लता मुंशी

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लता मुंशी

छाया : स्व संप्रेषित

  कलाकार - संगीत एवं नृत्य 

भरतनाट्यम के क्षेत्र में मध्यप्रदेश को पहचान दिलाने वाली प्रसिद्ध नृत्यांगना लता मुंशी का जन्म मध्यप्रदेश के कटनी के पास कैमूर कस्बे में हुआ था। पिता हरचरण सिंह डाक विभाग में पोस्ट मास्टर जनरल थे एवं माँ  शांति सिंह शासकीय विद्यालय में शिक्षिका थीं। लता मुंशी पांच बहनों में तीसरी हैं। उनके माता-पिता ने सभी बेटियों को बड़े ही अरमान से पाला।

बच्चों के परवरिश को लेकर माता-पिता दोनों की विचारधारा बिलकुल स्पष्ट थी, अर्थात जिसे जिस विषय अथवा क्षेत्र में रूचि हो वही करो और खुद के दम पर करो। बड़ी बहन को पढ़ने का बड़ा शौक था और यह तयशुदा बात थी कि वह डॉक्टर बनेंगी। उससे छोटी बहन को गाने का शौक था, उन्होंने भी खुद को उसी विधा में आजमाया। लता जी को छुटपन से ही नाचने का शौक था। माता पिता को लगा शायद बच्ची में नृत्य की जन्मजात प्रतिभा है, इसलिए उन्हें रीवा में स्थित कोठी कम्पाउंड में संचालित नृत्य कक्षा में भेज दिया। उस वक्त लता जी की आयु 4 या 5 वर्ष थी। वहीँ से लता जी ने मिडिल स्कूल तक की पढ़ाई की।

इसी बीच रीवा महाराज के यहाँ किसी कार्यक्रम में लता जी को अपनी प्रस्तुति (कथक) देने का मौका मिला, जिसे वे आज भी अपनी उपलब्धि मानती हैं। महल की चकाचौंध और नगर के प्रतिष्ठित दर्शकों के समक्ष उस नन्ही सी उम्र में प्रस्तुति देना किसी गोल्ड मेडल से कम नहीं था। कुछ समय बाद 70 के दशक में पिता का तबादला रीवा से हो गया और लता जी का परिवार भोपाल आ गया। यहाँ कमला नेहरु स्कूल में नौवीं कक्षा में उनका दाख़िला हुआ। इसी स्कूल में नामांकन के पीछे एकमात्र कारण था यह था कि उन दिनों कमला नेहरु कन्या विद्यालय में विषय के रूप में नृत्य की शिक्षा दी जाती थी। यह सुविधा अन्य स्कूलों में नहीं थी।

एक आम सा मध्यमवर्गीय परिवार था लता जी का, जिसमें घरेलू माहौल अत्यंत सहज और स्वाभाविक सा था। स्कूली शिक्षा समाप्त होने के बाद आगे की पढ़ाई को लेकर उलझन खड़ी हो गई। बड़ी बहन को देखकर डॉक्टर बनने की इच्छा हो रही थी। पिता ने कहा वे एक साथ डॉक्टर और डांसर नहीं बन सकतीं। दोनों अलग-अलग विधा हैं और दोनों में सौ फ़ीसदी मेहनत चाहिए। यहाँ नृत्य का पलड़ा भारी था। स्कूली शिक्षा के पश्चात वे शंकर होम्बल जी से गुरु-शिष्य परंपरा के तहत भरतनाट्यम एवं पंडित रामलाल जी से कथक सीखने लगीं। एक बार रामलाल जी ने कहा कि “ तुम्हारे कथक में भरतनाट्यम की झलक महसूस होती है, संभव है भरतनाट्यम में कथक का प्रभाव दिखता हो।” इस बात ने उन्हें सोचने को मजबूर कर दिया कि ऐसा न हो कि कथक और भरतनाट्यम दोनों को साथ लेकर चलने के चक्कर में दोनों में से कुछ भी हासिल न हो, इसलिए उन्होंने महारानी लक्ष्मीबाई महाविद्यालय से अंततः  ‘भरतनाट्यम’ विषय लेकर 1980 -81 में स्नातक उपाधि प्राप्त की। लता जी वैजयंती माला के नृत्य की मुरीद थीं, भरतनाट्यम के प्रति रुझान के पीछे यह भी एक महत्वपूर्ण कारण रहा। पुनः इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय से स्वतंत्र छात्रा  के रूप में उन्होंने ‘भरतनाट्यम’ से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की।

वर्ष 1984 कैरियर के तौर पर महत्त्वपूर्ण रहा क्योंकि इसी वर्ष भरतनाट्यम शिक्षण परंपरा के तहत लता जी का ‘अरंगेत्रम’ रविन्द्र भवन में आयोजित हुआ। भरतनाट्यम शिक्षण में यह एक प्रकार से  ‘दीक्षांत समारोह’ की भांति होता है, जिसमें गुरु मंच पर आकर शिष्य की शिक्षा पूर्ण  होने की औपचारिक घोषणा करते हैं, शिष्य गुरु दक्षिणा देकर मंच पर लगभग दो- तीन घंटों की प्रस्तुति देता है। इस आयोजन को खूब सराहना मिली और इसी प्रस्तुति से प्रभावित होकर मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा आयोजित ‘घुंघरू’ कार्यक्रम में भी प्रस्तुति देने का अवसर उन्हें उसी वर्ष प्राप्त हुआ। इस कार्यक्रम में उदीयमान कलाकारों को अवसर दिया जाता है। उनकी अप्रतिम प्रतिभा को देखते हुए उसी समय लता को मध्यप्रदेश संस्कृति विभाग ने   छात्रवृत्ति देकर पद्मश्री लीला सैमसन के पास सीखने के लिए दिल्ली भेज दिया।

