पद्मजा विश्वरूप: विचित्र वीणा के तारों पर थिरकती हैं जिनकी उंगलियां  

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पद्मजा विश्वरूप: विचित्र वीणा के तारों पर थिरकती हैं जिनकी उंगलियां  

छाया: स्व संप्रेषित

  कलाकार - संगीत एवं नृत्य 

• सारिका ठाकुर 

प्राचीन तंतु वाद्य वीणा पौराणिक काल से ही अस्तित्व में है। पितृ सत्तात्मक रूढ़ियों की छाया से संगीत भी अछूती नहीं है। जिस वीणा के बारे में कहा जाता है कि उसकी रचना ही स्त्री की ‘शयन मुद्रा’ से उत्प्रेरित होकर की गई थी और जिसके बिना देवी सरस्वती की छवि पूरी नहीं होती, वह एक समय में स्त्रियों के लिए वर्जित वस्तुओं में से एक थी। इस वाद्य यंत्र को बजाना तो दूर, उसे स्पर्श तक करने की अनुमति स्त्रियों को नहीं थी।  उस्ताद ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर की शिष्या पद्मजा विश्वरूप ने न केवल इस परम्परा को तोड़ा बल्कि विचित्र वीणा की दक्ष कलाकार के रूप में देश के शीर्ष कलाकारों में अपनी जगह बनायी। वे बताती हैं “वीणा अपने आप में अकेला वाद्य यन्त्र नहीं है बल्कि इसके कई प्रकार होते हैं। प्राचीन काल में तंतुओं, तुम्बों और लम्बाई चौड़ाई जैसी अलग अलग विशेषताओं वाली 184 प्रकार की वीणाएं होती थीं, जिनमें से अब मात्र 4 बची हैं। उत्तर भारत में रुद्र वीणा और विचित्र वीणा और दक्षिण भारत में गोत्तुम और सरस्वती वीणा।" 

एक वाद्य के रूप में वीणा के इतिहास की तरह ही दिलचस्प है पद्मजा विश्वरूप की संगीत यात्रा और विचित्र वीणा से उनके परिचय और आत्मीयता की कहानी। पद्मजा जी का जन्म 15 सितम्बर 1976 को ग्वालियर में हुआ। उनके पिता श्री परशुराम बिंदे राजस्व मंडल में कार्यरत थे जबकि माँ श्रीमती गीता बिंदे भी शासकीय सेवा में ही थीं और लिपिक के पद पर कार्यरत थीं। तीन भाई बहनों में पद्मजा जी सबसे बड़ी हैं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा ग्वालियर में ही हुई। शिशु मंदिर से 8वीं करने के बाद वर्ष 1991 में उन्होंने कमला राजा शासकीय कन्या विद्यालय से हायर सेकेंडरी किया और उसके बाद शासकीय कमला राजा गर्ल्स कॉलेज से ग्रेजुएशन किया।  

पद्मजा जी की माँ भोपाल की हैं, उनकी संगीत में रूचि थी। शादी से पहले उन्होंने थोड़ा बहुत गायन सीखा था लेकिन शादी के बाद जिम्मेदारियों के बोझ तले उसे जारी नहीं रख पायीं। इसलिए उनकी इच्छा थी कि बच्चे संगीत सीखें। इसलिए छोटी उम्र में ही पद्मजा जी और उनके छोटे भाई विनय को पड़ोस में रहने वाली एक संगीत शिक्षिका के पास भेज दिया जहाँ पद्मजा जी सितार सीखतीं और उनके छोटे भाई तबला। साल भर भी नहीं हुआ और संगीत शिक्षिका की शादी हो गयी और वे ससुराल चली गईं। पद्मजा जी और उनके भाई के संगीत सीखने का सिलसिला वहीं थम गया। उनकी माँ ने फिर कोशिश की और वे एक वरिष्ठ संगीत शिक्षिका को ढूंढ लाईं, जिनका नाम था लक्ष्मीबाई गाडगिल। उनकी उम्र लगभग 85 वर्ष थी और लाठी टेककर चलती थीं। बच्चे खुद उन्हें लेकर घर आते थे। वह सख्त किस्म की शिक्षिका थीं और थ्योरी और प्रैक्टिकल दोनों के लिए मेहनत करवाती थीं। सजा देने का उनका तरीका भी अद्भुत था। गलती होने पर या अभ्यास पूरा न करने पर वे कहतीं, खुद को नोचो या चिमटी काटो। इस मामले में पद्मजा जी के छोटे भाई विनय थोड़े सयाने निकले। वे नोचने या चिमटी काटने की एक्टिंग कर बच निकलते जबकि पद्मजा जी के शरीर पर निशान पड़ जाते।

