छाया : मधु की डायरी
• उस दौर की सबसे सुंदर महिलाओं में शुमार थीं गन्ना बेग़म।
• अनेक शाही घरानों से आए शादी के प्रस्ताव।
• कहा जाता है जब गन्ना पान की गिलौरी निगलती तो उसके गले से नीचे उतरती लालिमा साफ नजर आती थी।
• शुजाउद्दौला के चंगुल से भाग कर सिख वेश में महादजी के लश्कर में हुई शामिल। उसकी काबिलियत देख महादजी ने उसका नाम रखा गुनी सिंह।
• शिहाबुद्दीन से अपनी अस्मिता की रक्षा करने पीया ज़हर।
गन्ना एक रूपवती और गुणवान युवती थी, उसके पिता अब्दुल कुली ख़ान ईरान के शाही परिवार से ताल्लुक रखते थे। 17वीं शताब्दी में वे अवध प्रान्त के प्रभावशाली जमींदार थे। उनकी पत्नी सुरैया एक नामी नृत्यांगना और गायिका थी। अपनी बेटी को भी उन्होंने नृत्य और संगीत की बख़ूबी तालीम दी थी। कहा जाता है कि गन्ना की त्वचा इतनी गोरी और नाज़ुक थी कि जब वह पान खाती थी तो गुलाबीपन उसके गले की नसों से झलकने लगता था। उसके इस रूप और गुणों पर बादशाह मोहम्मद शाह फ़िदा हो गया था।
अब्दुल कुली का एक घर दिल्ली में भी था, उनके गुज़र जाने पर सुरैया और गन्ना दोनों अवध से दिल्ली चले आए। गन्ना जैसे – जैसे बड़ी होती चली गई, उसके रूप में और निखार आता चला गया। अनेक शाही घरानों से उसके लिए शादी के प्रस्ताव आने लगे लेकिन साथ ही कुछ बिगड़ैल राजकुमारों और कुछ भले लोगों की नज़र भी उस पर पड़ने लगी। इसी समय औरंगज़ेब की मौत के कारण दिल्ली में अराजकता फैलने लगी, दिल्ली के तख़्त पर कई राजे – राजकुमार दावा करने लगे। हिंदुस्तान के दूसरे सूबों में भी मुग़लिया सल्तनत की जड़ें हिलने लगीं थीं।
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इसी के साथ गन्ना का दुर्भाग्य उसके पीछे लग गया। भरतपुर के जाट राजा सूरजमल के बेटे जवाहर सिंह से उसे पहली नज़र में प्यार हो गया। जवाहर जब उसे साथ लेकर आ रहा था, तब पीली पोखर के पास सूरजमल ने उन्हें रोका और गन्ना को अपनी बहू बनाने से इंकार कर दिया। इस बात को लेकर पिता – पुत्र के बीच युद्ध हुआ और जवाहर सिंह एक टांग गंवा बैठा। उसे बंदी बना लिया गया। गन्ना को अपनी माँ के पास लौटना पड़ा। इस वक़्त हैदराबाद के निज़ाम ग़ाज़ीउद्दीन के बेटा शिहाबुद्दीन दिल्ली सल्तनत में मीर बख़्शी के पद पर आसीन था। वह एक शातिर दिमाग आदमी था जिसने सल्तनत के उसी वज़ीर सफ़दर जंग को हवालात में पहुंचा दिया था, जिसने मोहम्मद शाह रंगीला के बेटे सुल्तान अहमद शाह से उसे मिलवाया था और मीर बख़्शी बनने में मदद की थी। शिहा ने सुल्तान को सफ़दर की जगह खुद को मंत्री बनाने के लिए राज़ी कर लिया।
शिहाबुद्दीन की भी नज़र गन्ना बेगम पर थी। वह उसे ज़बरदस्ती अपने हरम में ले आया, लेकिन गन्ना ने उसे कभी पसंद नहीं किया। वह अब भी जवाहर सिंह को चाहती थी। दूसरी तरफ अपने पति की मौत के बाद पंजाब की रानी बनी बैठी मुग़लानी बेग़म ने ग़ाज़ीउद्दीन की सहमति से अपनी बेटी उमदा और शिहा की सगाई उनके बचपन में ही कर दी थी। मुग़लानी बेगम नैतिक और सामाजिक पाबंदियों को नहीं मानती थी और किसी भी तरह दौलत इकठ्ठा करने में भरोसा रखती थी।ग़ाज़ी की मौत के बाद शिहा ने एक तरफ़ तो मुग़लानी बेगम की बदनामी का हवाला देकर उमदा से शादी करने से इंकार कर दिया, दूसरी तरफ़ उसने मुग़लानी की दौलत हड़पने की भी कोशिश की जिसमें वह कुछ हद तक कामयाब भी रहा।
