अपने पिता की सच्ची उत्तराधिकारी थीं रत्नकुमारी देवी

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अपने पिता की सच्ची उत्तराधिकारी थीं रत्नकुमारी देवी

• सारिका ठाकुर 

वंश परंपरा में आमतौर पर पिता का उत्तराधिकार पुत्र को प्राप्त होता है। मगर कभी-कभी पिता और पुत्री दोनों की चर्चा एक-दूसरे के सन्दर्भ में होने लगती है। जबलपुर की सांसद, साहित्यकार और समाजसेवी  रत्नकुमारी देवी भी ऐसी शख्सियत थीं। जब उनका जन्म हुआ तब उनके पिता की उम्र महज 17 साल थी, शायद इसीलिए अपने पिता की विचारधारा को समझने में उन्हें दिक्कत नहीं हुई। उन दोनों के बीच परस्पर समझ और एक अद्भुत तालमेल विकसित हुआ। उनके पिता जब गिरफ्तार हुए तो क्रांतिकारी गतिविधियों की बागडोर उनकी बेटी रत्नकुमारी ने सहजता से संभाल ली। 

रत्नकुमारी देवी के पूर्वज सेवारामजी संवत 1857 के माघ महीने (जनवरी) में जैसलमेर से मध्यप्रांत पहुँचे थे। आगे चलकर उन्होंने और उनके वंशजों ने व्यापार में उन्नति करते हुए बड़ा मुकाम बनाया। रत्नकुमारी देवी के परदादा सेठ गोकुलदास को अंग्रेज सरकार  का सहयोग करने के कारण ‘राजा’ की उपाधि मिली थी। सेठ गोविन्ददास इन्हीं राजा गोकुलदास के पौत्र थे और रत्नकुमारी देवी, गोविन्ददास जी की पुत्री। उनका जन्म जबलपुर में सन 1912 में हुआ। पहली कक्षा स्कूल से पढ़ने के बाद उन्होंने आगे की शिक्षा घर रहकर ही ली, इसके लिए विशेष रूप से शिक्षक नियुक्त किये गए थे। 10 साल की उम्र तक उन्होंने हिन्दी  और उसके बाद अंग्रेज़ी और संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। उनकी पढ़ाई की ज़िम्मेदारी प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य पं सुंदरलाल पर थी। 15 वर्ष की आयु में रत्नकुमारी देवी को ‘काव्यतीर्थ’ की उपाधि प्राप्त हुई। सन1925 में उनका विवाह सहारनपुर, उप्र निवासी बाबू लक्ष्मीचंदजी से हो गया, जो एक उद्योगपति घराने के सदस्य थे। 

लेकिन रत्नकुमारी अधिक समय तक ससुराल में नहीं रह सकीं। वजह थी उनके पितृगृह में सब कुछ अस्तव्यस्त हो जाना। उनके पिता सेठ गोविन्द दास नाममात्र के लिए ही सेठ थे, व्यापार के बजाय वे साहित्य में रम चुके थे। रत्नकुमारी के विवाह से पहले ही सन 1920 के असहयोग आन्दोलन से वे जुड़ चुके थे। पिता और पितामह के बीच खाई लगातार चौड़ी होती जा रही थी। उनके भाई बहन बाबू जगमोहन दास, मनमोहन दास और पद्मा की उम्र बहुत कम थी। उनकी माँ श्रीमती गोदावरी देवी भी बीमार रहने लगीं थीं। ऐसी स्थिति में अपने परिवार को संबल देने रत्नकुमारी जबलपुर आ गईं। जनवरी 1932 में सेठ गोविन्ददास दूसरी बार गिरफ्तार हुए, उन्हें दो साल की सजा हुई थी लेकिन पत्नी की अस्वस्थता के कारण उन्हें छः महीने में रिहा कर दिया गया। जबलपुर पहुंचकर गोविन्द दास जी को पता चला उनके पिता ने किसानों से सख्ती से लगान वसूल की है। इसके विरोध में वे वापस घर नहीं गए और बगीचे में बने मंदिर में रहने लगे। उसी समय (1932) उन्होंने कानूनन अपनी पूरी संपत्ति का त्याग कर दिया। तब तक रत्नकुमारी ससुराल से जबलपुर पहुँच चुकी थीं। पिता के संपत्ति त्याग की घटना ने उन्हें मानसिक रूप से उद्वेलित कर दिया और उन्होंने अपने जीवन की पहली कविता मातृभूमि लिखी।