शिक्षकों को ऐसा करना चाहिए या नहीं अगर इस बहस को छोड़ दें तो कहा जा सकता है कि सुर और ताल में पद्मजा जी जिस तरह के ‘परफेक्शन’ का प्रदर्शन करती हैं, उसमें लक्ष्मी बाई गाडगिल के अनुशासन की भी भूमिका है। लेकिन यहाँ भी सीखने सिखाने का सिलसिला ज्यादा दिन नहीं चल सका। लगभग 10 महीने के बाद ही लक्ष्मीबाई गाडगिल बीमार पड़ीं और चल बसीं। उस समय तक पद्मजा जी या उनके भाई के मन में संगीत के क्षेत्र में करियर बनाने जैसी कोई बात नहीं थी। कुछ समय के लिए फिर सितार सीखने का सिलसिला रुक सा गया। हालांकि लक्ष्मीबाई गाडगिल ने एक आधार तैयार कर दिया था लेकिन संगीत निरंतर अभ्यास की विधा है जिसके अभाव में कई चीज़ें वे भूलने लगे। अगली बार पद्मजा जी और उनके भाई का दाखिला महारुद्र मंडल संगीत विद्यालय में करवाया गया, वहां डिप्लोमा कोर्स हुआ करते थे। उस वक़्त किसी को भरोसा नहीं था कि वे कुछ कर पाएंगी लेकिन छः माह के बाद परीक्षा परिणाम देखकर सभी चकित रह गए। वह पहली जगह थी जहां दोनों भाई बहनों ने लगभग 3 साल सीखा। पद्मजा जी वहाँ से सितारविद की उपाधि लेकर लौटीं थीं। इसके बाद एक लंबा अंतराल रहा जिसमें पद्मजा केवल एक योग्य गुरु को तलाश करती रहीं। एक ऐसे व्यक्ति मिले जिनका बड़ा नाम था लेकिन वे हताश और पस्त गुरु थे जो शिष्यों को कुछ सिखाने से ज्यादा अपनी व्यथा कथा सुनाने में रूचि रखते थे। तब तक पद्मजा सितार को न केवल समझने लगीं थी बल्कि किसी अच्छे गुरु से तालीम लेने की इच्छा भी जोर मारने लगी। उन्होंने अपनी माँ से कहा मुझे सीखने के लिए बाहर भेज दो लेकिन वे उन्हें अकेले भेजने को राजी नहीं हुईं। उनका कहना था कि शादी कर लो, उसके बाद अपने हिसाब से सीखना। अकेले सीखने के लिए तो हम तुम्हें जाने नहीं देंगे। ये हैरान करने वाली बात थी। बच्चों को संगीत सीखने के लिए भेजकर वह अपनी अधूरी ख्वाहिश ज़रूर पूरी कर रही थीं, लेकिन जब उनकी बेटी ने संगीत को अपना भविष्य मान लिया तो दुनियादारी के आगे वे हार मान बैठीं। पद्मजा जी के लिए वह तनाव से भरा हुआ समय था। कॉलेज की पढ़ाई भी अब पूरी होने वाली थी। सितार में गुरु नहीं मिले तो कुछ समय सीता राम शर्मा से गायन सीखने की भी कोशिश की। मगर रास्ते का दूसरा छोर हर जगह से बंद ही नज़र आता। आखिरकार उजाले की एक किरण तब नज़र आई जब किसी ने ग्वालियर में ही संगीतकार विनायक राव फड़के के बारे में बताया। गुरु और शिष्या दोनों ने पहले दिन ही एक दूसरे को अपना लिया। वहां सीखने के लिए कोई निश्चित समय नहीं था। पद्मजा सुबह छह बजे पहुँच जाती। घंटों रियाज के बात गुरूजी नाश्ता भी बनाकर खिलाते थे। उन्होंने परिवार नहीं बनाया था इसलिए उनके छात्रों की पहुँच भी रसोई तक थी। फड़के साहब के ही यहाँ राजेन्द्र विश्वरूप भी सितार सीखने आते थे। पद्मजा और राजेंद्र जी दोनों का परिचय वहीं हुआ। एक दूसरे को अच्छी तरह जानने समझने के बाद दोनों के माता-पिता आपस में मिले और 1999 में दोनों की शादी हो गयी।

