छाया : ईटीवी न्यूज
लोक कलाकार
• सारिका ठाकुर
हमारे आसपास ऐसे कई लोग होते हैं जो कभी खुद से यह पूछ नहीं पाते कि उन्हें अपनी ज़िन्दगी में क्या बनना है या क्या करना है। उनके सामने चुनौतियां ही कुछ ऐसी होती हैं जो उन्हें यह सब सोचने की मोहलत ही नहीं देतीं। आदिवासी चित्रकार जोधइया बाई भी ऐसी ही एक कहानी की मुख्य किरदार रहीं । सरकारी नौकरी में जिस उम्र में लोग अपने जीवन की दूसरी पारी की शुरुआत करते हैं या आराम करने की सोचते हैं, उस उम्र में जोधईया बाई ने रंग और कूची संभाली और 80 की उम्र में पद्मश्री भी हासिल कर लिया। ये कहानी किसी परीकथा जैसी लग सकती है, लेकिन हक़ीक़त तो ये है कि उनकी जद्दोजहद अभी भी जारी है।
बैगा समुदाय से ताल्लुक रखने वाली जोधइया बाई जन्म उमरिया जिले के लोरहा गांव में हुआ। उनकी मां का नाम स्व. भूरी बाई और पिता का नाम स्व. टंकारिया बैगा है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइटों पर उनके अलग-अलग जन्म दिनांक दर्ज हैं लेकिन उन्हें खुद अपने जन्म की तारीख के बारे में पता नहीं है। वे छः महीने की ही थीं जब उनकी माँ गुजर गयीं और साल भर होते-होते पिता भी चल बसे। दो बहन और तीन भाइयों में वे सबसे छोटी थीं। माता-पिता के निधन के बाद बड़े भाईयों ने उनकी देखभाल की। 10-12 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई।
वे लकड़ी और गोबर बेचकर गुजरा करती थीं जबकि उनके पति स्व. मैकू एक मजदूर थे। बचपन से लेकर 60 वर्ष की उम्र तक उनके जीवन के सुख-दुख एक सामान्य आदिवासी परिवार की महिलाओं जैसे ही रहे। न उन्होंने कभी पढ़ने के बारे में सोचा, न कभी वह अवसर आया। ज़ाहिर है कि वे कभी स्कूल नहीं गईं और चित्रकार बनने जैसी बात उनकी कल्पना से तब तक कोसों दूर थी। त्योहारों या किसी ख़ास मौके पर गोबर और मिट्टी से घर की दीवारों पर पारंपरिक चित्र जरुर बनाती थीं।
मुसीबतों का पहाड़ तब टूटा जब उनके पति उन्हें छोड़कर चल बसे। छोटे-छोटे बच्चों की देखभाल और उनके पालन पोषण की जिम्मेदारी पूरी तरह जोधइया बाई के कन्धों पर आ गई। इस मुश्किल दौर का सामना भी वह स्वाभाविक रूप से ही कर रही थीं क्योंकि ऐसे हालात से जूझने वाली अपने समुदाय की वह पहली महिला तो नहीं थीं। उस समय दिन भर की मजूरी के तौर पर उन्हें 50 पैसे मिलते थे। तब तक उस इलाके में सरकारी स्कूल भी नहीं बने थे, इसलिए बच्चों को पढ़ाने के बारे में सोचना भी बेमानी था। दोनों बेटे माँ का हाथ बंटाने के लिए कम उम्र में ही मजदूरी करने लगे।
जनजातीय समाज की चुनौतियां न तो अखबार पढ़कर समझ आ सकती हैं न वृत्तचित्र बनाने वाली कैमरों से पूरी तरह दर्शायी जा सकती हैं। इस समुदाय में छिपी हुई प्रतिभाओं के बारे में भी तभी पता चलता है जब हीरे की परख रखने वाले जौहरी की तरह चित्रकार श्री आशीष स्वामी जैसे लोगों की नज़र इन पर पड़ती है। ऐसे लोग जमीन की गहराइयों में दबे खजाने की तरह समाज के सबसे ज़्यादा उपेक्षित हिस्से में छिपी हुई प्रतिभाओं को ढूंढ निकालते हैं और उन्हें तराश कर दुनिया से रुबरु करवाते हैं।
जोधइया बाई को भी कलागुरु श्री स्वामी ने इसी तरह खोज निकाला। हालाँकि तब तक उनके दोनों बेटे बड़े हो चुके थे और वे खुद मजदूरी करते हुए थकने लगीं थीं। वर्ष 2008 की बात है। जोधइया बाई अंदाज़ से अपनी उम्र 60 साल बताती हैं जब आशीष स्वामी से उनकी मुलाकात हुई थी। उन्हीं के कहने पर जोधइया बाई ने मजदूरी छोड़ दी और चित्रकारी करने लगीं। उन्होंने जोधइया बाई का परिचय रंगों और कूची से करवाया।