पिता की मृत्यु के बाद भी गोविन्द दास जी कभी घर वापस नहीं लौटे लेकिन उनका घर क्रांतिकारियों का ठिकाना बन गया था। रत्नकुमारी घर में रहते हुए ही अपने आसपास के लोगों को जागृत करतीं। घर में सभा और बैठकों के आयोजन के साथ ही कई गुप्त योजनाएं भी बनतीं। महात्मा गांधी, माता और पुत्री दोनों के प्रति स्नेह रखते थे। अंग्रेजों के विरुद्ध रत्नकुमारी जी ने एक महिला संगठन की भी स्थापना की। जन-जन में वह ‘जीजी बाई’ के नाम से प्रसिद्ध थीं। वे एक ऐसी कमांडर थीं जिसका नाम सरकारी रिकॉर्ड में नहीं मिलता। सरकार उन्हें गिरफ्तार करने की धमकी जरुर देती थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। चूंकि वे कभी जेल नहीं गईं, इसलिए उन्हें अधिकारिक तौर पर स्वतंत्रता सेनानी नहीं माना गया, लेकिन उनकी कहानियां जबलपुर में आज भी गर्व से सुनाई जाती हैं। 

रत्नकुमारी ने अपने पिता की साहित्यिक, राजनीतिक और सामाजिक विरासत को सरलता से सहेज लिया। एक ओर वे साहित्य सृजन में व्यस्त थीं तो दूसरी ओर राष्ट्र के नव निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थीं। आजादी के बाद 1959 से 1974 तक सेठ गोविन्द दास जबलपुर से सांसद रहे, उनके छोटे भाई बाबू मनमोहनदास दो बार विधायक रहे और उनकी मृत्यु के बाद बाबू जगमोहनदास (दूसरे छोटे भाई) दो बार विधायक रहे। चाहे लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा, चुनाव के समय मतदाताओं के बीच जाकर जनाधार को मजबूत करने में रत्नकुमारी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उस समय सेठ गोविन्द दास का महल तात्कालीन राजनीति का केंद्र था और उसे संभालने का काम कर रही थीं रत्नकुमारी देवी। हालाँकि वे खुद भी 1952 से कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बन चुकी थीं।

1974 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें लोक सभा चुनाव के लिए टिकट देना चाहा लेकिन उन्होंने मना कर दिया। जून 1974 में उनके पिता और फरवरी 1975 उनके छोटे भाई मनमोहन दास का निधन हो गया। जगमोहनदास जी का देहांत उससे पूर्व ही हो चुका था और छोटी बहन अपने ससुराल चली गईं थीं। वह उनके जीवन का सबसे तकलीफ़देह समय था। 1976 में उन्हें राज्यसभा सदस्य बना दिया गया,1994 तक संसद के ऊपरी सदन में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व करती रहीं। वे एकमात्र महिला सांसद रहीं, जिन्हें लगातार तीन बार राज्यसभा की सदस्यता मिली।

वे श्रीमती इंदिरा गाँधी की करीबी जरुर थीं लेकिन सदन में अपनी बात रखने से पीछे वे कभी नहीं हटीं। एक बार तेलशोधक कारखाने की स्थापना के लिए उन्होंने कटनी का नाम प्रस्तावित किया। मगर कुछ लोग कारखाना ‘बीना’ में स्थापित करवाना चाहते थे। वे क्षेत्रवादियों के निशाने पर आ गईं और उन्हें जान से मार देने की धमकी दी जाने लगीं। इसके बावजूद उन्होंने अपना कथन वापस नहीं लिया। उनकी जड़ें जबलपुर में थीं तो वे अपने शहर के विकास के लिए सदन में आवाज़ उठाती रहीं। जबलपुर में दूरदर्शन केंद्र की स्थापना, हवाई अड्डे का विस्तार और तेल शोधक केंद्र की स्थापना रत्नकुमारी देवी के प्रयासों से ही संभव हुई। शुरुआत में जब वे अपने ससुराल से जबलपुर पहुंची थी तब शायद वे खुद भी नहीं जानती होंगी कि वे अपने ससुराल फिर कभी लौटकर नहीं जा पाएंगी। उनके पति लक्ष्मीचंद जी ने हमेशा उनका साथ दिया। बाद में उन्होंने अपना व्यापार जबलपुर में ही स्थापित कर लिया और हमेशा के लिए जबलपुर में ही बस गए। कुंवर लक्ष्मीचंदजी भी कई सामाजिक हित के कार्यों से जुड़े हुए थे। सन 1968 में उनके प्रयास से ही हितकारिणी प्रशिक्षण महिला महाविद्यालय में एक विशेष प्रशिक्षण विभाग की स्थापना की गई थी। वे उस समय हितकारिणी सभा के महत्वपूर्ण सदस्य थे।    