राजेन्द्र जी के पितामह गणेश शास्त्री विश्वरूप पीढ़ियों से भिण्ड जिले में आलमपुर की उन छतरियों की देखरेख करते रहे, जो होल्कर शासक मल्हारराव की स्मृति में आलमपुर की सुन्दर नक्काशीदार छतरियां बनवाई गईं। ये पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद सन् 1766 की बात है। राजेंद्र जी के पिता पेशे से वकील थे लेकिन गहरे संगीत मर्मज्ञ थे। उनके घर में एक हॉल था जिसमें आए दिन बड़े-बड़े कलाकारों की प्रस्तुतियां अनौपचारिक माहौल में होती थीं। ख़ासतौर पर बाबू कृष्णराव, लक्ष्मण दाजी, जलाल भट, पं. केशव राव सुरंगे जैसे संगीतज्ञों की महफ़िल से घर गुलजार रहता था। राजेंद्र जी के बड़े भाई खैरागढ़ विश्वविद्यालय में वायलिन के प्रोफ़ेसर थे और भाभी गायन की प्रोफ़ेसर थीं। पद्मजा विवाह से पहले घर में भावना के नाम से पुकारी जाती थीं। चूंकि महाराष्ट्रीय संस्कृति में विवाह के बाद नया नामकरण परम्परा में है तो भावना को भी नया नाम मिला - पद्मजा। शादी के बाद उनके सभी अवरोध अपने आप ख़त्म हो गए और पद्मजा जी वहां पहुंच गईं,जहां उन्हें वास्तव में होना चाहिए था। लेकिन शादी के कुछ महीनों बाद ही उनके गुरु विनायक राव फड़के साहब का देहांत हो गया। हालांकि आगे का रास्ता बंद नहीं हुआ, बल्कि अपने आप दरवाज़े बनते चले गए। उन्हीं दिनों की बात है, मप्र सरकार के संस्कृति विभाग ने दुर्लभ वाद्य के लिए स्कॉलरशिप की जारी की, जिसके लिए राजेंद्र जी ने आवेदन कर दिया। इसके लिए बनी समिति में लतीफ़ खां, किरण देशपांडे, ओमप्रकाश चौरसिया और उस्ताद जिया फ़रुद्दीन डागर जैसे दिग्गज मौजूद थे। सुर बहार पर राजेंद्र जी की प्रस्तुति सभी को पसंद आई और वे स्कालरशिप के लिए चुन लिये गए। राजेंद्र जी को उस्तादजी (डागर साहब) से सीखने की धुन थी। वे किसी को सिखाने के लिए राजी हो जाएं, वह भी बहुत बड़ी बात थी। अपने शिष्यों की कई तरह से वे पड़ताल करते थे जैसे-बात करने का सलीका, उठने-बैठने, हँसने-बोलने जैसी हर बात पर उनकी नज़र रहती थी और अपने हिसाब से शागिर्द के रूप में किसी को कबूल करते या ख़ारिज करते थे। खुशकिस्मती से राजेन्द्र जी को सिखाने के लिए उस्ताद राजी हो गए। हैरानी की बात यह है कि डागर साहब से सीखने वाले इकलौते शागिर्द राजेंद्र जी ही थे। उनके साथ पद्मजा भी जातीं।  

