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फ़िल्म संगीत की दुनिया इस कदर पुरुष प्रधान है कि बीते नौ दशकों में कुल 10 महिला संगीत निर्देशक भी नहीं हो सकी हैं। सरस्वती देवी, जद्दन बाई और उषा खन्ना के बाद लंबे समय तक एक शून्य रहा और अब भी स्नेहा खानवलकर जैसे नाम अपवाद की तरह ही मिलते हैं। उषा खन्ना भी इस पितृ सत्तात्मक प्रवृत्ति के चलते बेहद कर्णप्रिय संगीत देने के बावजूद वो मुकाम हासिल न कर सकीं, जिसकी वे वास्तव में हक़दार थीं। लता मंगेशकर, मुकेश, किशोर कुमार या आशा भोंसले जैसे गायकों ने उनके संगीत निर्देशन में बेहतरीन नग़मे गाए हैं, पर ऊषा जी को बड़े बैनर्स की फिल्में नहीं मिलीं और इसी के चलते उनकी कामयाबी, दूसरों के मुक़ाबले कम नज़र आती है।
उषा खन्ना (Usha Khanna) का संगीतकार बनना इत्तेफ़ाक था। वे तो गायक बनना चाहती थीं, उनके पिता के जोड़ीदार के बेटे इंदीवर (indivar) ने उन्हें संगीत निर्देशक बनने की सलाह दी। बहुत कम लोग गीतकार जावेद-अनवर (javed-anwar) की जोड़ी को जानते होंगे। जावेद, उषा के पिता मनोहर खन्ना थे और अनवर इंदीवर के वालिद थे। फ़िल्मों के शौक ने मनोहर साहब से अच्छी ख़ासी नौकरी छुड़वा दी। वे तो ज़्यादा कामयाब न हुए, पर उनकी बिटिया, यानी उषा खन्ना ने ज़रूर सफलता देखी। एक दिन इंदीवर उन्हें फ़िल्म ‘दिल दे के देखो’ के निर्माता शशधर मुखर्जी के पास ले गए। ओपी नैयर से उन दिनों मुखर्जी साहब की अनबन चल रही थी। उन्होंने उषा खन्ना का नैय्यर शैली की धुनें सुनीं तो ख़ुशी-ख़ुशी उन्हें काम दे दिया और उनकी गाड़ी चल पड़ी।
हालाँकि विकिपीडिया के मुताबिक उषा खन्ना को शशधर मुखर्जी से ओ पी नैय्यर ने मिलवाया था। उन्होंने मुखर्जी के लिए एक गीत गाया, और जब मुखर्जी ने महसूस किया कि उषा जी ने अपने दम पर इस गीत की रचना की है, तो उन्होंने उन्हें एक वर्ष के लिए प्रतिदिन दो गीतों की रचना करने के लिए कहा। कुछ महीनों के बाद, मुखर्जी ने अपनी फिल्म दिल देके देखो (1959) के संगीतकार के रूप में उन्हें पहला काम दिया। इस फिल्म से अभिनेत्री आशा पारेख की भी शुरुआत हुई और फिल्म एक बड़ी हिट बनी। शशधर मुखर्जी ने आशा पारेख अभिनीत एक और फिल्म हम हिन्दुस्तानी (1960) के लिए संगीत रचने का अवसर उषा जी को दिया।
लेकिन नैय्यर शैली का संगीत, उषा खन्ना का असली संगीत नहीं था। उनकी पहचान बनी फ़िल्म, ‘आओ प्यार करें’(1960) के गानों से। लता जी का गया हुआ एकल गीत- ‘एक सुनहरी शाम थी, बहकी बहकी ज़िन्दगी…’ लोगों ने खूब पसंद किया। आगे चलकर उषा जी ने बड़ी ही सौम्य धुनें बनाईं। न कहीं भावनाओं का अतिरेक था, न कहीं साजों का। उनका संगीत तारतम्यता का बोध लिए लफ़्ज़ों के ऊपर चलता है, अतिरंजना से बचते हुए और 50 से 60 के दशकों में आये पश्चिमी वाद्यों का माधुर्य लिये बजता है। अरबी शैली के संगीत में उन्हें ख़ासी सफलता मिली. मिसाल के तौर मोहम्मद रफ़ी का गया गाना, ‘ये तेरी सादगी ये तेरा बांकपन’ और ‘मैंने रखा है मुहब्बत तेरे अफ़साने का नाम’ लोगों ने खूब पसंद किये. वैसे कई बार उनके साथ ऐसा भी हुआ कि कई गाने तो बेहतरीन बने पर हिट नहीं हुए.