रत्नकुमारी जी के साहित्यिक अवदान की ही बात की जाए तो इस क्षेत्र में उनके प्रवेश से पहले सुभद्रा कुमारी चौहान और तोरण देवी शुक्ल ‘लली’ की राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कविताएं प्रसिद्ध हो चुकी थीं। 1931 से रत्नकुमारी की कविताएँ सरस्वती, प्रेमा, सहेली और जागरण जैसी उस समय की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। जिस प्रकार सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित कविता ‘खूब लड़ी मर्दानी’ से पहचान बनी उसी तरह रानी दुर्गावती के लिए लिखी गयी उनकी कविता ‘अमर रहोगी रानी तुम’ उस समय खूब चर्चित हुई थी।

रत्नकुमारी देवी की प्रारंभिक कविताएं सन 1934 में काव्य संग्रह ‘अंकुर’ के नाम से प्रकाशित हुईं। इसमें दर्ज सभी कविताएँ पराधीनता की पीड़ा और राष्ट्रीय भावना की पृष्ठभूमि पर लिखी गईं थीं। दूसरे काव्य संग्रह ‘ऋतुपर्व में उनका सौंदर्यबोध व्यक्त होता है। यह 1978 में प्रकाशित हुआ था। प्रकृति के प्रति उन्मुक्त प्रेम को दर्शाती ‘ऋतुपर्व’ की सभी कविताएँ समीक्षकों के बीच चर्चित रही। इसके अलावा उन्होंने अपने पिता गोविन्द दास द्वारा लिखे गए सभी नाटकों के लिए गीत भी रचे।

रत्नकुमारी देवी को उनके पिता के व्यक्तित्व की प्रतिकृति नहीं बल्कि उनका विस्तृत संस्करण कहना चाहिए। इस बात को वे खुद भी शुरू से जानती थीं। जिस समय वह पिता की गतिविधियों को पूरी तरह समझने की कोशिश कर रही थी उस समय वह इतिहास को अपने सामने घटित होता हुआ भी देख रही थीं। उन्होंने सब कुछ अपनी आँखों से देखा और समझा। वह अपने साथ एक डायरी रखती थीं जिसमें तत्कालीन राजनीतिक घटनाक्रमों के सहित अपने पिता की गतिविधियों को भी दर्ज करती थीं। उसी डायरी के आधार पर उन्होंने अपने पिता की जीवनी लिखी।

सामाजिक हित में काम करने के लिए किसी पद की जरुरत नहीं होती। 1994 में जब राज्यसभा के सदस्यता की अवधि पूरी हो गई तो उन्होंने खुद को पूरी तरह समाजसेवा में डुबो दिया। 83 वर्ष की उम्र में भी वे  हितकारिणी सभा की अध्यक्ष के रूप में काम करती रहीं। 16 अप्रैल 2003 में 89 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। उनके परिवार में पुत्र बाबू गिरीशजी और पुत्रवधु रजनी के अलावा भतीजे चन्द्रमोहन अपने गौरवशाली खानदान का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

सन्दर्भ स्रोत

• महाकोशल-साहित्य-मंदिर, जबलपुर द्वारा प्रकाशित सेठ गोविन्द दास (जीवनी) : लेखक - रत्नकुमारी देवी ‘काव्यतीर्थ’

• डॉ. प्रमोद सिन्हा. डी.फिल. का लेख : मानवीय संवेदना की कवयित्री रत्न्कुमारी देवी

• रत्नकुमारी देवी पर केन्द्रित अमृत महोत्सव विशेषांक 2005

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