंजती हैं और उन्हें अनसुना कर पाना किसी के लिए मुमकिन नहीं होता। संध्या जी कम बोलती हैं परन्तु मुद्दों पर तकनीकी समझ और उस पर एक विस्तृत विमर्श की ज़मीन तैयार करने में उनका सानी नहीं है।

इसी मार्ग का अनुसरण करती हुई बैतूल में शमीम मोदी ने 1996 में श्रमिक आदिवासी संगठन की स्थापना की। इनकी कार्य कुशलता को देखते हुए जनजातियों के सशक्तिकरण पर भारत सरकार द्वारा 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत गठित कार्यदल में शमीम को भी शामिल किया गया। इन्होंने कई जनसंघर्षों में हिस्सा लेकर वंचितों को अधिकार दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ख़ास तौर पर हरदा एवं बैतूल के मज़दूरों को बेगार प्रथा से मुक्ति दिलाने के लिए इनकी लंबी लड़ाई को आज भी याद किया जाता है। इसके अलावा साधनहीन आदिवासियों के बच्चों की पढ़ाई से लेकर उन्हें फलोत्पादन आदि के लिए उत्प्रेरित करने के लिए इन्होंने कई प्रयास किये।

माधुरी कृष्णास्वामी गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो जागृति आदिवासी दलित संगठन के माध्यम से दलित और आदिवासियों के लिए पिछले पंद्रह वर्षों से लड़ रही हैं। इस क्रम में कई बार उन्हें गिरफ़्तार भी होना पड़ा है। रोचक तथ्य यह है कि वे पुलिस विभाग के प्रशिक्षण कार्यक्रम में उन्हें सामाजिक विधान समझाती हैं दूसरी तरफ उसी विधान के लिए जब वे पीड़ितों के साथ सड़क पर उतरती हैं तो पुलिस उन्हें पकड़ लेती है। इसी कड़ी में अगला नाम शबनम शाह व सरस्वती उईके का भी लिया जा सकता है। ये दोनों महिलाएं एकता परिषद के माध्यम से जल, जंगल और जमीन के लिए जूझ रही हैं।

बैतूल जिले के गोंड आदिवासी परिवार में जन्मी सरस्वती उईके अपने समुदाय की समस्याओं से परिचित हैं। वर्तमान में वे रायसेन ज़िले के भील, गोंड भिलाला जनजाति के वनाधिकार एवं उत्थान के लिए संघर्षशील हैं। इन्होंने सिलवानी और गौहरगंज तहसील के कई गाँवों में अपने संगठन के माध्यम से बड़े पैमाने पर जन जागरूकता अभियान चलाकर भूमि अधिकार के मुद्दे पर सराहनीय काम किया है। यही वजह है कि इन क्षेत्रों के कई गाँवों के आदिवासी  परिवारों को वनभूमि पर व्यक्तिगत अधिकार मिल पाया है। कुछ ऐसा ही संघर्ष अशोक नगर में शबनम शाह का रहा है। वे सहरिया जनजाति के भूमि अधिकारों एवं उनके सशक्तिकरण के लिए काम कर रही हैं। इनके प्रयासों से जिले के कई सहरिया परिवारों को भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार प्राप्त हुए हैं। यही वजह है कि वर्ष 2020 में वुमेन वर्ल्ड समिट फ़ाउंडेशन द्वारा ग्रामीण जीवन के लिए काम कर रही दुनिया भर की औरतों में से दिए जाने वाले पुरस्कार के लिए सरस्वती उइके एवं शबनम शाह दोनों ही चयनित हुई हैं।

इसी प्रकार सारिका श्रीवास्तव सरकारी स्कूलों में मानवाधिकारों की शिक्षा,  निचली बस्तियों के बच्चों की शिक्षा, कचरा बीनने वाली और घरेलू नौकरानियों के अधिकारों के लिए काम करती रही हैं। इसके अलावा नर्मदा बचाओ आन्दोलन सहित, धर्म आधारित भेदभाव के विरुद्ध सदैव डटकर खड़ी रहीं हैं। वर्तमान में सारिका जी एक्शन एड के साथ जुड़कर काम कर रही हैं।

कहना न होगा कि आमजन के पक्ष में संघर्षशील महिलाओं की एक लंबी फ़ेहरिस्त है, जो प्रचार से कोसों दूर रहकर लोगों के बीच जाकर काम करती हैं। एक आम शहरी इनके बारे में तभी जान पाता है जब पुलिस या प्रशासन तंत्र इनके ख़िलाफ़ कदम उठाते हैं।

• सारिका ठाकुर
सामग्री सहयोग – डॉ. भारती शुक्ला

© मीडियाटिक

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