लता जी उस समय डाक विभाग में सेवारत थीं। छुट्टी का आवेदन देकर वे दिल्ली पहुँच गईं। वहाँ कई चुनौतियाँ मुंह बाए पहले से खड़ी थीं। लीला जी के संस्थान में देश के कोने-कोने से लोग सीखने आते थे। लता जी के पहुँचने से पूर्व ही उनकी कक्षा की सभी सीटें भर चुकीं थीं। मजबूरन उन्हें मना करना पड़ा। लेकिन लता जी यह तय कर चुकी थीं कि सीखना तो इन्हीं से है। वे कक्षा के बाहर खड़ी रहतीं। एक दिन लीला जी की नज़र उन पर पड़ गई और उनकी लगन को देखकर वे उन्हें सिखाने को तैयार हो गई। वहाँ की जीवन शैली अत्यंत कठोर थी। शिक्षा पूरी होने के बाद लीला जी ने उन्हें दिल्ली में ही रहने का सुझाव दिया ताकि ज़्यादा अवसर मिलें। वहां रहने में आजीविका का संकट न हो इसलिए कुछ ट्यूशन भी लीला जी ने उन्हें दिलाए। लेकिन कुछ समय के बाद लता जी का मन दिल्ली से उचट गया। अपना शहर भोपाल जैसे उन्हें वापस बुलाने लगा। वे वापस भोपाल आ गईं।

वैसे लता जी यह स्वीकार करती हैं कि अगर वे दिल्ली में होतीं तो शायद किसी और ही ऊंचाई पर पहुँच चुकी होतीं लेकिन मन भोपाल आने को तड़प उठा था। वापस आकर वे एक दो बच्चों को भरतनाट्यम सिखाने लगीं। कुछ कार्यक्रम भी मिलने लगे थे। छोटे-छोटे कदम उठाते हुए वे आगे बढ़ रही थीं। वर्ष 1987 के आसपास वे शासकीय कन्या स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय के नृत्य विभाग में व्याख्याता के पद पर नियुक्त हो गईं। इसी बीच लता जी की इच्छा उस स्थान पर जाकर सीखने की हुई जो भरतनाट्यम का मूल स्थान माना जाता है। वे चेन्नई गईं और पद्म विभूषण शांता धनंजयन से सीखने लगीं। भोपाल लम्बे समय के लिए छोड़ना मुमकिन नहीं था, इसलिए  वे बीच-बीच में वे हफ़्ते भर के लिए जाकर लौट आया करती थीं। इस प्रकार शिक्षण की निरंतरता बनी रही।

वर्ष 1996 में लता जी की मुलाक़ात श्याम मुंशी जी से हुई। तब तक साहित्य के क्षेत्र में श्याम मुंशी जी सुस्थापित हो चुके थे। लगभग साल भर एक दूसरे को जानने के बाद दोनों परिणय सूत्र में बंध गये। श्याम मुंशी का परिवार संयुक्त और परम्परावादी है। शुरुआत में कुछ दिक्कतें आईं परन्तु पति के भरपूर साथ ने सारी बाधाएं पार करवा दीं। विवाह के बाद लता जी का करियर परवान चढ़ा। उनके गुरु शंकर होम्बल को वर्ष 1998-99 का प्रदर्शनकारी कलाओं में शिखर सम्मान प्राप्त हुआ। इस पुरस्कार के लिए गठित निर्णायक मंडल में उनकी शिष्या लता जी भी थीं। वर्ष 2016 में लता जी को तिनाकरण फ़ाइन आर्ट सोसायटी कुआलालंपुर, मलेशिया द्वारा नृत्य परिपूर्ण सम्मान प्राप्त हुआ। वर्ष 2018 में स्वयं लता जी को मध्यप्रदेश का सर्वोच्च नागरिक शिखर सम्मान प्राप्त हुआ।

इसके अलावा लता जी के खाते में और भी कई उपलब्धियाँ दर्ज हैं। वह देश व विदेशों  के लगभग सभी प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुतियां दे चुकी हैं। उन्होंने देश और विदेशों में कई कार्यशालाओं का भी आयोजन किया, जिससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें सम्मानजनक पहचान मिली। लता जी ने कई वरिष्ठ नाटक निर्देशकों के साथ नृत्य निर्देशिका के रूप में काम किया है जैसे – ब.व.कारंत, बृजमोहन शाह, अलखनंदन, संजय उपाध्याय और उस्मान शेख आदि। इसके अलावा कई लघु फिल्मों व टेलीफिल्मों में कोरियोग्राफ़ी का भी अवसर उन्हें प्राप्त हुआ। उन्होंने विशिष्ट प्रयोग के तहत हिंदी और उर्दू की कविताओं को भरतनाट्यम शैली में प्रस्तुत किया। कथक में तो यह चलन शुरू से रहा है, लेकिन भरतनाट्यम के लिए यह नई बात थी।

वर्तमान में लता जी भोपाल में ‘भोपाल के यमन एकेडमी ऑफ़ फ़ाइन आर्ट्स’ नाम से एक संस्था संचालित कर रही हैं,जहां से निकलकर कई छात्राओं ने देश भर में नाम कमाया है। लता जी अपने पति श्याम मुंशी जी, पुत्र यमन व पुत्री आरोही के संग खुशहाल जीवन व्यतीत कर रही हैं और प्रतिभाशाली आरोही को अपनी विरासत सौंपने के लिए प्रशिक्षित कर रही हैं।

संदर्भ स्रोत – स्व संप्रेषित एवं लता जी से बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक

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