आशीष जी प्रथम राष्ट्रीय कालिदास पुरस्कार प्राप्त चित्रकार के.पी सुब्रमण्यम के शिष्य होने के अलावा शांति निकेतन के विद्यार्थी भी रह चुके थे। उन्होंने लोरहा गाँव में एक स्टूडियो की स्थापना की और उसका नाम प्रसिद्ध बैगा चित्रकार जनगढ़ श्याम के नाम पर ‘जनगढ़ तस्वीरखाना’ रखा। 2020 में आशीष जी कोरोना की वैश्विक महामारी का ग्रास बन गए, लेकिन तब तक वे दुनिया का परिचय कई बेहतरीन कलाकारों से करवाकर चुके थे। जोधइया बाई उनमें से एक हैं।
आशीष स्वामी विलुप्त होती लोककला को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे थे। इसलिए जोधइया बाई को भी उन्होंने बैगा चित्रकला का ही अभ्यास करवाया। सीखने के मामले में 60 की उम्र में भी वे किसी से कम नहीं थीं। कुछ ही सालों में आशीष जी की कोशिशों से उनके चित्र राज्य स्तर, राष्ट्रीय स्तर और फिर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक की कला दीर्घाओं में नज़र आने लगीं। तस्वीरखाना से जुड़ने के महज कुछ ही वर्ष बाद कला की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए उन्होंने पहला कदम रख दिया और इसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वर्ष 2023 में जब उनका चयन पद्मश्री के लिए हुआ तो अनजाना सा लोरहा गाँव भी सुर्ख़ियों में छा गया। अख़बार और टीवी चैनलों के पत्रकार उनका साक्षात्कार करते, उनके बारे में लिखते और तारीफ़ों के पुल बांधते लेकिन अपने कला कौशल के लिए दुनिया भर में सराही गई इस गरीब आदिवासी महिला की मुश्किलों के बारे में बहुत कम लोग जानते थे।
जोधइया बाई के दो बेटे और एक बेटी है। बेटी की शादी हो गई और वह अपने परिवार के साथ रहती है। 15 दिसम्बर 2024 को 86 साल की उम्र में उनका निधन हो गया।
स्व. आशीष स्वामी के गुजर जाने के बाद तस्वीरखाने का संचालन उनके भतीजे श्री निमिष स्वामी कर रहे हैं।
उपलब्धियां
• वर्ष 2014 : मानव संग्रहालय, भोपाल में आयोजित कार्यशाला में सहभागिता
• वर्ष 2015 : भारत भवन, भोपाल में आयोजित कार्यशाला में सहभागिता
• वर्ष 2016 : उमरिया जिले में आयोजित विंध्य मैकल उत्सव में सम्मानित
• वर्ष 2017 : इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल द्वारा केरल में आयोजित कार्यशाला में सहभागिता
• वर्ष 2018 : शांति निकेतन, पश्चिम बंगाल में चित्रों की प्रदर्शनी
• वर्ष 2019 : मिलान ( इटली ) में आयोजित कला दीर्घा में चित्र प्रदर्शित
• वर्ष 2020 : आईएमए फाउंडेशन, लन्दन द्वारा बिहार संग्रहालय, पटना की कला दीर्घा में सहभागिता और सम्मान
• वर्ष 2020 : आलियांज़ फ्रेंकाईज़, भोपाल की कला दीर्घा में सहभागिता
• वर्ष 2022 : तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा महिला दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय मातृशक्ति पुरस्कार
• वर्ष 2023 : पद्मश्री पुरस्कार
• फ़्रांस, इंग्लैण्ड, जापान की कला दीर्घाओं में चित्र प्रदर्शित एवं प्रशंसित
• भोपाल स्थित मप्र जनजाति संग्रहालय में जोधैया बाई के नाम से एक स्थायी दीवार बनी हुई है जिस पर उनके हाथों से बने पारंपरिक चित्र अंकित हैं
सन्दर्भ स्रोत: जनगण तस्वीरखाना के संस्थापक श्री आशीष स्वामी (निधन से पूर्व) ,जोधइया बाई (निधन से पूर्व),और उनके पोते अमर बैगा से बातचीत के अलावा कुछ इनपुट विभिन्न बेबसाईटों से
संपादन : मीडियाटिक डेस्क
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