उसी समय की बात है, प्रसिद्ध वीणा वादक दिल्ली के गोपाल कृष्ण शर्मा का निधन हो गया। इस खबर से उस्ताद जी बहुत दुखी हुए। उन्होंने एक दिन कहा, “अब तो कोई वीणा वादन करने वाला बचा ही नहीं।” फिर पद्मजा की ओर देखकर बोले, तुम वीणा सीखोगी? पद्मजा जी को जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गयी। उन्होंने फ़ौरन हामी भर दी। उल्लेखनीय है कि वीणा बनी बनाई नहीं मिलती। पद्मजा जी और राजेन्द्र जी इसके लिए बनारस गए और लगभग साल भर बाद वह तैयार हुई क्योंकि उसका कुछ हिस्सा बनारस में, तो कुछ हिस्सा कलकत्ते में बनता था। इस तरह सितार से शुरू हुई संगीत यात्रा वीणा की ओर मुड़ गयी। उस्ताद जी से सीखने अब तक राजेन्द्र जी और पद्मजा जी उनके बुलाने पर ग्वालियर से भोपाल आते थे। लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि दोनों को भोपाल आकर रहना पड़ा। दरअसल कुछ समय बाद दुर्लभ वाद्य के लिए दी जाने वाली स्कॉलरशिप हो गई, उसकी जगह अब ध्रुपद गायन के लिए प्रविष्टि आमंत्रित की गई थी। उस्तादजी के सुझाव पर पद्मजा जी और राजेंद्र  जी - दोनों ने आवेदन कर दिया और दोनों ही चुन लिए गए। उस समय 7 सौ रुपये महीना वजीफे के तौर पर मिलते थे। बड़ी ही रोचक परिस्थिति थी वह जिसमें दोनों को ध्रुपद सीखने के अलावा एक को सुरबहार और एक को वीणा का अभ्यास करना था। हालाँकि औपचारिक रूप से राजेंद्र जी सुरबहार स्कॉलरशिप की अवधि में पूरी कर चुके थे। पति-पत्नी भोपाल के लालघाटी इलाके में एक कमरा लेकर रहने लगे। दोनों को स्कॉलरशिप में 7-7 सौ रुपये मिलते, जिसमें 7 सौ कमरे का किराया देने के बाद बाकी बचे हुए 7 सौ में गुजरा करना था। हालांकि राजेन्द्र जी के पिता आर्थिक रूप से संपन्न थे लेकिन यह उस्ताद जी का हुक्म था कि घरवालों से पैसे नहीं लोगे और जितना मिल रहा है उसी में गुजारा करते हुए सीखोगे। पद्मजा बताती हैं कि “उस्तादजी का मानना था सुख सुविधा से जीने वाले संगीत की कठोर साधना नहीं कर सकते।”

उस्ताद जी से सीखने का अनुभव भी अलहदा ही था। वे कहते अब तक जो सीखा भूल जाओ और नए सिरे से शुरुआत करो। ध्रुपद और वीणा दोनों की तालीम देने वाले उस्ताद जी ही थे। गायन में थोड़ी बहुत ख़याल गायकी से परिचय था पद्मजा जी का, लेकिन ध्रुपद बिलकुल अलग सी विधा है। उसी तरह सितार और वीणा दोनों ही तंतु वाद्य हैं लेकिन दोनों को बरतने का तरीका अलग-अलग है। पुराने को भूलना, नए को सीखना और उसे मांजना कई-कई घंटों के अभ्यास से ही संभव हो पाया। सूर्योदय से पहले ही विचित्रवीणा के दो बड़े से तुम्बे कपड़े के खोल में लपेटकर पद्मजा अपने घर से पैदल पैदल ध्रुपद केन्द्र पहुंच जाती थीं। गायन वाले छात्र षडज का और वाद्य वाले छात्र मूर्छना का अभ्यास करते। 2004 में स्कॉलरशिप की अवधि पूरी हो गई, लेकिन उस्तादजी से सीखना जारी रहा। वर्ष 2007 में पहली बार बनारस में आयोजित ध्रुपद समारोह में पद्मजा जी ने मंच अपनी प्रस्तुति दी। उसके बाद से यह सिलसिला आज तक जारी है।