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सन 1761 में अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली पर हमला कर भारी ख़ून-ख़राबा किया और लूटपाट मचाई। लेकिन मुग़लानी बेग़म के प्रभाव में आकर उसने शिहाबुद्दीन को न केवल छोड़ दिया बल्कि लुटी -पिटी दिल्ली को भी उसके हवाले कर दिया। ऐसा इस शर्त पर हुआ कि शिहा, उमदा से शादी करेगा और गन्ना, उमदा की दासी बनकर रहेगी। शिहा, अहमद शाह से इतना डरा हुआ था कि उसने तुरंत यह शर्त मान ली। उधर गन्ना अपनी नियति के हाथों मजबूर थी लेकिन उसका दिल अभी भी जवाहर के लिए धड़कता था। एक दिन उसे पता चला कि शिहा, जवाहर को मार डालने की योजना बना रहा है। उमदा की मदद से वह भाग निकली और जवाहर से मिलकर उसकी जान बचाने में सफल रही।
जवाहर भी उससे मिलकर बहुत खुश हुआ और उसने गन्ना से वादा किया कि कुछ ही दिनों में वह उससे शादी कर लेगा। लेकिन इस बीच गन्ना को पता चला कि जवाहर पहले ही अपने बड़े भाई नाहर सिंह की विधवा से ब्याह कर चुका है। इस बात से गन्ना का दिल टूट गया और वह अवसाद में डूब गई। वह अपनी ज़िन्दगी को लेकर पशोपेश में थी, तभी उमदा ने एक बार फिर उसकी मदद की। उसने गन्ना को सिख युवक के भेस में ग्वालियर के शासक महादजी सिंधिया की सेना में भर्ती करवा दिया। हिंदी, अरबी और फारसी में काबिलियत देख महादजी ने उसे अपना पत्र-लेखक बना लिया और उसका नाम गुनी सिंह रख दिया।
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एक बार महादजी और गुनी सिंह एक नदी पार कर रहे थे। नदी की तेज धार में अचानक गुनी सिंह ‘बहने लगा’। महादजी ने उसे बचा तो लिया लेकिन जब वह बेहोश ‘था’ तो उसकी हकीकत महादजी के सामने उजागर हो गई। लेकिन महादजी ने इस राज़ को राज़ ही रहने दिया। एक दफा पुणे प्रवास के दौरान गुनी सिंह ने न केवल महादजी की हत्या की योजना विफल की बल्कि हत्यारे को भी मरवा डाला। उसकी बुद्धिमत्ता से महादजी बहुत प्रभावित हुए और धीरे-धीरे दोनों के बीच नज़दीकियां बढ़ती चली गईं। हालाँकि बाहर वालों के लिए गन्ना अभी भी गुनी सिंह ही थी।
महादजी एक कवि थे, उन्होंने पाया कि गन्ना भी न केवल एक उम्दा कवि है बल्कि एक अच्छी गायिका भी है। उसके पास एक रत्नजड़ित तम्बूरा था। उसने महादजी की अनेक रचनाओं को अपनी आवाज़ दी। वह जब गाती थी तब पूरे माहौल में जैसे जादू छा जाता था। उसका गायन सुनकर महादजी भी मंत्रमुग्ध हो जाते थे। इस तरह गन्ना के जीवन में खुशियां लौट आयीं थीं लेकिन उनकी उम्र ज़्यादा नहीं थी।
सन 1774 में शिहाबुद्दीन ग्वालियर रियासत के नूराबाद तक आ पहुंचा। उन दिनों मुस्लिम फ़कीर अपने समुदाय को एकजुट करने के लिए पूरे देश में घूमा करते थे ताकि देशी राजा कभी ताकतवर न बन पाएं और दिल्ली पर कब्ज़ा न कर लें। शिहा ऐसे फ़कीरों की खुलकर मदद किया करता था। इसी सिलसिले में फ़क़ीरों से उसकी मुलाक़ात नूराबाद में होनी थी। गन्ना को सिंधिया रियासत के खुफिया तंत्र से इसकी सूचना मिली, तो वह बुरका पहन कर उनके षड्यंत्रों का जायजा लेने गई। धूर्त शिहा ने चालढाल से ही अपने हरम में रही गन्ना को पहचान लिया और अपने सैनिकों को उसे पकड़ने के लिए कहा।
सैनिक गन्ना को पकड़कर शिहा के शिविर में ले आए। गन्ना को देखकर वह काफ़ी खुश हुआ और उसने उसके साथ रात बिताने के एलान कर दिया। पूरी तरह नशे में धुत्त शिहा किसी काम से बाहर गया तो गन्ना ने पीने के लिए पानी माँगा। अपने कपड़ों में छिपाई हुई ज़हर की पुड़िया वह पानी में मिलाकर पी गई। शिहा जब तक वापस आया तब तक गन्ना के प्राण पखेरू उड़ चुके थे। गन्ना की सुरक्षा में गए खुफिया सैनिकों ने जब महादजी को यह सूचना दी तो वे असीम दुःख में डूब गए। उन्होंने नूराबाद में में संगमरमर से गन्ना बेगम का मकबरा बनवाया और उस पर लिखवाया – आह ! ग़म-ए-गन्ना ।
• अनुवाद और सम्पादन पलाश सुरजन
साभार: मधु की डायरी डॉट कॉम
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