1960 से लेकर 1970 वाले दौर में उषा खन्ना अपने उरूज़ पर थीं। यहां वे कल्याण जी-आनंद जी, जयदेव, लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल और रॉबिन बनर्जी जैसों के साथ कदम ताल कर रहीं थीं। रॉबिन बनर्जी से उन्होंने गायन सीखा था और अब वे उनसे मुकाबिल हो रही थीं, तो दूसरी तरफ़ उनके म्यूजिक अरेंजर लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल उनसे आगे निकल गए। फिर पंचम दा यानि राहुल देव बर्मन जैसे धुरंधर की आंधी में उनके कदम डगमगाए, लेकिन उन्होंने अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी। इस दौर में भी उन्होंने अच्छे गाने कंपोज़ किये। मुकेश तो खैर उनके पसंदीदा गायक थे ही, पर उनके अलावा किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी और महेंद्र कपूर से भी उन्होंने खूब गवाया। सुमन कल्याणपुर के साथ भी उनकी जोड़ी अच्छी जमी। दोनों की जुगलबंदी ‘वो जिधर देख रहे हैं, हम उधर देख रहे हैं’ में नज़र आती है।
उषा खन्ना ने निर्माता-निर्देशक सावन कुमार से शादी की। सावन कुमार की पहली ही फ़िल्म ‘हवस’ (1974) का संगीत काफी हिट हुआ था. उसका एक गाना था ‘तेरी गलियों में न रखेंगे कदम आज के बाद’ आज भी कई लोगों का सबसे पसंदीदा गीत है। इस दौर में भी जब गीतों से माधुर्य गायब होता जा रहा था, उषा जी उसका दामन थामे हुए चल रही थीं। ‘दादा’ (1978) के गीतों-जिनमें प्रमुख था ‘दिल के टुकड़े-टुकड़े मुस्कुरा के चल दिए’ ने उनके कदम दोबारा जमा दिए थे। इस गीत के लिए उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। इसके बाद तो उन्हें एक के बाद एक कई फ़िल्में मिलीं- ‘साजन बिना सुहागन’, ‘भयानक’, ‘बिन फेरे हम तेरे’ जैसी फ़िल्मों का संगीत काफी लोकप्रिय हुआ बड़े बैनर्स अभी भी उनके पास नहीं आए।
1980 के आसपास उनकी शादी टूट गई। यह विडंबना ही थी कि सावन कुमार ने ‘सौतन’ फ़िल्म का संगीत उषा जी सही करवाया था और उस फ़िल्म के लगभग सारे गाने हिट हुए थे। लेकिन इस दौर में अब उषा खन्ना पिछड़ती जा रही थीं। लोगों की पसंद बदल गई थी। गीतों में शब्दों का कोई खास अर्थ नहीं रह गया था और संगीत से मधुरता तो लगभग ख़त्म ही गई थी। उषा जी ने वापसी की भरपूर कोशिश की जो कामयाब नहीं हुई। बड़े बैनर्स नहीं थे, छोटे बजट की फ़िल्में अक्सर कम चलती और उनका संगीत उनसे से भी कम। धीरे-धीरे उषा खन्ना गुमनामी के गर्त में खोती चली गईं। उनके संगीत निर्देशन में आख़िरी फिल्म ‘दिल परदेसी हो गया’ (2003) थी, जिसका निर्माण और निर्देशन उनके पूर्व पति सावन कुमार ने किया था।
7 अक्टूबर 1941 को ग्वालियर में जन्मीं उषा जी ने हिन्दी के कुछ टीवी धारावाहिकों के लिए भी संगीत दिया है। महाराष्ट्र सरकार ने 2019-2020 के लिए उन्हें ‘लता मंगेशकर पुरस्कार’ से सम्मानित किया।
संदर्भ स्रोत : सत्याग्रह डॉट कॉम (सम्पादित) तथा विकिपीडिया
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