छाया : डेग वर्ल्ड
• राकेश दीक्षित
पिछली सदी के तीसरे और चौथे दशक में इंदौर रुपंकर कलाओं के लिए देश भर में प्रसिद्ध था। महाराजा यशवंत राव होल्कर स्वयं बड़े कला पारखी और संरक्षक थे। उन दिनों जर्मन वास्तुकार एक्कार्ट मुथेसियस वास्तुकला और मूर्तिकार कोंस्तांतिन ब्रान्कुसी मूर्तिकला में सौंदर्य बोध को नया रूप देने में लगे थे। महान चित्रकार डी डी देवलालीकर जैसे गुरु की देखरेख में अनेक युवा चित्रकारों ने आधुनिक चित्रकला में साहसिक प्रयोग कर राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय फलक पर नाम कमाया। मक़बूल फ़िदा हुसैन उनमें सबसे बड़ा नाम है। एक और चित्रकार जिसने इंदौर कला घराने का नाम रोशन किया, उसका नाम है देवयानी कृष्णा। हुसैन की तरह देवयानी ने भी इंदौर में कलागुरु देवलालीकर से आरम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद बम्बई ( मुंबई) के जे.जे.स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में अपना हुनर मांजा।
8 जुलाई, 1918 में इंदौर में जन्मी देवयानी ने बौद्ध चित्रकला के विविध और चित्ताकर्षक पक्षों पर अपनी कूची चलाकर उनमें अन्तर्निहित आध्यात्मिकता को नया आयाम दिया। देवयानी की चाक्षुष कला में अभिरुचि बचपन से ही जागृत हो गई थी। अठारह वर्ष की उम्र में उन्होंने जे.जे.स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में दाख़िला लिया। यहाँ वे 1941 तक रहीं और फिर इंदौर स्कूल से म्यूरल आर्ट पर स्नातकोत्तर किया। वहां से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने छापा कला (प्रिंटिंग) और चित्रकला में काम तो किया लेकिन उनका मन कुछ बिलकुल अभिनव करने के लिए बेचैन था। यही बेचैनी उन्हें हिमालय ले गई। साथ में चित्रकार कँवल कृष्णा थे जो उनके जीवन साथी भी थे। उन्होंने 1942 में विवाह किया था। दोनों ने वर्ष 1949 से 1952 तक तिब्बत में घूम-घूम कर बौद्ध कला से जीवंत साक्षात्कार किया। वे सिक्किम और पूर्वोत्तर के राज्यों में भी घूमे। देवयानी ने तिब्बती मुखौटों, तिब्बती कर्मकांडों और बुद्धिस्ट कला के अन्य पहलुओं को कैनवास पर उकेरा। ग़ौरतलब है कि उस वक़्त तिब्बत अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था। चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया था। तिब्बत की समृद्ध आध्यात्मिक ,पौराणिक परंपरा को दुनिया के सामने रखकर देवयानी ने संकट ग्रस्त तिब्बतियों के प्रतिरोध में सांस्कृतिक योगदान दिया।
इन्हें भी पढ़िये –
शकीला बानो भोपाली-दुनिया की पहली महिला कव्वाल
अपनी साहसिक यायावरी को विराम देकर देवयानी ने थमकर चित्रकारी करने का फैसला लिया। वर्ष 1956 में वे दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में कला शिक्षक बन गईं। यहीं से देवयानी 1977 में कला विभाग की प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुईं। वर्ष 1968 में उन्हें सरकार ने सांस्कृतिक विनिमय कार्यक्रम के तहत रोमानिया, हंगरी,चेकोस्लोवाकिया, नॉर्वे,स्वीडेन और डेनमार्क की यात्रा का अवसर प्रदान किया।
देवयानी कृष्णा मूल रूप से चित्रकार और प्रिंट मेकर थीं। लेकिन उन्होंने भारतीय लोककला के मूल रूपों (मोटिफ ), खिलौनों और बाटिक के अनुसंधान में भी महत्वपूर्ण काम किया है। उन्होंने अरेबिक शब्दमाला में अल्लाह के नाम की एक कैलीग्राफिक प्रिंट श्रृंखला भी तैयार की है। इस अद्भुत प्रयोग को कला जगत में काफी सराहा गया। विभिन्न धर्मों के पवित्र प्रतीकों और चिन्हों की उनकी कलाकृतियों में भरपूर उपस्थिति है, माध्यम चाहे जो भी हो –चित्रकला अथवा छापा। अपनी कला अवधारणा में वे सार्वभौमिकता का सन्देश देती हैं। वो चाहे धर्म में प्रतिबिंबित हो या परिवार में। चित्रकला में उनकी दो और श्रृंखलाएं प्रसिद्ध हैं। इनके नाम हैं -“बम बम भोले” और “व्हाट एंड
वेयर।”
इन्हें भी पढ़िये –
भारत की पहली अंतरराज्यीय ट्रक ड्राइवर योगिता रघुवंशी
देवयानी के चित्रों की पहली एकल प्रदर्शनी 1941 में कलकत्ता में लगी। अगले वर्ष बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में देवयानी और कँवल कृष्णा की संयुक्त प्रदर्शनी आयोजित हुई। वर्ष 1946 में पेरिस में यूनेस्को के तत्वाधान में उन्हें अपनी कला दिखाने का मौका मिला। बाद के वर्षों में उनकी कलाकृतियां दुनिया के अनेक देशों में प्रदर्शित हुईं। देश के भीतर नई दिल्ली में उनकी प्रदर्शनियां अन्तराल के साथ 1975 तक लगती रहीं। देश -विदेश के अनेक प्रसिद्ध कलाघरों में देवयानी की कृतियां हैं। इनमें उल्लेखनीय हैं- बेन एंड अब्बे ग्रे फ़ाउंडेशन, अमेरिका, बॉटैनिकल म्यूजियम, लंदन, पंजाब म्यूजियम,चंडीगढ़, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, जीडीआर फ़ाउंडेशन, न्यूयॉर्क, भारत भवन,भोपाल, स्मिथसोनियन इंस्टिट्यूट, वाशिंगटन।
इन्हें भी पढ़िये –
रुपहले पर्दे पर प्रदेश की पहली अदाकारा वनमाला
साहित्य परिषद ने देवयानी को 1989 में उनके चित्रकला में योगदान के लिए सम्मानित किया। वर्ष 1999 से 2001 तक वे केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय में एमेरिटस फेलो रहीं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
© मीडियाटिक
Comments
Leave A reply
Your email address will not be published. Required fields are marked *