पद्मजा जी की उपलब्धयों की सूची बहुत लम्बी है। उन्होंने रियाज़ और प्रस्तुतियों से समय निकालकर खैरागढ़ विश्वविद्यालय से सितार विषय लेकर स्नातकोत्तर किया, इसके अलावा यूजीसी-नेट की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। इन दिनों वे ग्वालियर के माधव कॉलेज में संगीत की प्राध्यापिका हैं। इसके अलावा आकाशवाणी से वे जुड़ी हुई हैं। अपने कुछ प्रतिभाशाली छात्रों से उन्हें काफी उम्मीदें हैं। पद्मजा जी की माँ ने हालाँकि सभी भाई -बहनों को संगीत सीखने के लिए उत्प्रेरित किया लेकिन उसकी साधिका पद्मजा जी ही बन पाईं। अब तक वे देश के लगभग सभी प्रमुख संगीत समारोहों में अपनी प्रस्तुतियां दे चुकी हैं। पद्मजा जी एक बेटे की माँ हैं जो अभी मात्र 7 साल का है। उसका जन्म 2016 में हुआ, जिसके बाद कुछ वर्षों के लिए एक संगीत यात्रा में एक ठहराव ज़रुर आ गया था लेकिन अब जीवन का गति और लय दोनों ही संतुलित है।

उपलब्धियां

• संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली द्वारा निर्मित वृत्त चित्र ‘वीणा’ में विचित्र वीणा का वादन

• ईस्ट एंटरटेनमेंट इंक, टोक्यो, जापान द्वारा निर्मित वृत्तचित्र ‘एशियन म्यूजिक’ में विचित्र वीणा वादन

• सर-ओ-डुओ ग्रुप ( SER-O-DUO Group)   थॉमस कार्रस्को(बांसुरी) और मोआ एड्म्नर्ड्स (गिटार) के निर्देशन में निर्मित वृत्त चित्र ‘ध्रुपद स्टाइल ऑफ़ म्यूजिक’ में विचित्र वीणा वादन

पुरस्कार एवं सम्मान

• वर्ष 1996 में 'अंतर्राष्ट्रीय युवा महोत्सव‘ जयपुर में प्रथम पुरस्कार

• महाराज बनारस न्यास, वाराणसी, उप्र द्वारा आयोजित अखिल भारतीय ध्रुपद समारोह-2007 में स्वर्ण पदक से सम्मानित

• श्री भागवत मिशन ट्रस्ट, श्रीधाम, वृन्दावन(उप्र) द्वारा संगीत कला रत्ना सम्मान-2012

• बुंदेलखंड कला संस्थान, भोपाल (मप्र) द्वारा प्रतिभा सम्मान-2013

• 94.3 माय रेडियो एफ एम, भोपाल द्वारा ‘म्यूजिकल अवार्ड'-2014)

• महाराज बनारस ट्रस्ट, वाराणसी(उप्र) द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय ध्रुपद समारोह-2015 में स्वाति तिरुनल सम्मान-2014

• मधुबन चैरिटेबल ट्रस्ट, मुंबई द्वारा मधुवन रत्न पुरस्कार 2019

सन्दर्भ स्रोत : पद्मजा विश्वरूप से सारिका ठाकुर और जयंत सिंह तोमर की बातचीत पर आधारित

©  मीडियाटिक 

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